जम्मू कश्मीर
कितने आश्चर्य की बात है की देश के किसी भी भाग में बसने की हमारी संवैधानिक स्वतंत्रता जम्मू-कश्मीर की सीमा के पास जाकर घुटने टेक देती थी. वर्षों से जम्मू-कश्मीर की सुरक्षा के लिए जान की बाजी लगाकर डटे रहनेवाले भारतीय सैनिक जम्मू-कश्मीर में दो गज जमीन पाने के हकदार नही थे. वहाँ की नागरिकता पृथक मानी जाती थी. करोडो भारतियों का गौरव भारतीय सम्विधान जम्मू-कश्मीर में कुछ लाख लोंगो के बीच गौरवहीन हो जाता था क्योंकि जम्मू-कश्मीर का अपना अलग सम्विधान था. यहाँ तक की भारतियों की आँखों का तारा तिरंगा झंडा, जिसके लिए हजारों लोगों ने हंसते-हंसते प्राण न्योछावर किये थे वही जम्मू-कश्मीर में महत्वहीन हो जाता था. स्वतंत्रता पश्चात सरदार पटेल के नेतृत्व में देश के तमाम रियासतों के झंडे अतीत के गर्भ में विलीन हो चुके थे, परन्तु जम्मू-कश्मीर का झंडा देश की सम्प्रभुता पर प्रश्न चिन्ह लगाने के लिए बचा ही था. संविधान में वर्णित राज्य के नीति के निदेशक तत्वों से जम्मू-कश्मीर राज्य को कोई सरोकार नही था.
जम्मू-कश्मीर को प्रतिवर्ष हम भारतीयों के खून पसीने की कमाई से दिए गये हजारों करोड़ रुपये का अनुदान के खर्च का हिसाब भातीय संसद नही मांग सकती थी. राष्ट्रपति द्वारा वित्तीय आपात की घोषणा भी इस राज्य पर लागु नही हो सकता था. कश्मीरी लड़कियों की सबसे दुखद स्थिति यह थी कि जम्मू-कश्मीर के अन्येतर किसी व्यक्ति से शादी करने पर वह न केवल पैत्रिक सम्पत्ति वरन स्वार्जित सम्पत्ति से भी बेदखल हो जाती थी परन्तु मुसलमान यदि पाकिस्तान से बहु उठाकर लाये तो वह कश्मीर की स्वाभाविक नागरिक बन जाती थी. परन्तु अब ऐसा नहीं होगा क्योंकि इन सभी परिस्थितियों का कारन काला कानून के नाम से कुख्यात रही धारा ३७० और असंवैधानिक रूप से नेहरु के द्वारा बहुत बाद में केवल राष्ट्रपति के हस्ताक्षर से संविधान में शामिल किया गया धारा 35 A जिसने जम्मू-कश्मीर को भारत से अलहदा कर रखा था अब लगभग खत्म हो गया है.
जानिए क्या था काला कानून धारा ३७०
धारा ३७० के कारन जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग होते हुए भी भिन्न प्रतीत होता था और यही वजह थी कि जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों, अलगाववादियों की पौ बारह थी. यही वज़ह थी की पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर की ७८११४ वर्ग किलोमीटर (३०% हिस्सा) जमीन हड़पने के पश्चात शेष भाग पर गिद्ध दृष्टि लगाये बैठा था.
धारा ३७० के कारन जम्मू-कश्मीर क्षेत्र में अलगाववादियों को दुष्प्रचार को पर्याप्त जगह मिलता था और वह शेख अब्दुल्ला द्वारा जम्मू-कश्मीर में तानाशाह स्थापित करने के स्वप्न को साकार करने के लिए प्रयत्नशील थे जिसे वह आजाद कश्मीर का नाम देकर पूरा करना चाहता थे. उधर पाकिस्तान भी इस कमजोरी का फायदा उठाकर आतंकवाद, अलगाववाद को लगातार बढ़ावा दे रहा था. धारा ३७० की कंदिकाए उसके इस नापाक इरादे की पूर्ति हेतु तुरुप का पत्ता था क्योंकि इसके कारन जम्मू-कश्मीर भारत के अन्य राज्यों से दूर और नितांत अकेली खड़ी प्रतीत होती थी. इसी कमजोर परिस्थिति का लाभ उठाकर अलगाववादी, आतंकवादी और पाकिस्तान इसे क्षत-विक्षत कर लुट लेने को आमादा थे.
काला कानून धारा 370 संसद से पास कैसे हो गया
कहा जाता है कि जब इस विधेयक को पारित करने हेतु संविधान सभा में पेश किया गया तो सभी सदस्यों ने इसकी प्रतियों को काला कानून और देश की अखंडता के लिए घातक कहकर फाड़कर फेंक दिया. कश्मीर मसले को बेहद पेचीदे एवं घातक मोड पर ला खड़ा करने के लिए बदनाम नेहरु खुद संसद में इसे पेश करने की हिम्मत नही जुटा पाए और गोपाल स्वामी अयंगर को इसे पारित करने की जिम्मेदारी सौंप अमेरिका चले गए. परन्तु गोपाल स्वामी की किसी ने एक न सुनी. आश्चर्य है सरदार पटेल जो धारा ३०६-क के नए रूप धारा ३७० के बिलकुल खिलाफ थे, उन्होंने इसे पारित करने के लिए सदस्यों से अनुरोध किया. सफाई में उनका कहना था कि यदि ऐसा नही करते तो नेहरु नाराज हो जाते!
ज्ञातव्य है कि हैदराबाद में सैनिक अभियान के बाद ही नेहरु जी जम्मू-कश्मीर मामले को व्यक्तिगत रूप से हल करने के लिए सरदार पटेल से अपने हाथ में ले लिए थे. वे शेख अब्दुल्ला से गिटर-पिटर कर धारा ३०६ की कन्दिकाएं तय कर आये थे. बाद में जब इस पर चर्चा चली तो उसमे बेहद आपत्तिजनक विषयों पर संशोधन किया गया जिसे शेख अब्दुल्ला ने मानने से इंकार कर दिया. उसका मानना था कि यदि भारतीय संविधान में वर्णित मौलिक अधिकार, नागरिकता और निर्देशक सिद्धांत, सुप्रीम कोर्ट की सर्वोच्चता आदि जम्मू-कश्मीर पर लागु हो जाती है तो उनका कानून अर्जित सम्पत्ति आदि के मामले में तथ्यहीन हो जायेगा. फिर उसका कहना था कि ये तो अस्थायी उपबन्ध है. अगर ये कहा जाये की इस ‘अस्थायी’ शब्द से शेख अब्दुल्ला नेहरु को और नेहरु जनता को मुर्ख बना रहे थे तो शायद गलत नही होगा.
धारा 370 नेहरु की राष्ट्रविरोधी मानसिकता का परिणाम
ज्ञातव्य है कि नेहरु के लगातार समर्थन के कारन जम्मू-कश्मीर के मुसलमानों पर शेख अब्दुल्ला का बहुत प्रभाव हो गया था और उसके इसी प्रभाव के कारन शेख अब्दुल्ला पर भरोसा कर नेहरु जम्मू-कश्मीर में शांति पर्यंत स्वघोषित प्लेबिसाईट जितने का स्वप्न संजोये थे. श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने नेहरु से इस विषय पर सवाल करते हुए पूछा था, ‘जम्मू-कश्मीर के लिए धारा ३७० जैसे कानून लाने की आवश्यकता क्यों पड़ी’? जवाब में नेहरु बोले, ‘हम किसी के साथ जबरदस्ती ब्याह नही रचा सकते.’
कैसी बिडम्बना है कि नेहरु जम्मू-कश्मीर को भारत से अलहदा एक पड़ोसी राज्य ही समझते रहे, भारत का एक अभिन्न अंग नही. डॉ मुखर्जी नेहरु के जम्मू-कश्मीर के प्रति उपेक्षित दृष्टिकोण को नजर में रखते हुए कहा था, “कश्मीर का सवाल केवल भू-भाग का नही है, भारत की अंतरात्मा एवं चेतना का प्रश्न है. राष्ट्र अपनी सीमाओं को सिमटते हुए नही देख सकता है. भारतीय राष्ट्र में कश्मीरियत भी ठीक उसी प्रकार है जैसे अन्य भाषाई, मजहबी, और क्षेत्रीय पहचान.”
परन्तु देश को सिर्फ शासन का क्षेत्र समझनेवाले, राष्ट्रीयता को ‘बू’ और विशुद्ध हिंदुत्व विचारधारा वाले को देशद्रोही कहनेवाले संकीर्ण मस्तिष्क में भावनात्मक अभिव्यक्ति की चरम विन्दु तक पहुंची इन शब्दों के लिए कोई जगह नही था. इस बात का एहसास उन्हें तब हुआ जब वे माउन्टबेटन और शेख अब्दुल्ला के शिकंजे में फंसकर अपने साथ-साथ भारत को भी दुनिया की नजर में गिरा चुके थे. इनकी यह भूल पाकिस्तान का पक्ष विश्व के समाने स्वतः मजबूत कर दिया था.
न्यूयार्क टाईम्स में छपे एक लेख ने उनकी आँखें खोल दी जिसमे कहा गया था-“भारत और पाकिस्तान झगड़े की उत्पत्ति के कारन को असंगत बताकर राष्ट्रिय आत्मघात करने का तरीका अपना रहे है. पाकिस्तान तुच्छ और महत्वहीन बदलाव की सलाह मैल्कम नायिटन के प्रस्ताव में दिया था जिसके जवाब में भारत ने ऐसी सुधार की बात रखी जिसका अर्थ प्रस्ताव को अस्वीकार करना ही था. स्पस्ट है कि भारत पञ्च निर्णय को ठुकरा रहा है. भारत बाहरी लोगों को निर्णय की रूप रेखा तैयार करने का दोषी नही ठहरा सकता है…..भारत ने हैदराबाद पर कब्जा कर लिया क्योंकि वहाँ की प्रजा हिंदू थी भले ही राजा मुस्लमान. अब वह मुस्लिम बहुल कश्मीर पर इसलिए अधिकार होने का दवा कर रहा है क्योंकि वहाँ के हिंदू राजा ने विलय पत्र पर दस्तखत कर दिया है. यह दोनों लाभ लेना चाहता है……यदि भारत में अच्छी भावना है तो वह यू.एन.ओ. की मध्यस्थता स्वीकार करेगा.”
नेहरु का पश्चताप भूल सुधार नहीं कर सका
और अब नेहरु के शब्द बदल गए थे. जैसा की घोर दुःख व्यक्त करते हुए उन्होंने सरदार पटेल से कहा था, ‘वे पञ्च निर्णय की बात कर रहे है. हमलोगों ने निर्णय कर लिया है कि हमलोग इसका बहिष्कार करेंगे… भले ही वे हमे दोषी ठहराएँ. हम उनसे कहेंगे कश्मीर की समस्या का समाधान वर्तमान स्थिति इतिहास, भूगोल, भाषा और संस्कृति को ध्यान में रखकर किय जाना चाहिए.’
कश्मीर का इतिहास और धारा ३७०
धारा ३७० जैसे काले कानून की आवश्यकता आखिर क्यों पड़ी? जम्मू-कश्मीर की एतिहासिक पृष्ठभूमि पर थोडा दृष्टिपात करने से पता चलता है कि पंद्रहवी सदी के आरम्भ तक कश्मीर हिंदू-प्रदेश था, परन्तु थोड़ी सी भूल ने लाखों हिंदुओं को मुस्लिम बनने पर मजबूर कर दिया. अमृतसर में हुए अंग्रेजों और महाराजा गुलाबसिंह के बिच उभयानवय संधि के पश्चात १८४६ में जम्मू-कश्मीर के महाराज गुलाब सिंह के दरबार में लाखों की संख्या में मुस्लिम स्त्री पुरुष बड़ी उम्मीद लेकर अपने एवं अपने परिवारवालों पर मुस्लिम आक्रमणकारियों, आततायियों द्वारा हुए अत्याचार एवं जबरन धर्म परिवर्तन कराए जाने का हवाला देते हुए उन्हें शुद्ध कर फिर से अपने प्यारे हिंदू धर्म में वापस लेने की प्रार्थना की, परन्तु मुर्ख पुरोहित की मूर्खता के कारन यह समाज उद्धारक कार्य नही हो सका.
गुलाब सिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र रणवीर सिंह फिर प्रताप सिंह और अब हरिसिंह कश्मीर के महाराजा हुए. इतने दिनों तक जम्मू-कश्मीर में शांति एवं हिंदू-मुस्लिम भाईचारा बना रहा. लेकिन जैसे जैसे धर्मान्तरित कश्मीरी मुसलमान अपना हिंदू इतिहास भूलते गए हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की नीव कमजोर पड़ने लगी. १९३१ में हिन्दू बालमुकुन्द कौल का परपोता जिहादी शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में कुछ लोग सत्ता के लिए हिंदुओं की हत्या, लूट-मार करने लगे. परिणामतः शेख अब्दुल्ला को कई बार गिरफ्तार कर नजरबंद किया गया.
भारतीय नेताओं की मुस्लिम परस्त बन चुकी मनोवृति एवं शेख अब्दुल्ला की दोस्ती के कारन नेहरु कश्मीर राज्य प्रशासन एवं महाराज पर नाना प्रकार के आरोप लगाकर विषवमन करने लगे. उन्होंने शेख अब्दुल्ला को शेर-ए-कश्मीर एवं लोगो का प्रिय हीरो बताते हुए अपने भाषण में कहा, “यह बड़े दुःख की बात है कि कश्मीर प्रशासन अपने ही आदमियों का खून बहा रही है. मैं कहूँगा की उसका यह कृत्य प्रशासन को कलंकित कर रही है और अब यह ज्यादा दिन तक नही टिक सकती. मै कहता हूँ कि कश्मीर की जनता को अब और अपनी आजादी पर हमला एक पल भी बर्दाश्त नही करना चाहिए. यदि हम अपने शासक पर काबू पाना चाहते है तो हमे पूरी शक्ति के साथ उसका विरोध करना चाहिए.”
नेहरु इतना पर ही नही रुके और शेख अब्दुल्ला के समर्थन में कश्मीर में दंगे भडकाने आ पहुंचे. परिणामतः उन्हें महाराज के आदेश से गिरफ्तार कर वापस भेज दिया गया. दरअसल नेहरु को यही बात चुभ गयी थी. इसी व्यक्तिगत मित्रता और शत्रुता के कारन कश्मीर को महाराज से जबरन छीनकर शेख अब्दुल्ला को दिला दिया और महाराज को दर-दर भटकने को मजबूर किया गया. इसी कारन कश्मीर का मसला अत्यधिक उलझ जाने के कारन भारत माँ के सिने का नासूर बन गया है.
कश्मीर के महाराज का विलय को लेकर उलझन
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम के तहत देशी रियासतों को यह अधिकार दिया गया की वे इच्छानुसार भारत या पाकिस्तान किसी भी डोमिनियन में शामिल हो सकते है. १५ अगस्त, १९४७ तक जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर को छोडकर शेष सभी देशी रियासतें भारत या पाकिस्तान में शामिल हो चुकी थी. महाराज हरिसिंह भारत या पाकिस्तान किसी में भी विलय करने का निर्णय नही ले पा रहे थे. यद्यपि प्रारम्भिक तौर पर लगता था कि वे अपने स्वतंत्र शासन बनाये रखने की महत्वाकांक्षा के वशीभूत थे, परन्तु जैसा की उनके कथन से स्पष्ट होता है वे अपने अल्पसंख्यक हिंदू, सिक्ख और बौद्ध प्रजा का भविष्य किसी भी डोमिनियन में शामिल होकर सुरक्षित नही देख रहे थे. कारन, पाकिस्तान में हिंदुओं, बौद्धों और सिक्खों पर हो रहे अमानवीय अत्याचार से तो वाकिफ हो ही रहे थे, अतः पाकिस्तान में विलय का तो प्रश्न ही नही था. एक जनवरी १९४७ को गाँधी जी कश्मीर का दौड़ा किये और घोषणा की कि जम्मू-कश्मीर में शांति के पश्चात प्लेबीसाईट के आधार पर विलय भारत या पाकिस्तान में सुनिश्चित किया जायेगा. माउन्टबेटन भी कुछ ऐसा ही कह आये थे और नेहरु तो उनसे खार ही खाए बैठे थे.
प्लेबीसाईट के नाम से ही जम्मू-कश्मीर के हिंदू और सिक्ख बहुत भयभीत थे. बहुतों ने तो पलायन भी करना शुरू कर दिया था. ७८% मुस्लिम आबादी वाले जम्मू-कश्मीर में प्लेबीसाईट का निर्णय भारत के पक्ष में जाने का भरोसा नेहरु के अतिरिक्त शायद ही किसी को हो. जम्मू-कश्मीर के सर्वेक्षण पर गए शिवानलाल सक्सेना ने अपने रिपोर्ट में लिखा था-“मैंने कश्मीर का सर्वेक्षण किया है और प्लेबीसाईट जीतने की उम्मीद महापागलपन (mid night madness) प्रतीत होता है. शेख अब्दुल्ला का कश्मीरी मुस्लिमों पर बेशक प्रभाव है, पर नेहरु और गाँधी जी के घोषणा के बदौलत मुस्लिम हिंदुस्तान के पक्ष में मत देंगे ऐसा किसी को भी उम्मीद नही है. प्लेबीसाईट की अनावश्यक घोषणा कर हमने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार लिया है और मामले को यू एन ओ में ले जाना और फिर जब हम जीत रहे थे उस वक्त युद्ध बंदी की घोषणा बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण रहा है.”
तत्पश्चात परिणाम की कल्पना से ही हिंदू, सिक्ख और स्वयम महाराज सहमे हुए थे. माउन्टबेटन कश्मीर को पाकिस्तान की झोली में डालने को उद्धत था तो गाँधी प्लेबीसाईट थोपने पर आमादा और नेहरु एक ऐसा घोडा था जिसकी नकेल इन दोनों के हाथ में ही था. जैसा की हरिसिंह ने भी कहा, “गाँधी, नेहरु और माउन्टबेटन के चंगुल में फंसा भारतीय संघ किसी मुस्लिम अतिक्रमणकारी शासक के शिकंजे से कम नही है.”
पाकिस्तान का कश्मीर पर आक्रमण और नेहरु की भयंकर भूल
परन्तु, जब २२ अक्टूबर को पाकिस्तान ने जिगरेवालों को आगे कर जम्मू-कश्मीर पर आक्रमण कर दिया और रियासत के आधे सैनिक जो मुसलमान थे आक्रमणकारियों से मिलकर हिंदुओं और सिक्खों का कत्लेआम, लूट-मार, आगजनी और बलात्कार का तांडव करने लगे तो हरिसिंह मजबूर होकर भारत में शामिल होने के विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए. परन्तु नेहरु इस विलय पत्र को तभी स्वीकार किये जब हरिसिंह से शेख अब्दुल्ला को रिहा कर प्रधानमंत्री बनाने की बात मनवा ली. इस पर भी माउन्टबेटन की चाल में फंसकर इस विलय को ‘अस्थायी’ करार देने और प्लेबीसाईट के आधार पर अंतिम निर्णय लेने एवं मामले को यू एन ओ में ले जाकर पाकिस्तान को अकारण ही एक पक्ष बनाकर घोर बिडम्बना का परिचय दिए.
दरअसल नेहरु ने भयानक भूल यह किया की यूएनओ की चैप्टर सात जिसमे एक आक्रमणकारी देश द्वारा अपने सीमा पर दखल से सम्बन्धित शिकायत की व्यवस्था है कि जगह चैप्टर छः के तहत शिकायत दर्ज कराई जिसमें विवादित क्षेत्र की समस्या के समाधान की व्यवस्था है. नेहरु के इस गलती के कारण ही पाकिस्तान को अब कश्मीर पर हक जताने का अनर्थकारी अनावश्यक हक प्राप्त हो गया. इसप्रकार उन्होंने कश्मीर को पाकिस्तान के हवाले किये जाने के अभियान पर १९४५ से चली आ रही ब्रिटिश लीग षड्यंत्र को बल दिया.
नेहरु की गलतियाँ यहीं बस नहीं हुई. भारतीय सेना अपने शौर्य और पराक्रम से पाक अधिकृत कश्मीर के अधिकांश क्षेत्रों पर कब्जा कर चुकी थी, परन्तु नेहरु ने युद्ध विराम पश्चात पिछली तारीख से यथास्थिति बहाली की घोषणा कर जानबूझकर विजित भारतीय क्षेत्र को पाकिस्तान के हवाले कर दिया.
नेहरु-शेख अब्दुल्ला ने जबरन महाराज को कश्मीर से बाहर कर दिया
बाद इसके शुरू हुआ महाराज को शासन से बाहर करने और शेख अब्दुल्ला को तख्त पर बिठाने का सिलसिला. महाराज हरिसिंह को कश्मीर की राजनीती से जबरन दूध की मक्खी की तरह निकालकर मुंबई जाने को विवश किया गया. जैसा की श्री मेनन ने अपने रिपोर्ट में कहा था-“शेख अब्दुल्ला महाराज हरिसिंह का आखिरी बूंद खून तक चूस जाना चाहता है.”
दरअसल नेहरु को शेख अब्दुल्ला पर अंध विश्वास था और इसी के भरोसे वे प्लेबीसाईट जीतने के प्रति निश्चिन्त थे. परन्तु सत्ता प्राप्ति के पश्चात शेख अब्दुल्ला धीरे-धीरे अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया. शेख अब्दुल्ला अब खुलकर आजाद कश्मीर का राग अलापने लगा. उसके इंटरव्यू में दिए एक बयान ने नेहरु की कल्पना की उड़ान को थोडा ब्रेक लगाया. शेख अब्दुल्ला ने कहा, “जम्मू-कश्मीर का किसी भी डोमिनियन में विलय शांति बहाल नही कर सकती है. हमलोग दोनों डॉमिनियनो के साथ मित्रवत व्यवहार बनाये रखना चाहते है, यही एक मध्यमार्ग है. कश्मीर की स्वतंत्रता की गारंटी न केवल भारत और पाकिस्तान को देनी होगी वरन ब्रिटेन, संयुक्त राष्ट्र संघ तथा इसके दूसरे सदस्यों को भी देनी होगी…..भारत ने महाराज के साथ स्थायी समझौता कर इसे ठुकराकर जवाब दिया है, पाकिस्तान ने भी कुछ ऐसा ही किया है. परन्तु, भारत ने विलय के वक्त यह स्पष्ट घोषणा किया है कि यह विलय अस्थायी है और बाद में यहाँ की जनता निर्णय करेगी की वे क्या करेंगे…….”
सच्चाई यही थी कि शेख अब्दुल्ला जानता था जम्मू-कश्मीर का पाकिस्तान में विलय होने पर यहाँ का तानाशाह शासक बनने का उसका स्वप्न धरा रह जायेगा. इसीलिए वह नेहरु जैसे नरम चारा का हाथ थामे हुए था. आज भी नेशनल कांफ्रेंस के पूर्व अध्यक्ष फारुक अब्दुल्ला का कहना है कि यदि जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा होता तो वे प्रधान मंत्री होते और हुर्रियत कांफ्रेंस आदि अलगाववादी लोग शेख अब्दुल्ला की आजाद कश्मीर की भांति ही राग अलापते है.
भाग-२ में पढ़ें
पाकिस्तान प्लेबीसाईट से क्यों मुकर गया
धारा ३७० का संवैधानिक इतिहास
जम्मू-कश्मीर संविधान सभा में पूर्ण विलय पर मुहर
नेशनल कांफ्रेंस सरकार की वृहत स्वायतता की मांग
कश्मीरी अलगाववादियों का राष्ट्रविरोधी षडयंत्र आदि निचे के लिंक पर
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