नव धर्मान्तरित ज्यादा खतरनाक होते हैं भाग-5:
कश्मीर में आधुनिक आतंकवाद के जनक शेख अब्दुल्ला
(कारण, नव धर्मान्तरित को साबित करना होता है कि 1. जिस नाले में उसने डुबकी लगाई है वह पवित्र गंगाजल से बेहतर है और 2. उसे नाले में रहने केलिए अनुकूलित होना पड़ता है।)
आतिश-ए- चिनार में शेख अब्दुल्ला ने लिखा है कि उनके पूर्वज कश्मीरी पंडित थे। उनके परदादा का नाम बालमुकुंद कौल था। उनके पूर्वज मूल रूप से सप्रू गोत्र के कश्मीरी ब्राह्मण थे। किताब के मुताबिक अफगान शासनकाल में 1766 ईस्वी में उनके पूर्वज रघुराम ने एक सूफी के हाथों इस्लाम कबूल किया था।
जम्मू-कश्मीर की एतिहासिक पृष्ठभूमि पर थोडा दृष्टिपात करने से पता चलता है कि चौदहवीं सदी तक कश्मीर हिंदू-प्रदेश था, परन्तु थोड़ी सी भूल ने लाखों हिंदुओं को मुस्लिम बनने पर मजबूर कर दिया। अमृतसर में हुए अंग्रेजों और महाराजा गुलाबसिंह के बिच उभयानवय संधि के पश्चात 1846 में जम्मू-कश्मीर के महाराज गुलाब सिंह के दरबार में लाखों की संख्या में मुस्लिम स्त्री पुरुष बड़ी उम्मीद लेकर अपने एवं अपने परिवारवालों पर मुस्लिम आक्रमणकारियों, आततायियों द्वारा हुए अत्याचार एवं जबरन धर्म परिवर्तन कराए जाने का हवाला देते हुए उन्हें शुद्ध कर फिर से अपने प्यारे हिंदू धर्म में वापस लेने की प्रार्थना की, परन्तु मुर्ख पुरोहित की मूर्खता के कारन यह समाज उद्धारक कार्य नही हो सका।
गुलाब सिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र रणवीर सिंह फिर प्रताप सिंह और अब हरिसिंह कश्मीर के महाराजा हुए। इतने दिनों तक जम्मू-कश्मीर में शांति एवं हिंदू-मुस्लिम भाईचारा बना रहा। लेकिन जैसे जैसे धर्मान्तरित कश्मीरी मुसलमान अपना हिंदू इतिहास भूलते गए हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की नीव कमजोर पड़ने लगी। 1931 में हिन्दू बालमुकुन्द कौल का परपोता जिहादी शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में कुछ लोग सत्ता के लिए हिंदुओं की हत्या, लूट-मार करने लगे। वे भारत माता की जय का नारा लगाने पर खुलेआम हत्या कर देते थे। बाद यह एक अलगाववादी संगठन मुस्लिम कांफ्रेंस में शामिल हो गया। परिणामतः शेख अब्दुल्ला को कई बार गिरफ्तार कर नजरबंद किया गया।
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम के तहत देशी रियासतों को यह अधिकार दिया गया की वे इच्छानुसार भारत या पाकिस्तान किसी भी डोमिनियन में शामिल हो सकते है। 15 अगस्त, 1947 तक जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर को छोडकर शेष सभी देशी रियासतें भारत या पाकिस्तान में शामिल हो चुकी थी। गाँधी, नेहरु और माउंटबेटन ने शेख अब्दुल्ला की मांग पर जम्मू-कश्मीर में प्लेबीसाईट थोप दिया था। प्लेबीसाईट के नाम से ही जम्मू-कश्मीर के हिंदू और सिक्ख बहुत भयभीत थे। बहुतों ने तो पलायन भी करना शुरू कर दिया था। 78% मुस्लिम आबादी वाले जम्मू-कश्मीर में प्लेबीसाईट का निर्णय भारत के पक्ष में जाने का भरोसा नेहरु के अतिरिक्त शायद ही किसी को हो।
जम्मू-कश्मीर के सर्वेक्षण पर गए शिवानलाल सक्सेना ने अपने रिपोर्ट में लिखा था-“मैंने कश्मीर का सर्वेक्षण किया है और प्लेबीसाईट जीतने की उम्मीद महापागलपन (mid night madness) प्रतीत होता है। शेख अब्दुल्ला का कश्मीरी मुस्लिमों पर बेशक प्रभाव है, पर नेहरु और गाँधी जी के घोषणा के बदौलत मुस्लिम हिंदुस्तान के पक्ष में मत देंगे ऐसा किसी को भी उम्मीद नही है। प्लेबीसाईट की अनावश्यक घोषणा कर हमने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार लिया है और मामले को यू एन ओ में ले जाना और फिर जब हम जीत रहे थे उस वक्त युद्ध बंदी की घोषणा बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण रहा है।”
तत्पश्चात परिणाम की कल्पना से ही हिंदू, सिक्ख और स्वयम महाराज सहमे हुए थे। माउन्टबेटन कश्मीर को पाकिस्तान की झोली में डालने को उद्धत था तो गाँधी प्लेबीसाईट थोपने पर आमादा और नेहरु एक ऐसा घोडा था जिसकी नकेल इन दोनों के हाथ में ही था। जैसा की हरिसिंह ने भी कहा, “गाँधी, नेहरु और माउन्टबेटन के चंगुल में फंसा भारतीय संघ किसी मुस्लिम अतिक्रमणकारी शासक के शिकंजे से कम नही है।”
परन्तु, जब 22 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान ने जिगरेवालों को आगे कर जम्मू-कश्मीर पर आक्रमण कर दिया और रियासत के आधे सैनिक जो मुसलमान थे आक्रमणकारियों से मिलकर हिंदुओं और सिक्खों का कत्लेआम, लूट-मार, आगजनी और बलात्कार का तांडव करने लगे तो हरिसिंह मजबूर होकर भारत में शामिल होने के विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। परन्तु नेहरु इस विलय पत्र को तभी स्वीकार किये जब हरिसिंह से शेख अब्दुल्ला को रिहा कर प्रधानमंत्री बनाने की बात मनवा ली। इस पर भी माउन्टबेटन की चाल में फंसकर इस विलय को ‘अस्थायी’ करार देने और प्लेबीसाईट के आधार पर अंतिम निर्णय लेने एवं मामले को यू एन ओ में ले जाकर पाकिस्तान को अकारण ही एक पक्ष बनाकर घोर बिडम्बना का परिचय दिए।
नेहरु-शेख अब्दुल्ला ने जबरन महाराज को कश्मीर से बाहर कर दिया
बाद इसके शुरू हुआ महाराज को शासन से बाहर करने और शेख अब्दुल्ला को तख्त पर बिठाने का सिलसिला। महाराज हरिसिंह को कश्मीर की राजनीती से जबरन दूध की मक्खी की तरह निकालकर मुंबई जाने को विवश किया गया। जैसा की श्री मेनन ने अपने रिपोर्ट में कहा था- “शेख अब्दुल्ला महाराज हरिसिंह का आखिरी बूंद खून तक चूस जाना चाहता है।”
दरअसल नेहरु को शेख अब्दुल्ला पर अंध विश्वास था और इसी के भरोसे वे प्लेबीसाईट जीतने के प्रति निश्चिन्त थे। परन्तु सत्ता प्राप्ति के पश्चात शेख अब्दुल्ला धीरे-धीरे अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया। शेख अब्दुल्ला अब खुलकर आजाद कश्मीर का राग अलापने लगा। उसके इंटरव्यू में दिए एक बयान ने नेहरु की कल्पना की उड़ान को थोडा ब्रेक लगाया।
शेख अब्दुल्ला ने कहा, “जम्मू-कश्मीर का किसी भी डोमिनियन में विलय शांति बहाल नही कर सकती है। हमलोग दोनों डॉमिनियनो के साथ मित्रवत व्यवहार बनाये रखना चाहते है, यही एक मध्यमार्ग है। कश्मीर की स्वतंत्रता की गारंटी न केवल भारत और पाकिस्तान को देनी होगी वरन ब्रिटेन, संयुक्त राष्ट्र संघ तथा इसके दूसरे सदस्यों को भी देनी होगी….भारत ने महाराज के साथ स्थायी समझौता कर इसे ठुकराकर जवाब दिया है, पाकिस्तान ने भी कुछ ऐसा ही किया है। परन्तु, भारत ने विलय के वक्त यह स्पष्ट घोषणा किया है कि यह विलय अस्थायी है और बाद में यहाँ की जनता निर्णय करेगी की वे क्या करेंगे…..”
सच्चाई यही थी कि शेख अब्दुल्ला जानता था जम्मू-कश्मीर का पाकिस्तान में विलय होने पर यहाँ का तानाशाह शासक बनने का उसका स्वप्न धरा रह जायेगा। इसीलिए वह नेहरु जैसे नरम चारा का हाथ थामे हुए था। आज भी नेशनल कांफ्रेंस के पूर्व अध्यक्ष फारुक अब्दुल्ला का कहना है कि यदि जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा होता तो वे प्रधान मंत्री होते और हुर्रियत कांफ्रेंस आदि अलगाववादी लोग शेख अब्दुल्ला की आजाद कश्मीर की भांति ही राग अलापते है।
प्रारम्भ में पाकिस्तान खुद शेख अब्दुल्ला का कश्मीरी मुस्लिमों पर प्रभाव को देखते हुए प्लेबीसाईट से मुकर गया। नेहरु भी शेख अब्दुल्ला के आजाद कश्मीर की मांग से बौखला गए थे लेकिन जम्मू-कश्मीर के भाग्य का फैसला करने वाला तुरुप का पत्ता तो शेख अब्दुल्ला के हाथों में जा पड़ा था। अब जम्मू कश्मीर के भाग्य का फैसला करने का हक न भारत संघ के हाथ में रह गया था न भारतियों के और न ही महाराज हरिसिंह के हाथ में। अब देश का हित अनहित और जम्मू-कश्मीर एवं वहाँ के अल्पसंख्यकों के भाग्य का फैसला करने का हक चंद कश्मीरी मुसलमानों के हाथ में आ गया था। अब नेहरु को समझौता के आलावा कोई रास्ता दिखाई नही पड रहा था। इसलिए आजाद कश्मीर तो नही परन्तु उसके समकक्ष प्रास्थिति प्रदान करनेवाला धारा 370 को दहेज में देकर जम्मू-कश्मीर की सगाई भारत के साथ करवा दी।
धारा 370 के अनुसार जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा राज्य के संविधान का निर्माण करेगी और यह निश्चित करेगी की संघ की अधिकारिता किन क्षेत्रों में या विषयों पर होगी। जम्मू-कश्मीर संविधान संशोधन अधिनियम 1951 के तहत वंशानुगत प्रमुख के पद को समाप्त कर निर्वाचित सदर-ए-रियासत को राज्य का प्रमुख बनाया गया। 1952 में दिल्ली में भारत सरकार तथा जम्मू-कश्मीर राज्य संविधान सभा के लंबित रहने पर कुछ विषयों पर संघ को अधिकारिता प्रदान की गयी। इस समझौते की अन्य महत्वपूर्ण बातें निम्नलिखित है:
१. भारत सरकार इस बात पर सहमत हुए की जहाँ अन्य राज्यों के मामले में अवशिष्ट शक्तियाँ केंद्र के पास होगी वही जम्मू-कश्मीर की स्थिति में ये शक्तियाँ राज्य के पास ही रहेगी।
२. जम्मू-कश्मीर के निवासी भारत के नागरिक माने जायेंगे लेकिन उन्हें विशेष अधिकार एवं प्राथमिकताएँ देने संबंधी कानून बनाने का अधिकार राज्य विधान सभा को होगा।
३. भारत संघ के झंडे के अतिरिक्त जम्मू-कश्मीर का अपना अलग झंडा होगा।
४. सदर-ए-रियासत अन्य राज्यों के राज्यपाल के समकक्ष की नियुक्ति जहाँ अन्य राज्यों में संघ सरकार तथा राष्ट्रपति द्वारा की जायेगी वहीँ जम्मू-कश्मीर के मामले में यह अधिकार राज्य विधान सभा की होगी।
५. राज्य में न्यायिक सलाहकार मंडल के अस्तित्व के कारन सर्वोच्च न्यायलय को केवल अपीलीय क्षेत्राधिकार होगा।
६. दोनों पक्ष इस बात पर सहमत है कि राज्य विधान मंडल के निलंबन से सम्बन्धित अनुच्छेद 356 तथा वित्त आपात से सम्बन्धित अनुच्छेद 360 जरूरी नही है।
2024 के विधान सभा चुनाव परिणाम से भी स्पष्ट हो गया है कि शेख अब्दुल्ला ने जो भारत विरोधी, हिन्दू विरोधी जिहादी मानसिकता का जहर कश्मीरियों के दिमाग में बोया था वह जस का तस है क्योंकि भारत की भाजपा सरकार कश्मीर में चहुमुखी विकास, शांति, समृद्धि, शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, सड़क, पानी, बिजली देकर भी कश्मीरी मुसलमानों का वोट प्राप्त नहीं कर सका है। उन्होंने अपना वोट आतंक, जिहाद, पत्थरबाज, पाकिस्तान समर्थक राजनितिक पार्टियों को ही दिया है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि भाजपा मुसलमानों का वोट चहुमुखी विकास, शांति, समृद्धि, शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, सड़क, पानी, बिजली देकर नहीं प्राप्त कर सकता और उसे अपना दुराग्रह छोड़कर राष्ट्र, धर्म और राष्ट्रभक्त समाज के उत्थान, विकास और सुरक्षा पर ध्यान देना चाहिए।