महान राष्ट्रवादी इतिहासकार स्वर्गीय पुरुषोत्तम नागेश ओक लिखते हैं कि यूरोपियन जब ईसाई बने तो अपने सभी प्राचीन ऐतिहासिक ग्रंथों को आग लगा दिया और अपने पूर्वजों द्वारा निर्मित पुरातात्विक साक्ष्यों को भी नष्ट कर दिया। उन्होंने अपने पूर्वजों के इतिहास को अंधकार युग कहकर नकार दिया। पीटर, पॉल जैसे कनवर्टेड यूरोपियन ईसाई बनकर प्रत्येक रविवार को प्रार्थना करने के बाद अपने अनुयायियों के साथ हथौड़ा लेकर अपने पूर्वजों के मंदिरों, देवी, देवताओं को तोड़ने और उनके एतिहासिक, वैज्ञानिक और धार्मिक ग्रंथों को जलाने केलिए निकलते थे। ऐसा शताब्दियों तक चला और उन्होंने वाटिका (अब वेटिकन) मंदिर और उसके ग्रंथालय सहित कई विश्व विख्यात प्राचीन ग्रंथालयों, जो संभवतः भारत के ग्रंथालयों की तरह ही ज्ञान, विज्ञान का भंडार रहा हो, उन्हें जलाकर नष्ट कर दिया।
परन्तु जब भारत के प्राचीन इतिहास से यूरोपियनों का पाला पड़ा तो ऐतिहासिक ग्रन्थ के नाम पर उनके पास सिर्फ बाईबल था जो पृथ्वी को सिर्फ ४००२ ईस्वी पूर्व निर्मित घोषित कर रखा था। वे अपने प्राचीन इतिहास के बारे में लिखते तो क्या लिखते क्योंकि उन्होंने तो सब कुछ नष्ट कर दिया था। इसलिए चार पांच इतिहास के अध्येताओं ने एक योजना बनाई जिसके तहत पहले एक ने अपने एजेंडे के तहत इतिहास का किताब लिखा. फिर दुसरे ने उसके किताब का सन्दर्भ देकर अपना इतिहास लिखा फिर तीसरे ने उन दोनों का सन्दर्भ देकर अपना इतिहास लिखा। इसी तरह का घोटाला चौथे और पांचवे ने भी किया और इस प्रकार यूरोप का फर्जी इतिहास लिखा गया जो अब मानक इतिहास बन गया है।
भारत में भी अंग्रेजों और उनके अनुयायी वामपंथी-जिहादी इतिहासकारों ने उसी ढर्रे पर अपने अपने हितों के अनुसार एजेंडा इतिहास लिखा जो कि मानक इतिहास बन गया. इसी एजेंडा इतिहास के तहत हम हिन्दुओं को अपने ही देश भारत पर आक्रमणकारी तो कभी पशुपालक, कभी खानाबदोश तो कभी कृषक, कभी शासक तो कभी शोषित और वैदिक ब्राह्मण गौ मांस खानेवाला (रोमिला थापर ने स्वीकार किया है कि वह बिना सबूत ही लिखी थी) आदि फर्जी एजेंडा इतिहास लिखा।
इसी प्रकार मुस्लिम आक्रमणकारियों का महिमामंडन जैसे अकबर महान, शाहजहाँ महान प्रेमी, औरंगजेब मंदिरों के निर्माण के लिए दान दाता (NCERT स्वीकार कर चूका है कि इसका उसके पास कोई स्रोत नहीं है), शेरशाह महान अर्थशास्त्री और ग्रांड ट्रक रोड (अशोक राजपथ, दक्षिणापथ) का निर्माता, कट्टर जिहादी सूफियों को संत, आक्रमणकारी मोहम्मद गोरी का जासूस मोईनुद्दीन चिश्ती को सूफी संत आदि। वहीं मुस्लिम आक्रमणकारियों से एक हजार वर्ष तक सफलतापूर्वक लोहा लेनेवाले राजपूतों को पराजित योद्धा बनाया गया. हालाँकि अब उनका फर्जीवाड़ा सामने आ चूका है और आ रहा है।
कुछ दिन पहले ही एक वामपंथी दिलीप मंडल ने स्वीकार किया कि जिस फ़ातिमा शेख को पहली मुस्लिम शिक्षिका के रूप में डेढ़ दो दशक से प्रचारित प्रसारित किया जा रहा था वो फ़ातिमा शेख कोई थी ही नहीं। उसने लिखा है, “यह ऐतिहासिक चरित्र नहीं है। ये मेरी निर्मिती है। मेरा कारनामा। ये मेरा अपराध या गलती है कि मैंने एक ख़ास दौर में शून्य से यानी हवा से इस नाम को खड़ा किया था। इसके लिए किसी को कोसना है तो मुझे कोसिए। आंबेडकरवादी वर्षों से इस बात के लिए मुझसे नाराज़ हैं। माननीय अनिता भारती से लेकर डॉक्टर अरविंद कुमार खुलकर मेरे प्रति नाराज़गी जता चुके हैं।
एक मूर्ति गढ़नी थी सो मैंने गढ़ डाली। हज़ारों लोग गवाह हैं। ज़्यादातर लोगों में ये नाम पहली बार मुझसे जाना है। मैं जानता हूँ कि यह कैसे करते हैं, छवि कैसे बनाते हैं। मैं इसी विधा का मास्टर हूँ तो मेरे लिए मुश्किल भी नहीं था। मैं मूर्तियाँ बनाता हूँ। मेरा काम है। भारत में फ़ातिमा शेख की पहली जयंती मेरी पहल पर मनाई गई। मैंने ही पहली बार ये नाम लिया। एक काल्पनिक स्केच बनाया गया क्योंकि कोई पुरानी फ़ोटो तो थी नहीं। क़िस्से गढ़े मैंने। तो इस तरह बन गई फ़ातिमा शेख।“
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11 जनवरी 2025 के ट्विट में दिलीप मंडल ने दावा किया की उनके पास चार रिसर्च पेपर पड़े हैं जिसमें फ़ातिमा शेख के एक ही समय पर चार अलग अलग शौहर के नाम लिख रखें हैं. उन्होंने जोड़ा “जब कोई नकली किरदार खड़ा किया जाता है तो ऐसा हो जाता है।”
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इसके बाद विकिपीडिया ने फ़ातिमा शेख के विवरणों में कई परिवर्तन किये. दरअसल विकिपीडिया वामपंथियों, जिहादियों के एजेंडा इतिहास का हथियार बन चूका है। आप फ़ातिमा शेख के विकिपीडिया पढेंगे तो कोई एतिहासिक स्रोत नहीं मिलेगा, सब ऊपर के नियम से बनाये गये एजेंडा लेख को स्रोत के रूप में पेश किया गया है।
ठीक इसी प्रकार का नैरेटिव या एजेंडा इतिहास ब्रेस्ट टैक्स के बारे में गढ़ा गया और एक नंगेली महिला द्वारा ब्रेस्ट टेक्स के विरोध में अपने स्तन काटने का फर्जी कहानी बनाया गया और इको सिस्टम द्वारा उसे प्रचारित प्रसारित किया गया। इसमें भी विकिपीडिया में देखेंगे तो कोई एतिहासिक स्रोत देने की बजाय 1990 के दशक और उसके बाद लिखे गये एजेंडा कहानियों, लेखों, किताबों का सन्दर्भ मात्र दिया गया है।
इस कहानी में दावा किया जाता है कि केरल में उच्च जाति के नायर और नंबुथिरी ब्राह्मणों ने निचली जातियों की महिलाओं को अपने स्तन ढँकने की अनुमति नहीं दी और फिर उन पर ‘ब्रेस्ट टैक्स लगाया। बाद के दिनों में एजेंडा और आगे बढ़ा और दावा किया जाने लगा कि स्तन के आकार के अनुसार ब्रेस्ट टैक्स तय किया जाता था। कहानी में बताया जाता है कि गुलाब नंगेली नामक महिला ने अपने स्तन काटकर इसका विरोध किया था। उसने अपने स्तनों को टैक्स कलेक्टर के सामने बतौर टैक्स पेश किया था। स्तन कटने के कारण उसका खून बहुत अधिक बह गया जिससे उसकी मौत हो गई। इसके बाद, उसका पति भी दुःखी होकर उसकी चिता में ही कूदकर जान दे दिया।
यह कहानी साल 2012 में मुरली टी द्वारा इस पर पेंटिंग्स बनाने के बाद तेजी से चर्चा में आई और इसे एसबीडी कवियूर बुलेटिन, वागाबॉन्ड, बीबीसी और ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ समेत कई अन्य मीडिया संस्थानों ने उक्त कहानी को सच मानते हुए ‘फैलाने’ की कोशिश की। इन सबों ने लगभग गुलाब नंगेली के रूप में एक नम्बूदरी ब्राहमण महिला का एजेंडा के तहत कटपीस फोटो इस्तेमाल किया या फिर कट्टर सनातन विरोधी टी मुरली का पेंटिंग्स का प्रयोग किया जो एजेंडा कहानी के खोखलापन को दर्शाता है।
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दरअसल १९वीं शताब्दी तक केरल में ऊपर का तन ढंकने की परम्परा रही ही नहीं है चाहे पुरुष हों या महिला, राजा हो या रंक, सवर्ण हो या दलित. उमस भरे मौसम के कारण वहाँ के लोग सिर्फ कमर के नीचे ही कपड़े पहनते थे। यह सब, बिना किसी जाति, लिंग, धर्म के भेद के चलता आ रहा था। मैंने तो बंगाल की बुजुर्ग महिलाओं को भी उपरी हिस्सा सिर्फ साड़ी से ढंके देखा है।
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फिर ब्रेस्ट टैक्स और स्तन काटने के फर्जी कहानी की आवश्यकता क्यों पड़ी? त्रावणकोर के गौरवशाली इतिहास जिसमें त्रावणकोर के राजा ने अपनी सारी सम्पत्ति अपने बनाये पद्मनाभस्वामी मंदिर को दान कर दिया था। कुछ दशक पहले उस मंदिर के गुप्त तहखाने में पड़े जब अरबों, खरबों के दौलत मिले तो पद्मनाभस्वामी मंदिर के साथ साथ त्रावणकोर के राज्य, वहां के महान राजा और सनातन धर्म संस्कृति की चर्चा भी सिर्फ भारत ही नहीं पूरे विश्व में खूब होने लगी थी।
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मेरा मानना है इस ऐतिहासिक गौरवशाली ऐतिहासिक अध्याय को धूमिल करने केलिए और पद्मनाभस्वामी मंदिर के अरबों खरबों दौलत पर हाथ साफ करने केलिए त्रावणकोर के राज्य, वहां के महान राजा का चरित्र धूमिल करना वामपंथियों और जिहादियों के लिए अनिवार्य हो गया था। इन्होने तो यहाँ तक अफवाह उड़ा रखा है कि टीपू शैतान ने ब्राह्मणों की हत्या कर दलितों को ब्रेस्ट टैक्स से मुक्ति दिलाया।
इस फर्जी कहानी की शुरुआत पत्रकार सी. राधाकृष्णन ने की। इस कहानी में उन्होंने नंगेली और कडप्पन नामक किरदारों को गढ़ते हुए बेहतरीन कहानी लिखी। इसमें मसाला डालने के लिए उन्होंने नंगेली के पति की आत्महत्या की कहानी को भी जोड़ दिया। यह कहानी पहली बार 8 मार्च, 2007 को ‘पायनियर’ में प्रकाशित हुई थी। इसका मलयालम अनुवाद उसी दिन ‘मातृभूमि’ और ‘मनोरमा’ में भी प्रकाशित हुआ था।
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कहानी का फर्जीवाड़ा निम्नलिखित विवरणों और ऊपरी तस्वीरों से भी स्पष्ट हो जाता है।
17वीं, शताब्दी में भारत आए एक डच यात्री विलियम वैन निउहोफ ने त्रावणकोर की तत्कालीन रानी अश्वती थिरुनल उमयम्मा की पोशाक के बारे में बात करते हुए लिखा है, “मुझे महारानी के सामने पेश किया गया था। उनके पास 700 से अधिक नायर सैनिकों का पहरा था, जो मालाबार शैली के कपड़े पहने हुए थे। रानी की पोशाक उसके बीच में लिपटे कॉलिको के एक टुकड़े से ज्यादा कुछ नहीं है। उसके शरीर का ऊपरी हिस्सा नग्न दिखाई देता है।”
त्रावणकोर की रानी से हुई मुलाकात को लेकर विलियम वैन ने एक चित्र भी बनाया था। इस चित्र में यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि रानी और उनके साथ मौजूद लोगों ने अपने सीने को या तो कपड़े से नहीं ढँका है या फिर काफी छोटा कपड़ा डाला हुआ है।
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17वीं और 18वीं शताब्दी के यात्री पिएत्रो डेला वैले और जॉन हैरी ग्रोस के अनुसार, केरल में पुरुष और महिला दोनों ही ऊपरी कपड़े नहीं पहनते थे। इसके अलावा, मानवविज्ञानी फ्रेड फावसेट ने उल्लेख किया है कि मालाबार में रहने वाला कोई भी स्थानीय निवासी ब्लाउज पहनने या अपने स्तनों को ढँकने का शौक नहीं रखता। शुरुआत में जब अंग्रेज नर्सों ने स्थानीय तिय्या महिलाओं को अपने स्तन ढकने के लिए कहा तब उन महिलाओं द्वारा उन्हें जमकर फटकार लगाई गई थी। क्योंकि उस समय तक मालाबार में सिर्फ वेश्याएँ ही आकर्षक दिखने केलिए स्तन ढकती थीं।
ऐसे कई फोटोज और सबूत उपलब्ध हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि यह एजेंडा के तहत फैलाई गई सिर्फ एक काल्पनिक कहानी है। फोटोज में दिखाया गया है कि नंबूथिरी परिवारों और समृद्ध नायर परिवारों की महिलाओं ने खुद स्तन नहीं ढका हुआ है। वास्तव में तब स्तन ढकने की ‘परंपरा’ ही नहीं थी।
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फिर ब्रेस्ट टैक्स क्या है?
शब्दों का फेर, अर्थ का अनर्थ और प्रोपेगैंडा!
दरअसल, मलयालम में कर या टैक्स को थल्लाकरम कहा जाता है। थल्लाकरम शब्द का उपयोग वोटिंग टैक्स जैसे टैक्सों के लिए उपयोग किया जाता था। त्रावणकोर में भी मतदान के लिए टैक्स लगाया जाता था। हालाँकि, इसमें महिलाओं से अपेक्षाकृत कम टैक्स वसूला जाता था। चूँकि, मलयालम में मूला को स्तन कहा जाता है। इसलिए, प्रोपेगैंडा फैलाने से रची गई कहानी में, थल्लाकरम को मुल्लाकरम (महिला कर) और फिर ब्रेस्ट टैक्स के रूप में चित्रित किया गया है।
लेखक और इतिहासकार मनु पिल्लई केरल में निचली जातियों को अपने स्तनों को ढकने से रोकने की धारणा को दृढ़ता से खारिज करते हुए कहते हैं, “नाम के अलावा इसका स्तनों से कोई लेना-देना नहीं था। यह सिर्फ़ लिंगों के बीच अंतर करने के लिए था। इसे स्तनों को ढकने के अधिकार के लिए कर के रूप में गलत समझा गया है – ऐसा कोई कर नहीं था।”
ब्रेस्ट टैक्स में अगर थोड़ी भी सच्चाई होती तो इसके ऐतिहासिक प्रमाण अवश्य होते। यह भी कहा जाता है कि त्रावणकोर के महाराज ब्रेस्ट टैक्स को हटाना चाहते थे परन्तु वे सहयोग संधि के तहत अंग्रेजों के अधीन थे इसलिए अंग्रेजों के दबाव में वे इसे नहीं हटा पा रहे थे। फिर उपर्युक्त कहानी में घटित तथाकथित घटना के बाद हुए आन्दोलन के कारण अंग्रेजों के विरोध के बाबजूद हटा दिया।
परन्तु सवाल वही है, इन सबका ऐतिहासिक प्रमाण क्या है? यदि ब्रेस्ट टैक्स सचमुच होता तो इसका उल्लेख राज्य के आर्थिक अभिलेखों में अवश्य होता जैसा की अन्य करों का उल्लेख है। अगर अंग्रेजों की इस टैक्स में भूमिका थी तो अंग्रेजी सरकार के किसी दस्तावेज में इसका उल्लेख अवश्य होता। दस्तावेज छोड़िये, अंग्रेजों के किसी विवरण में या उस समय आये बहुत से विदेशी यात्रियों ने अपने विवरण में बहुत कुछ लिखा है जैसा कि ऊपर कई उद्धरण दिए गये हैं जो बताता है कि कोई भी स्त्री वहां शारीर का उपरी हिस्सा ढंकता ही नहीं था, पर किसी के विवरण में ब्रेस्ट टैक्स का उल्लेख क्यों नहीं है?
सहायक स्रोत:
https://www.telegraphindia.com/culture/style/the-breast-tax-that-wasnt/cid/1803638#goog_rewarded