समाजवादी हरा आमी ने भारत के जिस महानायक, महान योद्धा को “गद्दार” कहकर राज्यसभा में संबोधित किया, आईये जानते हैं कि वे कौन थे!
महाराणा सांगा अर्थात महाराणा संग्राम सिंह। इस महान योद्धा के बारे में आप जितना पढ़ेंगे, उतना ही आश्चर्य में डूबते चले जायेंगे। लगभग सौ युद्ध और अधिकांश में विजय! शरीर के हर अंग पर युद्ध के चिन्ह सजाए इस रणकेसरी को खंडहर, सैनिकों का भग्नावशेष आदि कहा गया है … जैसे रणचंडी ने उन्हें अपने हाथों से पुरस्कार स्वरूप घावों के आभूषण पहनाए हो।
एक योद्धा की एक आँख चली गयी..किसी दूसरे युद्ध में एक पैर नाकाम हो गया, वह फिर भी लड़ता रहा। किसी युद्ध में एक हाथ कट गया, वह फिर भी उसी उत्साह के साथ लड़ता रहा… जैसे युद्ध युद्ध नहीं, उसकी पूजा हो, तपस्या हो…! ऐसी अद्भुत गाथाएं भारत में ही मिलती हैं…। कुछ योद्धाओं की भूख प्यास युद्ध से ही तृप्त होती है। उन्हें न शरीर के घाव विचलित करते हैं, न परिस्थितियों की विकरालता रोक पाती है। युद्ध उनके लिए आनन्द का उत्सव होता है। समुद्रगुप्त, मिहिरभोज आदि की तरह राणा सांगा भी वैसे ही योद्धा थे।
अधिकांश लोग महाराणा सांगा को बाबर से मिली पराजय के लिए जानते हैं। वामपंथी जिहादी इतिहासकार उन्हें लूटेरे बाबर को भारत पर आक्रमण केलिए आमंत्रित करने में पंजाब के शासक दौलत खां लोदी के बराबर जिम्मेदार बताते हैं। यह वस्तुतः भारत की वामपंथी शिक्षा व्यवस्था का दिवालियापन है। राणा सांगा खुद दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी को दो दो बार हरा चुके थे, उन्हें किसी बाहरी लूटेरे के सहयोग की क्या आवश्यकता थी?
इब्राहीम लोदी का रिश्तेदार दौलत खां लोदी दिल्ली की सत्ता पाना चाहता था इसलिए उसने लूटेरे बाबर को आमंत्रित किया था और इसके लिए उसने राणा सांगा से सहायता माँगा था और राणा ने दौलत खां लोदी और बाबर को सहयोग का वचन दिया था। पर जब राणा सांगा ने बाबर को खुद ही दिल्ली पर अधिकार कर सत्ता हथियाने केलिए अग्रसर देखा तो उन्होंने उसकी कोई सहायता नहीं की बल्कि भारत की भूमि से उस लूटेरे, आक्रमणकारी को भगाने केलिए हिन्दु राजाओं और मुस्लिम शासकों के सहयोग से विशाल सेना संगठित किया और बाबर से युद्ध किया।
वास्तव में महाराणा सांगा को याद किया जाना चाहिये दिल्ली सल्तनत के इब्राहिम लोदी को दो दो बार हराने के लिए, गुजरात सल्तनत वाले मुजफ्फर शाह को पराजित करने के लिए। उन्हें याद किया जाना चाहिये मालवा के शासक महमूद खिलजी को पराजित कर तीन महीने तक बांध कर रखने के लिए…मालवा से जजिया समाप्त करने के लिए, बयाना के युद्ध में बाबर को पराजित करने के लिए। उन्हें याद किया जाना चाहिये बर्बर आतंकियों के विरुद्ध भारतीय शक्तियों का एक मजबूत संघ बनाने के लिए आदि।
मेवाड़ के राणा सांगा ने मुस्लिम सेनापति की बेटी मेरूनीसा से शादी की. इसके अलावा उन्होंने तीन और मुस्लिम लड़कियों से शादी की थी. अपराजित योद्धा के तौर पर पहचाने जाने वाले महाराणा कुंभा ने भी जागीरदार वजीर खां की बेटी से शादी की थी.
महाराणा सांगा की मृत्यु की कहानी भी अद्भुत ही है। कहते हैं कि उन्हें उनके सामंतों ने ही विष दे दिया। क्यों? क्योंकि खानवा के युद्ध में बाबर से पराजित होने के तुरंत बाद ही उन्होंने पुनः युद्ध की तैयारी शुरू कर दी थी। वह भी तब, जब उनका शरीर पूरी तरह से जर्जर हो चुका था। बुरी तरह घायल होने और सेना और सहयोगियों का समर्थन खो देने के बाद भी युद्ध में उतर जाने का साहस युगों में किसी एक के भीतर होता है। किसी योद्धा को रोकने के लिए उसके प्रिय लोगों को ही उसे विष देना पड़े, तो आप राष्ट्र के प्रति उसकी भावनाओं का अंदाजा लगा सकते हैं।
योद्धा का आकलन उसकी राजनैतिक/कूटनीतिक विजयों पराजयों से कम, उसके शौर्य से अधिक होना चाहिए। उसमें राष्ट्र के लिए लड़ने रहने का जुनून कितना है। कोई भी राष्ट्र किसी एक युद्ध में हार जाने से समाप्त नहीं होता, राष्ट्र पराजित होता है जब उसके नायकों का शौर्य चूक जाता है। हजार वर्षों के संघर्ष की यात्रा में भारत अनेक युद्ध हारा है, पर उसके उसके नायकों का शौर्य, संघर्ष और राष्ट्र के प्रति निष्ठां कभी पराजित नहीं हुआ। यही कारण है कि भारत हार कर भी जिन्दा है वर्ना दर्जनों राष्ट्र इतिहास में अपना अस्तित्व खो चुके हैं। आईये विस्तार से इस महायोद्धा की गाथा पढ़ें।
अपने पराक्रम के लिए प्रसिद्ध मेवाड़ के राणा सांगा 1508 में मेवाड़ के उस सिंहासन पर बैठे, जिसे कभी प्रतापी महाराणा कुम्भा ने सुशोभित किया था और जिन्होंने मालवा के सुलतान को परास्त किया था। ये वही महाराणा कुम्भा थे, जिनकी यशोगाथा की साक्षी कुंभलमेर के विशाल क़िले की प्राचीरें रही हैं।
राणा सांगा ने भारतीय इतिहास के अत्यंत गंभीर अवसर पर इतिहास के रंगमंच पर क़दम रखा था। उन्हें हिंदूपत, अर्थात हिंदुओं का प्रमुख कहा जाता था। जब सोलहवीं सदी के शुरुआती दशकों में दिल्ली के अफ़गान सुल्तान कमज़ोर हो रहे थे, राजपूताना में राणा सांगा के नेतृत्व में हिंदू राजाओं का एक विशाल संगठन उभर रहा था, जो दिल्ली में अफ़गान सत्ता को ख़त्म करके हिंदुओं की सत्ता की स्थापना करना चाहता था। देशभक्ति, कर्तव्यनिष्ठा, उदारता और शौर्य जैसे गुणों के लिए और साथ ही एक शक्तिशाली मेवाड़ रियासत के प्रमुख के रूप में भारत में राणा सांगा की अलग ही प्रतिष्ठा थी। वे मेवाड़ के सबसे महान महाराणा थे। उनके शासनकाल में मेवाड़ राज्य शक्ति और समृद्धि के सर्वोच्च शिखर पर पहुंच गया था। उन्हें मेवाड़ की प्रतिष्ठा का कलश माना जाता था। राणा सांगा अदम्य साहसी थे। एक भुजा, एक टांग और एक आंख खोने और कई ज़ख्म खाने के बावजूद वे महान पराक्रमी थे।
महाराणा सांगा ने सिकंदर लोदी के समय ही दिल्ली के अधीनस्थ इलाकों पर अधिकार करना शुरू कर दिया था। सिकंदर लोदी के उत्तराधिकारी इब्राहिम लोदी ने 1517 में मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया था। खातोली(कोटा) नामक स्थान पर दोनों पक्षों के बीच युद्ध हुआ जिसमें महाराणा सांगा की विजय हुई। इस युद्ध में तलवार से सांगा का बायाँ हाथ कट गया था और घुटने पर तीर लगने से वह हमेशा के लिए लंगड़े हो गए थे। खातोली की पराजय का बदला लेने के लिए 1518 में इब्राहिम लोदी ने मियां माखन की अध्यक्षता में महाराणा सांगा के विरुद्ध एक बड़ी सेना भेजी परन्तु हार का सामना करना पड़ा।
इन विजयों के परिणामस्वरूप राणा संग्रामसिंह के राज्य की सीमा आगरा के पास तक पहुंच गई। इब्राहीम लोदी का मानमर्दन करने से राणा सांगा की विजय गाथा की चर्चा सारे उत्तरी भारत में हुई। लेकिन यह गाथा यहीं ख़त्म नहीं हुई। सन 1519 में सुल्तान महमूद मेदिनीराय पर आक्रमण के लिए रवाना हुआ था। इस बात की खबर लगते ही सांगा भी एक बड़ी सेना के साथ गागरोन पहुंच गए। यहां हुई लड़ाई में सुल्तान की बुरी तरह से पराजय हुई। सुल्तान का पुत्र आसफखाँ इस युद्ध में मारा गया तथा वह स्वयं घायल हुआ। महाराणा सांगा सुल्तान को अपने साथ चित्तौड़ ले गए, जहां सांगा ने उसे 3 माह कैद में रखा था।
इस युद्ध में विजय प्राप्त करने से चंदेरी के क़िले के अलावा मालवा के अधिकांश हिस्सों पर राणा का क़ब्ज़ा हो गया। मालवा में अपनी सत्ता स्थापित करने के बाद राणा सांगा ने मेदिनी राय को हिंदुओं पर लगाए जा रहे जजि़या कर को ख़त्म करने का आदेश दिया। राजपूताने पर एकछत्र राणा सांगा ने अपने राजनीतिक कौशल और सैन्य प्रतिभा से सभी राजपूत राज्यों को संगठित किया और उन्हें एक छतरी के नीचे ले आए। उन्होंने अपना प्रभुत्व उत्तर में सतलज नदी से दक्षिण में नर्मदा नदी तक और पश्चिम में सिंधु नदी से लेकर पूर्व में बयाना, भरतपुर तक विस्तृत कर लिया था। इस प्रकार उस ज़माने में भारत में उनका हिंदू साम्राज्य काफ़ी विस्तृत था। इतने बड़े इलाक़े में राणा सांगा के अलावा एक ही हिंदू राज्य था, दक्षिण का विजयनगर साम्राज्य जो गोदावरी से लेकर कन्याकुमारी तक फैला हुआ था।
बाबर अपने संस्मरण ‘बाबरनामा’ में राणा सांगा को सबसे शक्तिशाली शासक बताता है जिसने अपनी तलवार के बल पर ऊंचा स्थान हासिल किया था। कर्नल टाड के अनुसार, उनके पास 80 हज़ार घोड़े, ऊंचे दर्जे के सात राजा, 9 राव और 104 रावल थे। 500 हाथी उनकी सेना में थे। मारवाड़ और आम्बेर उन्हें सम्मान देते थे और ग्वालियर, अजमेर, सीकरी (वही जो अब फतेहपुर सिकड़ी कहलाता है और जिनकी नगरी को वामपंथी जिहादी इतिहासकार अकबर द्वारा बसाया बताते है), रायसेन, कालपी, चंदेरी, बूंदी, गागरौन, रामपुरा और आबू के राजा उन्हें अपना अधिपति मानते थे।
बाबर ने अपनी कम सेना के बावजूद पानीपत के युद्ध में दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी की विशाल सेना को पराजित किया और दिल्ली-आगरा पर क़ब्ज़ा कर लिया था। राणा सांगा जैसे वीर और महत्वाकांक्षी योद्धा ने इस विदेशी आक्रांता को देश के बाहर निकालने का संकल्प किया और सभी राजपूतों के सहयोग से एक शक्तिशाली सेना जुटाई।
राणा ने बयाना पर आक्रमण किया और वहां के गवर्नर मेहदी ख़्वाज़ा को हराकर बयाना के क़िले में बंद रहने के लिए मजबूर कर दिया। राणा के साथ बहुत-से शक्तिशाली सरदार हो लिए, जिनमें रायसेन का सिलहदी, हसन ख़ां मेवाती और इब्राहीम लोदी का भाई महमूद लोदी भी था। राणा ने मान लिया कि बाबर पर विजय हासिल करने के बाद महमूद लोदी को चितौड़ के प्रतिनिधि के रूप में दिल्ली का सिंहासन सौंप दिया जाएगा। अब बाबर ने एक सैनिक टुकड़ी बयाना की सहायता के लिए भेजी, लेकिन वहां के दुर्ग रक्षकों से मुठभेड़ में बाबर की सेना क़ामयाब न हो सकी और घबराकर भाग खड़ी हुई। पराजित सैनिकों ने वापस लौटने पर राजपूतों के शौर्य, साहस और वीरता के क़िस्से बाबर को सुनाए। इस समय तक बाबर सीकरी पहुंच चुका था, जहां राणा सांगा पहले ही खानवा के पास एक पहाड़ी तक चढ़ आए थे।
खानवा वर्तमान भरतपुर राज्य का एक गांव था। यह आगरा के पश्चिम में 37 मील और सीकरी से 10 मील दूर था। बाबर ने 1,500 सैनिकों का एक दल शत्रु की स्थिति का निरीक्षण करने के लिए भेज दिया। ये भी बुरी तरह पराजित हुए और वहां से खदेड़ दिए गए। अब बाबर एक अत्यंत विषम स्थिति में पड़ गया था। उसकी सेना घबरा गई थी और राजपूतों के पराक्रम से भयभीत होने लगी थी। इसी बीच काबुल के ज्योतिषी मुहम्मद शरीफ़ ने बाबर को बताया कि मंगल का तारा सामने है, इसलिए बाबर की फ़ौज की ज़रूर हार होगी। इससे मुग़ल सेना और घबरा गई और वापस लौटने की बात करने लगी। बाबर के लिए यह ज़रूरी हो गया था कि वह किसी तरह अपने साथियों का साहस बढ़ाए। उसने राणा सांगा के ख़िलाफ़ जिहाद का नारा दिया। बाबर की ये युक्तियां कारगर साबित हुईं और सैनिकों में उत्साह का संचार हुआ।
एक निर्णायक संघर्ष खानवा में दोनों सेनाएं एक-दूसरे के सामने थीं। 16 मार्च 1527 को प्रातः 9 बजे लड़ाई शुरू हुई। राजपूतों के लिए मुग़लों का तोपख़ाना भयंकर सिद्ध हुआ। 20 घंटे चले इस भयानक युद्ध में बाबर विजयी हुआ। राणा सांगा घायल हो गए और उनके अनुगामी उन्हें बसवा नामक सुरक्षित स्थान पर ले गए। राणा सांगा के सहयोगी हसन मेवाती और अन्य प्रमुख सरदार वीरगति को प्राप्त हुए, लेकिन महमूद लोदी साफ़ बचकर निकल गया।
जब गंभीर रूप से घायल राणा सांगा की चेतना लौटी तो उन्हें बहुत निराशा हुई और उन्होंने ख़ुद को रणथम्भौर के महल में बंद कर लिया। उस समय बाबर ने खानवा से चलकर चंदेरी पर घेरा डाल रखा था। राणा सांगा ने तय किया कि वे बाबर से मुक़ाबला करने चंदेरी रवाना होंगे। लेकिन राणा के साथी सरदार अब युद्ध के लिए तैयार नहीं थे और उन्होंने युद्ध से बचने के लिए राणा सांगा को ज़हर दे दिया। इसी ज़हर से 30 जनवरी, 1528 को राणा का निधन हो गया। उनका अंतिम संस्कार माण्डलगढ़ में हुआ। उधर बाबर ने राणा के निधन के एक दिन पहले ही चंदेरी के क़िले पर अधिकार कर लिया था।
राणा सांगा का तो अंत हो गया लेकिन राजपूतों के शौर्य ने बाद में भी एकाधिक बार शत्रुओं को चुनौती दी। राजपूत कुछ साल में फिर उठ खड़े हुए और गुजरात के बहादुरशाह तथा दिल्ली के शेरशाह को उनसे मुक़ाबला करना पड़ा। जोधपुर के घेरे में तो राजपूतों ने शेरशाह से हुए युद्ध में इतनी वीरता प्रदर्शित की कि शेरशाह को लगा वह हार जाएगा और साम्राज्य उसके हाथ से निकल जाएगा।
राजपूत उच्चकोटि के वीर और साहसी सैनिक थे, लेकिन उनके सेनानायकों और स्वामियों ने उनकी वीरता का सही उपयोग नहीं किया। न उन्हें बेहतर घोड़े दिए, न उम्दा अस्त्र-शस्त्र दिए और न ही विदेशों में अपनाए जा रहे युद्ध के नए तरीक़ों और आविष्कारों का उपयोग किया। उन्होंने बहादुर राजपूतों को युद्ध में प्राणोत्सर्ग करना तो सिखाया लेकिन युद्ध जीतने के तरीक़े नहीं अपनाए। राजपूताने के बहादुर सैनिकों ने अपने शौर्य और आत्मसम्मान के उदाहरण प्रस्तुत किए हैं।
महिलाएं भी उनसे पीछे नहीं थीं। तभी तो राजपूत वीरांगनाएं युद्धक्षेत्र में अपने पति के प्राणोत्सर्ग को उनकी पराजय से श्रेयस्कर मानते हुए डिंगल भाषा में यह कहने का साहस कर सकती थीं कि ‘भल्ला हुआ जो मारिया जो बहिणि म्हारा कंतु, लज्जेजेउ वयंशु यहु जेई भग्गा घरु एन्तु’- हे सखी, यह अच्छा ही हुआ कि मेरा पति रणक्षेत्र में मारा गया, यदि वह पराजय के बाद घर भागकर आता तो हमारा वंश लज्जित होता। ऐसी वीरप्रसूता भूमि में जन्मे योद्धाओं में शौर्य और प्राणोत्सर्ग की भावना के अनगिनत उदाहरणों से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं। लेकिन इतिहास यह बताता है कि सिर्फ़ प्राण देने से युद्ध नहीं जीते जाते, बेहतर शस्त्र और सटीक रणनीति भी विजय हासिल करने के लिए ज़रूरी होते हैं।
संग्रहकर्ता: मुकेश कुमार वर्मा
स्रोत: साभार न्यूज चैनल्स, विकिपीडिया आदि