NCRB के रिकार्ड के अनुसार 2021 में भारत में प्रतिदिन 86 रेप केस रिपोर्ट किये गये। 2022 के आंकड़े भी इसी के आस पास है। रेप-मर्डर, गैंगरेप, गैंगरेप-मर्डर जैसे मामलों के अलग से कोई रिकार्ड नहीं है ये सब रेप के मामलों में ही शामिल हैं। न्यूज चैनल, अख़बार, सोशल मिडिया के माध्यम से हमसब रेप, रेप-मर्डर, गैंगरेप, गैंगरेप-मर्डर के दो-चार न्यूज तो प्रायः हर दिन देखते सुनते हैं। इन मामलों की जघन्यता की कोई सीमा नहीं होती। दो वर्ष की दुधमुंहा बच्ची से लेकर 70 वर्ष की दादी अम्मा भी रेप, रेप-मर्डर, गैंगरेप, गैंगरेप-मर्डर की शिकार हो रही हैं।
पर आप ऐसे कितने न्यूज नित्य देखते और सुनते हैं कि रेप, रेप-मर्डर, गैंगरेप, गैंगरेप-मर्डर के दोषियों को सजा दी गई? नित्य को छोड़िये, सप्ताह में कितने दोषियों की सजा की खबर आती है? इन प्रश्नों पर विचार करेंगे तो आप आसानी से समझ जायेंगे की रेप, रेप-मर्डर, गैंगरेप, गैंगरेप-मर्डर अनियंत्रित क्यों होता जा रहा है। अपराधियों में कानून का भय रह ही नहीं गया है। देश के न्यायधीशों को नेताओं, अर्बन नक्सलियों, भ्रष्टाचारियों की खाने, हगने और बेल की रोजाना सुनवाई से फुर्सत ही नहीं है। रेप, रेप-मर्डर, गैंगरेप, गैंगरेप-मर्डर मामलों में सजा की दर मात्र २७% है वो भी दस साल, बीस साल, बत्तीस साल बाद फैसले आते हैं। लाखों ऐसे केस फाईलों में दबी बाहर आने की राह देख रही है।
अच्छा, रेप की छोड़िये, क्या रेप-मर्डर, गैंगरेप-मर्डर के दोषियों को भी कड़ी सजा मिली है? नहीं। अगर निचली अदालतों ने कड़ी सजा दी भी तो उपरी अदालतें सजा कम कर देती है या कोई मीन मेख निकालकर दोषमुक्त ही कर देती है। खुद सुप्रीमकोर्ट मृत्युदंड प्राप्त कई रेपिस्ट-मर्डरर को सजा कम करना छोड़िये सजामुक्त कर दिया है।
रेप-मर्डर, गैंगरेप-मर्डर के मामलों में आजतक कितने मामलों में फांसी हुई है? जानकर हैरान रह जायेंगे सिर्फ दो मामलों में। और रेप-मर्डर, गैंगरेप-मर्डर करनेवाले यदि मुस्लिम हो तो मीलॉर्ड की कलम टूटने की जगह दिल ही टूट जाता है जबकि रेप, रेप-मर्डर, गैंगरेप, गैंगरेप-मर्डर के अधिकांश अपराधी विशेष समुदाय के होते हैं प्रतिशत में भी और गिनती में भी। खासकर 12 वर्ष और उससे कम उम्र की बच्चियों के रेप, रेप-मर्डर, गैंगरेप, गैंगरेप-मर्डर के लगभग 70% से ज्यादा अपराधी एक ही समुदाय विशेष के लोग होते हैं। पर हमारे मीलॉर्ड छः वर्ष की बच्ची के रेप-मर्डर में मौत की सजा प्राप्त मुस्लिम अपराधी की सजा को भी इस कुतर्क पर उम्र कैद में बदल देते हैं कि अपराधी पांच वक्त नमाज पढ़ता है (ओड़िशा हाईकोर्ट)। मीलॉर्ड, पांच वक्त नमाज तो मुस्लिम आतंकी भी पढ़ते हैं और कुछ तो इमान के इतने पक्के होते हैं की रेप करने से पहले कुरान की आयतें भी पढ़ते हैं (ISIS के आतंकी)।
अजमेर अपहरण, बलात्कार , ब्लैकमेल कांड 1992 का उदहारण देखिए जिसमें हमारी सड़ियल, भ्रष्ट न्यायव्यवस्था और संवेदनहीन जजों की पोल खुल जाएगी। सबसे चर्चित और सबसे घृणित इस बलात्कार कांड में अजमेर दरगाह के खादिमों/चिश्तियों और कांग्रेसी मुसलमानों ने 200 से अधिक हिन्दू बच्चियों का रेप/गैंगरेप किया जिसमें 7 हिन्दू लड़कियों ने ब्लैकमेल से तंग आकर आत्महत्या कर लिया। 3 हिन्दू लड़कियों ने अपनी नंगी तस्वीर वायरल होने पर पूरे परिवार माता पिता भाई बहन सहित आत्महत्या कर लिया, 8 हिन्दू लड़कियां ब्लैकमेल और शोषण से मानसिक रूप से विक्षिप्त होकर पागल हो गई। कई लड़कियों ने मरे हुए भ्रूण को जन्म दिया तो कई ऐसी हालत में पहुँच गई की उनका गर्भपात कराने पर वो सदा केलिए माँ बनने से वंचित हो गई।
कई लड़कियों की आजतक शादी नहीं हो पाई परन्तु वे सभी पिछले 32 वर्षों से न्याय की आस लगाये बैठी है पर मजाल है इस सड़ियल न्यायव्यवस्था और लिब्रांडू जजों की कि उन 36 बलात्कारियों में से एक को भी फांसी पर लटका सके। अपनी जान पर खेलकर सबूतों को इकठ्ठा करने, जांच करने, सरकारों से लडाई करने के बाद भी उनमें से अधिकांश आज भी बेल पर बाहर घूम रहे हैं, कुछ सबूत के आभाव में दोषमुक्त हो गये हैं तो कुछ अभी भी अजमेर दरगाह में बैठकर लोगों को आशीर्वाद दे रहे हैं। अभी पिछले सप्ताह उनमें से छः को सजा सुनाई गई है और पता नहीं कब उन्हें भी बेल देकर छुट्टा सांड बना दिया जाये। जब न्यायव्यवस्था की यह हालत हो और ऐसे न्यायाधीश हों तो रेपिस्टों को भय क्यों लगेगा?
निर्भया कांड के मुख्य बलात्कारी वो मुसलमान जिसने उस बेटी की बेरहमी से हत्या की थी उसे बच्चा बताकर 3 वर्ष बाल सुधारगृह में खिला पिलाकर वापस भेज दिया और केजरीवाल ने उसे 10000 रुपये और सिलाई मशीन उपहार में देकर अज्ञात जगह पर बसा दिया। फिर क्यों कोई अपराध से डरेगा? निर्भया कांड के बाद 2013 में कड़े कानून बनाये गये जिसे भाजपा सरकार ने लागू भी कर दिया। इस कानून के तहत नाबालिगों से रेप पर 20 साल से उम्र कैद की सजा है और 12 वर्ष से कम उम्र की बच्चियों के रेप पर ही उम्र कैद से लेकर मौत तक की सजा का प्रावधान है।
पर आज जब भी न्यूज खोलिए , सोशल साईट देखिए दो चार नाबालिग यहाँ तक की 2 से 12 बर्ष के बच्चियों के रेप/रेपमर्डर की खबरें आती रहती है। आज ही मैंने सिर्फ एक न्यूज चैनल पर 7 रेप/रेप-मर्डर का न्यूज देखा है। पिछले 10 वर्षों से यह कानून लागू है कितनों को रेप केस में फांसी हुई? रेप छोड़िये रेप-मर्डर, गैंगरेप-मर्डर में भी एक को भी फांसी नहीं हुई है। जब लोग रोज टीवी पर बलात्कार के न्यूज देखेंगे और सजा के नाम पर सन्नाटा तो रेपिस्टों की संख्यां बढ़ेंगे ही।
दूसरी बात, हमारे समाज में दो ऐसी किताबें मौजूद हैं जो छोटी छोटी बच्चियों से निकाह और सेक्स की अनुमति देता है, प्रेरणा देता है। मैं ब्लादिमीर नवाशिकोह के किताब की बात नहीं कर रहा हूँ। वह तो दस वर्ष से बड़ी लड़कियों को शिकार के रूप में देखता था। मैं उन किताबों की बात कर रहा हूँ जो आज भी दस वर्ष से भी छोटी बच्चियों को बीबी, प्रेमिका और भाभी के रूप में देखने का नजरिया देता है और इसके कारण 72 साल के बुड्ढे भी 2 वर्ष से 12 वर्ष की बच्चियों का रेप/रेप-मर्डर करते पकड़े जा रहे हैं।
स्थिति तब और भी भयानक हो जाता है जब ये किताबें दूसरी कौम के बच्चियों को रेप करने की खुली छूट देता हुआ प्रतीत होता है और इसे पढ़ने वाले वहशी भेड़िये की तरह मौका मिलते ही दूसरी कौम की बच्चियों पर टूट पड़ते हैं। ऐसी परिस्थियों में भी अगर हमारे लिब्रांडू जजों की आँखों पर तथाकथित बुद्धिजीवी होने की पट्टियाँ नहीं हटती है और वे सभ्य समाज में मृत्युदंड उचित नहीं है कि पागलबुद्धि से बाज नहीं आते हैं तो फिर हमारी बहन बेटियों को भगवान ही बचा सकता है।
मृत्युदंड क्यों नहीं?
आपने ऊपर लेख में अच्छी तरह देख लिया की भारत में अनियंत्रित रेप, गैंगरेप, रेप-मर्डर केलिए सड़ियल और भ्रष्ट न्यायव्यवस्था, लिब्रांडू न्यायाधीश और “किताब” जिम्मेदार है क्योंकि न्यायव्यवस्था न्याय करने में दशकों लगा देते हैं, लिब्रांडू न्यायाधीशों को छोटे छोटे बच्चियों के रेपिस्ट , रेपिस्ट-हत्यारों में इंसान तो दिख जाता है पर हमारी बहन, बेटियों के जान और अस्मत की कीमत दिखाई नहीं देता। मीलॉर्ड को लगता है कि वे तो सभ्य हैं और सभ्य समाज में वहशी दरिंदों को भी फांसी की सजा नहीं होनी चाहिए। आईये आंकड़ों के आधार पर इन लिब्रांडूओं को आईना दिखाएँ।
सवाल है फांसी की सजा सभ्यता से जुड़ा है या सुरक्षा से? और यदि सभ्यता से जुड़ा है तो सभ्यता का पैमाना कौन तय करेगा? क्या भारत के ये तथाकथित बुद्धिजीवी, सेकुलर, मानवाधिकारी और उदारवादी जो आतंकवादी याकूब के मामले में पुरे देश के सामने नंगे हो चुके हैं? या वे जज जो रात के दो बजे एक आतंकवादी केलिए कोर्ट खोल देते हैं और एक फेवरेट अपराधी जेल न जाये इसलिए वे फोन पर ही बेल दे देते हैं? ये तय करेंगे या भारत की नैतिक, सामाजिक और कानून व्यवस्था के आंकड़े तय करेंगे?
सभ्यता के मामलों में तो हमने लेख के प्रथम भाग में दिखा दिया है कि हमारा समाज कितना सभ्य बन चूका है। यहाँ सभ्यता और सुरक्षा दोनों मानकों पर परीक्षण करेंगे कि भारत मृत्युदंड समाप्त करने के लिए कितना तैयार है।
राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के रिकार्ड के अनुसार 2013 में कानून व्यवस्था से सम्बन्धित कुल 81483 घटनाएँ हुई, उग्र हिंसक घटनाओं की संख्या 300357 थी, महिलाओं के विरुद्ध अपराध 309546 तथा IPC & SLL के तहत रजिस्टर्ड कुल मामले 6640378 थे।
2012 के आंकड़े सभ्य होने पर और भी बड़ा प्रश्न खड़ा करती है।
अब आइये देखते हैं भारत सुरक्षा के पैमाने पर कहाँ ठहरता है।
ग्लोबल टेरोरिस्ट इंडेक्स-2014 के अनुसार भारत विश्व में आतंकवाद से सर्वाधिक पीड़ित देशों में छठे स्थान पर है और आतंकवादी हमले में मौतों की दृष्टि से सातवें स्थान पर है। यहाँ यह भी बता दे की आतंकवाद से सर्वाधिक पीड़ित दश देशों में प्रथम पांच और दो सातवें और आठवें स्थान पर मुस्लिम देश हैं तथा शेष दो अन्य वैसे देश हैं जहाँ मुस्लिम आबादी भारत की तरह 20% से ज्यादा है। इस रिपोर्ट के अनुसार 2012 की तुलना में 2013 में आतंकवाद में 70% की वृद्धि हुई है। भारत में कुल 43 आतंकवादी संगठनों ने इन हमलों को अंजाम दिया है जिन्हें तिन वर्गों में रखा गया है।
1. इस्लामी ग्रुप
2. उत्तर-पूर्व के अलगाववादी (ईसाई) ग्रुप और
3. कम्युनिष्ट (नक्सली, माओवादी) ग्रुप।
रिपोर्ट के अनुसार सर्वाधिक आतंकवादी घटनाएँ हैदराबाद में हुई जहाँ 40% मुस्लिम आबादी है तथा जम्मू-कश्मीर में हुआ जहाँ दो तिहाई मुस्लिम आबादी है। उत्तर-पूर्व के अलगावादी (ईसाई) आतंकवादी भारत में हुए कुल आतंकवादी हमलों में 16% के लिए जिम्मेवार हैं।
भारत में 1993 से 2014 के बिच प्रमुख आतंकवादी वारदातों और बम धमाकों की गिनती करें तो कुल 61 बड़े आतंकवादी हमले हुए हैं जिनमे 1972 लोग मारे गए और 4597 लोग घायल हुए हैं (स्रोत: विकिपीडिया)
भारत के ये तथाकथित सेकुलर, बुद्धिजीवी, मानवतावादी और उदारवादी इन तथ्यों पर चर्चा तो दूर देखना और सुनना भी नहीं चाहेंगे क्योंकि इनके इरादे कुटिल हैं जिनमे तिन प्रकार के लोग शामिल हैं। एक हैं सुरक्षा और सुविधाओं से सम्पन्न दिवास्वप्न देखने वाले लिब्रांडू, जिनमें न्यायाधीश भी शामिल हैं, जो समझते हैं कि वे सुरक्षित और सुखी है तो पूरा देश सुरक्षित और सुखी है और इसलिए वे सभ्य है और फांसी की सजा नहीं होनी चाहिए।
दूसरा है मूर्ख सेकुलर, वामपंथी राजनेता जो व्यक्तिगत स्वार्थ और वोट बैंक को खुश करने के लिए फांसी की सजा का विरोध करते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि अब जबकि रेअरेस्ट ऑफ रेयर केस में ही सिर्फ फांसी देने की बात है तो ऐसे लोग अधिकांश में इस्लामी आतंकवादी, जिहादी, दंगाई, हत्यारे, बलात्कारी; उत्तर-पूर्व के ईसाई अलगावादी/उग्रवादी और नक्सली-मावोवादी हत्यारे और देशद्रोही ही होंगे। तीसरे प्रकार में जिहादी गद्दार हैं जो चाहते हैं कि फांसी की सजा का रोड़ा सदा के लिए समाप्त हो जाये ताकि हिन्दुस्तान में आतंकवाद, अलगावाद, जिहाद, दंगे और रेप-मर्डर का खुलकर नंगा नाच कर सके और हिन्दुस्तान और हिंदुओं (हिन्दू, बौद्ध, सिक्ख, जैन) को तबाह, बर्बाद कर इस्लामिक मुल्क बनाया जा सके।
ऐसे तीनों प्रकार के तथाकथित बुद्धिजीवी, सेकुलर और मानवतावादी उपर्युक्त तथ्यों की जगह ये तर्क देते हैं कि विश्व के अधिकांश देशों में मृत्युदंड समाप्त हो चूका है। बिल्कुल सही है। एमनेस्टी इन्टरनेशनल की रिपोर्ट की माने तो 2014 तक विश्व के 57 देशों को छोड़कर लगभग 143 देशों ने मृत्युदंड को समाप्त कर दिया है, परन्तु ग्लोबल टेरोरिस्ट इंडेक्स 2014 के दायरे में इनका विश्लेषण करें तो पता चलता है कि आतंकवाद से सर्वाधिक प्रभावित प्रथम चालीस देशों में सिर्फ चार ने ही मृत्युदंड को समाप्त किया है और इन चार में से किसी भी देश में मुस्लिम आबादी 10% से ज्यादा नहीं है।
दूसरी बात विश्व के सर्वाधिक आतंकवादी घटनाओं वाला देशों में शीर्ष पर इस्लामी देश हैं और अधिकांश में वे देश हैं जहाँ मुस्लिम आबादी 20% से अधिक है तथा कोई भी देश जहाँ 20% से अधिक मुस्लिम आबादी है वहाँ मृत्युदंड पर रोक नहीं है। तीसरी बात मृत्युदंड पर रोक लगाने वाले 143 देशों में से 85 देशों में आतंकवाद का खतरा निम्नतम 0 से 1 के बिच है। हिन्दुस्थान में 5-7 करोड़ अवैध मुस्लिम घुसपैठियों को जोड़ लें तो आज की तारीख में मुस्लिम आबादी 20% से काफी आगे निकल चुकी है।
वास्तव में मृत्युदंड सभ्यता से नहीं सुरक्षा से जुड़ा मसला है। यदि राष्ट्र, समाज और नागरिक सुरक्षित होगा तो मृत्युदंड की आवश्यकता स्वतः समाप्त हो जायेगी और जब मृत्युदंड की आवश्यकता समाप्त हो जायेगी तभी हमारा राष्ट्र और समाज वास्तविक अर्थों में सभ्य कहलायेगा। यही कारण है जब विधि आयोग के सामने मृत्युदंड का प्रश्न उपस्थित हुआ तो यह निष्कर्ष पर पहुँचने को मजबूर हुए की फांसी पर कोई भी फैसला करते समय समाज की सुरक्षा और मानवता की रक्षा की जरुरत ध्यान में रखना होगा। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील दुष्यन्त दवे ने कहा था की अपराधियों के मानवाधिकार देखने से पहले देश की एक अरब जनता की सुरक्षा सुनिश्चित होनी चाहिए। नागरिकों की सुरक्षा करना सरकार की पहली जिम्मेदारी है।
यही कारण है की इस्लामिक आतंकवाद से पीड़ित किसी भी देश में फांसी की सजा पर प्रतिबंध नहीं है। एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के अनुसार 2007-2013 में मृत्युदंड देने वाले प्रथम पांच देशों में चीन प्रथम है जहाँ हजारों में फांसी की सजा हुई है, दूसरा स्थान इरान का है जहाँ 2032 मृत्युदंड हुए है, 502 मृत्युदंड के साथ सउदी अरब तीसरा, 425 मृत्युदंड के साथ इराक चौथे और 259 मृत्युदंड के साथ संयुक्त राष्ट्र अमेरिका पांचवे स्थान पर था।
आंकड़े आपके सामने है। तथ्य यह है कि भारत सभ्यता और सुरक्षा दोनों मानकों पर मृत्युदंड को प्रतिबंधित करने की स्थिति में दूर दूर तक नहीं है। बल्कि आंकड़ों के विश्लेषण से तो लगता है कि जिस कदर भारत में कानून व्यवस्था, महिलाओं के विरुद्ध अपराध और सुरक्षा की जघन्य समस्या है उस हिसाब से भारत की न्याय व्यवस्था और कानून व्यवस्था को और भी कठोर बनाये जाने की जरूरत है। यह शर्मनाक है की 1993 के बम धमाकों में जिसमे 257 लोग मारे गए और 700 से अधिक लोग बुरी तरह घायल हुए, अरबो की सम्पत्ति का नुकसान हुआ, जिसे 100 से अधिक मुस्लिम आतंकवादियों और गद्दारों ने मिलकर अंजाम दिया उसमे सिर्फ एक याकूब मेमन को फांसी हुई वो भी 22 वर्षों बाद।
सुरक्षा विशेषज्ञ प्रकाश सिंह ने उचित ही 22 वर्षों बाद सिर्फ एक फांसी पर हैरानी जताते हुए लिखा की “यह दर्शाता है की हमारे कानून कितने कमजोर है और हमारी न्यायिक प्रणाली कितनी शिथिल है। आज आवश्यकता इस बात की है कि आतंकवाद के विरुद्ध कानून की धार और तेज किया जाए और अदालतों को अपराध की गम्भीरता को देखते हुए दो से पांच वर्ष के बिच ऐसे मामलों को निपटाने की बाध्यता होनी चाहिए।”
आपको बता दूँ की 1995 से 2015 तक इतने अधिक हिंसा, दंगा, लूट, रेप, हत्या, गैंगरेप-हत्या तथा नक्सली-आतंकवादी घटनाओं के बाबजूद सिर्फ 22 को फांसी हुए हैं जो बहुत ही चिंताजनक है और इसमें कोई दो राय नहीं की इसने अपराधियों, नक्सलियों, अलगावादियों और आतंकवादियों के मनोबल बढ़ाने का काम किया है जिसका परिणाम देश में अपराध, दंगा, हिंसा, आतंकवादी घटनाओं में वृद्धि के रूप में सामने आ रहा है और नित्य नए नए आतंकवादी अलगावादी संगठन पैदा हो रहे हैं। यही नहीं लचर कानून व्यवस्था का ही परिणाम है कि कुछ लोग खुले आम गद्दारी और देशद्रोही गतिविधियों में लगे हैं। वे खुलेआम देशी विदेशी आतंकवादी संगठनों का समर्थन करते हैं, पाकिस्तान तथा देशी विदेशी आतंकवादी संगठनों का खुलेआम झंडा लहराकर भारत के कानून और सम्प्रभुता को चुनौती देते हैं। भारत विरोधी नारे लगाते हैं और भारत को खंड खंड करने की बात करते हैं।
आवश्यकता तो इस बात की है कि सरकार ऐसे आतंकियों और गद्दारों के विरुद्ध NSA और UAPA से भी कठोर कानून लागू करे तथा न्यायालय द्वारा त्वरित निपटान कर उन्हें फांसी पर लटकाया जाए। बेहतर तो यह होगा की पाकिस्तान और ISIS का झंडा लहराने वाले गद्दारों और भारत के टुकड़े करने की बात करनेवाले देशद्रोहियों को देखते ही गोली मारने का आदेश दिया जाए तथा आतंकवादियों के समर्थकों पर मियामी की तरह देशद्रोह का मुकदमा चलाकर कठोर दंड दिया जाय। अन्यथा भारत जिस कदर बाहर और भीतर के आतंकवादी, अलगावादी, नक्सली, देशद्रोही संगठनों और लोगो से नित्य जूझने को विवश हो रहा है अगर कठोर कानून और नीति बनाकर इनका प्रतिकार नहीं किया गया तो वो दिन दूर नहीं जब भारत भी अन्य मुस्लिम देशों की तरह इस्लामी आतंकवाद से बर्बादी और तबाही की राह पर अग्रसर दिखेगा।
इस आंकड़े अथवा आंकडे सहित पूरे लेख (प्रथम भाग और द्वितीय भाग) के माध्यम से मृत्युदंड और कठोर कानून के पक्ष में लोगों की राय मजबूत करिये ताकि देश के तथाकथित सेकुलर और बुद्धिजीवी गद्दारों द्वारा मृत्युदंड के विरोध में भ्रामक प्रचार का मुकाबला किया जा सके तथा स्त्रियों और महिलाओं की सुरक्षा तथा राष्ट्र की अखंडता और सुरक्षा सुनिश्चित करने केलिए अधिक से अधिक जघन्य अपराधियों और देशद्रोहियों को फांसी पर लटकाया जा सके। उपर दिए गए सभी आंकड़े प्रमाणिक है।
अस्वीकरण: इस लेख में प्रमाणिक आंकड़ों के आलावा व्यक्त विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं। उसे मानना या न मानना पाठक के विवेक पर निर्भर है। हमारा वेबसाइट लेखक के व्यक्तिगत विचारों का समर्थन या विरोध नहीं करता है और न ही किसी वाद के लिए उत्तरदाई होगा।