जब मुस्लिम मुस्लिम भाई भाई नहीं हो सकते, वे उंच-नीच और सच्चा झूठा मुसलमान के नाम पर एक दूसरे का कत्लेआम कर रहे हैं तो दलित मुस्लिम भाई भाई, हिन्दू मुस्लिम भाई भाई कैसे हो सकते हैं जबकि कुरान में तीन तीन जगह मुसलमानों को गैरमुस्लिमों को दोस्त बनाने से मना किया गया है? वे कुरान और हदीस को मानेंगे या भाईचारे को? दलित मुस्लिम भाईचारे के विषय पर हर दलित भाई बहनों को बाबा साहेब आंबेडकर के विचार जरुर जानना चाहिए।
दलित मुस्लिम भाई भाई का नारा नया नहीं है। भारत की आजादी की लड़ाई के दौरान मुस्लिम लीग के अलग पाकिस्तान की मांग का समर्थन करनेवाले कम्युनिष्टों ने भी दलित मुस्लिम भाई भाई का नारा बुलंद किया था। इतना ही नहीं, दलित कम्युनिष्ट जोगेंद्रनाथ मंडल ने तो पाकिस्तान बनने के बाद पाकिस्तान बनाने में अपनी भागीदारी का लाभ उठाने के लिए बकायदा अपने हजारों दलित समर्थकों के साथ पाकिस्तान जाकर पाकिस्तानी संसद में मंत्री भी बना था। लेकिन चंद महीनों में उसे यह एहसास हो गया की दलित मुस्लिम भाई भाई की जगह काफ़िर-मुस्लिम दुश्मन दुश्मन का रिश्ता वहाँ ज्यादा मजबूत है।
जोगेंद्रनाथ मंडल जैसे दलित मुस्लिम भाई भाई का नारा लगाने वाले मूर्ख के चक्कर में फंसकर पाकिस्तान (वर्तमान बंगलादेश सहित) में रह गए लाखों दलित हिंदुओं को जब पाकिस्तान में व्यापक स्तर पर नरसंहार किया जाने लगा, उनकी अस्मत और सम्पत्ति लूटा जाने लगा, उन्हें घर से बेघर कर सड़कों पर नंगा घुमाया जाने लगा और दो दो रुपये में हवस के भूखे भेड़ियों को बेचा जाने लगा तब इनके होश ठिकाने आ गए। उन्हें एहसास हो गया की जो शिया-सुन्नी-कुर्द-अहमदिया-मुजाहिर-सूफी भाई भाई नहीं हो सकते वे भला दलित मुस्लिम भाई भाई क्या होंगे। लेकिन तबतक देर हो चुकी थी। न केवल गाँधी के भरोसे पाकिस्तान में रह जानेवाले हिन्दू, बौद्ध, सिक्ख, जैन पाकिस्तान और बंगलादेश में व्यापक नरसंहार, हिंसा और बलात्कार के शिकार हुए बल्कि इनके साथ गए हजारों दलित भी आज इतिहास में दफन हो चुके हैं।
काफिरों के विरुद्ध जिहाद का विरोध करने पर इन्हें दो महीने के भीतर ही लात मारकर मन्त्रिमन्डल से निकाल दिया गया और ये न केवल अपने परिवार बल्कि लाखों समर्थकों सहित इतिहास के पन्नों में दफन हो गए। १९४७ में पाकिस्तान में करीब २३% दलित, बुद्धिष्ट, हिंदू और सिक्ख थे जिनमे अब केवल १.६-१.९२% रह गए हैं तो वहीं २७% दलित, बुद्धिष्ट, हिंदू आबादी वाले बंगलादेश में इनकी कुल आबादी अब सिर्फ ७-८% रह गयी है जिन्हें तेजी से खत्म किया जा रहा है और अगले २० वर्षों में बांग्लादेश को हिन्दू, बौद्ध, ईसाई विहीन करने का लक्ष्य है।
आज राजनीतिक स्वार्थ के लिए दलितों के साथ फिर वही षड्यंत्र किया जा रहा है। फिर उन्हें अपने ही भाई बंधुओं के विरुद्ध उकसाकर उन्हें अलग थलग कर दलितों और पुरे देश को कमजोर किया जा रहा है। दलित-मुस्लिम भाई भाई और जयभीम-जयमीम के नारे लगाकर उन्हें बली का बकरा बनाया जा रहा है। अपने क्षुद्र राजनितिक स्वार्थ के लिए इतिहास की कडवी सच्चाई को विस्मृत कर दिया गया है।
राजनीतिक षड्यंत्र के शिकार दलितों को अपने सुरक्षा के लिए इतिहास पुरुष बाबा साहेब आम्बेडकर के विचार एक मजबूत ढाल बन सकता है जिसे प्रत्येक दलित और गरीब को अवश्य जानने चाहिए। उनके विचारों को पढकर आप अनुभव करेंगे की वे कितना सही और दूरदर्शी थे तथा आज जो उनके मुखौटे के पीछे दलितों की गंदी राजनीती कर रहे हैं वे कितना गलत और खतरनाक हैं।
डा. अम्बेडकर ने भारत पर मुसलमानों के क्रूर तथा रक्तरंजित आक्रमणों का गहराई से अध्ययन किया था एवं उनके द्वारा हिन्दुओं पर ढाये गये भीषण अत्याचारों का भी वर्णन किया। उन्होनें लिखा:
“हिन्दू मुस्लिम एकता एक अंसभव कार्य हैं। भारत से समस्त मुसलमानों को पाकिस्तान भेजना और हिन्दुओं को वहां से बुलाना ही एकमात्र हल है। यदि यूनान तुर्की और बुल्गारिया जैसे कम साधनों वाले छोटे छोटे देश यह कर सकते हैं तो हमारे लिए कोई कठिनाई नहीं। साम्प्रदायिक शांति हेतु अदला बदली के इस महत्वपूर्ण कार्य को न अपनाना अत्यंत उपहासास्पद होगा। विभाजन के बाद भी भारत में साम्प्रदायिक समस्या बनी रहेगी। पाकिस्तान में रुके हुए अल्पसंख्यक हिन्दुओं की सुरक्षा कैसे होगी?
मुसलमानों के लिए काफिर हिन्दू सम्मान के योग्य नहीं है। मुसलमानों की भातृ भावना केवल मुसमलमानों के लिए है। कुरान गैर मुसलमानों को मित्र बनाने का विरोधी है, इसीलिए काफिर हिन्दू सिर्फ घृणा और शत्रुता के योग्य हैं। मुसलमानों की निष्ठा भी केवल मुस्लिम देश के प्रति होगी। इस्लाम मुसलमानों को भारत को अपनी मातृभूमि और हिन्दुओं को अपना निकट संबधी मानने की कभी आज्ञा नहीं देगा।
संभवतः यही कारण था कि मौलाना मौहम्मद अली जैसे भारतीय मुसलमान भी अपने शरीर को भारत की अपेक्षा येरूसलम में दफनाना अधिक पसन्द किया। कांग्रेस में मुसलमानों की स्थिति एक साम्प्रदायिक चौकी जैसी है। इस्लामी कानून समाज सुधार के विरोधी हैं। वो धर्म निरपेक्षता को नहीं मानते। मुस्लिम कानूनों के अनुसार भारत हिन्दुओं और मुसलमानों की समान मातृभूमि नहीं हो सकती। वे भारत जैसे गैर मुस्लिम देश को इस्लामिक देश बनाने में जिहादी आतंकवाद का संकोच नहीं करेंगे।” (प्रमाण सार डा अंबेडकर सम्पूर्ण वांग्मय , खण्ड १५१ तथा पाकिस्तान या भारत का विभाजन)।
उन्होंने मुस्लिम राजनीति के सन्दर्भ में अपने विचार “पाकिस्तान ऑर द पार्टीशन आफ इंडिया” (१९४०, १९४५ एवं १९४६ का संस्करण) में विस्तार से प्रकट करते हुए लिखा है,
“यह कहना गलत है कि मुसलमान आक्रमणकारी केवल लूट या विजय के उद्देश्य से भारत आए थे। इनका उद्देश्य हिन्दुओं में मूर्ति पूजा की भावना को नष्ट कर भारत में इस्लाम की स्थापना करना था। इस्लाम विश्व को दो भागों में बांटता है, जिन्हें वे दारुल-इस्लाम (मुस्लिम शासित) तथा दारुल हरब (गैर मुस्लिम शासित) मानते हैं। उनके लिए भारत दारुल हरब है।
डा. अम्बेडकर के शब्दों में, “इस्लाम का भ्रातृत्व सिद्धांत मानव जाति का भाईचारा नहीं है। यह केवल मुसलमानों के बीच तक ही सीमित भाईचारा है। समुदाय के बाहर वालों के लिए उनके पास शत्रुता व तिरस्कार के सिवाय कुछ भी नहीं है।”
उनकी मुसलमानों की भारत को दारुल इस्लाम बनाने के सदैव से आकांक्षा रही है। ब्रिटिश शासनकाल में उनके इस क्षेत्र में अनेक प्रयत्न होते रहे – कभी हिजरत, कभी जिहाद तथा कभी पैन-इस्लामवाद के रूप में। सैय्यद अहमद बरेलबी ने भारत में मजहबी युद्ध की घोषणा की। बहावी आन्दोलन इसी प्रकार का असफल प्रयास था। १८५७ का संघर्ष भी मुख्यत: मुगल शासन को बचाने के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध एक जिहादी प्रयत्न ही था। खिलाफत आन्दोलन के द्वारा जिहाद तथा पैन इस्लामवाद को बढ़ावा दिया गया। अनेक मुसलमान भारत छोड़कर अफगानिस्तान चले गए। अफगानिस्तान का १९१९ में भारत पर आक्रमण इन खिलाफत के लोगों की भावनाओं का ही परिणाम था।
डा. अम्बेडकर ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि इस्लाम में राष्ट्रवाद का कोई चिंतन नहीं है। वह राष्ट्रवाद के बजाय कौमवाद को मानता है। उन्होनें भारत में हिन्दू-मुस्लिम दंगों को “गृह-युद्ध” माना। उन्होंने महात्मा गांधी द्वारा हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए किए गए प्रयासों की भी आलोचना की तथा इसे महानतम भ्रम बताया।
उन्होंने निष्कर्ष रूप में यह माना है कि मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भारतीय जीवन प्रवाह में मतान्तरण, अलगाववाद तथा साम्प्रदायिकता का विष घोला, जिसकी परिणीति भारत विभाजन के रूप में हुई।
बाबा साहेब ने चुनौतीपूर्ण भाषा में कहा, “क्या भारत के इतिहास में एक भी ऐसी घटना है जहां हिन्दू तथा मुसलमान समान रूप से गौरव या शोक का अनुभव कर सके? क्या भारतीय मुसलमान भारत में रहते हुए कभी इसे एक समान मातृभमि मानेगा?”
अम्बेडकर ने मुस्लिम समाज में व्याप्त महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की भी घोर निंदा की। उन्होंने लिखा कि मुस्लिम समाज में तो हिन्दू समाज से भी अधिक सामाजिक बुराइयाँ हैं और मुसलमान उन्हें
‘भाईचारे’ जैसे नर्म शब्दों के प्रयोग से छुपाते हैं।
उन्होंने मुस्लिमों में उच्च अशरफ वर्ग द्वारा निम्न अर्ज़ल वर्गों के ख़िलाफ़ भेदभाव के साथ ही मुस्लिम समाज में महिलाओं के उत्पीड़न की दमनकारी बुर्का प्रथा की भी आलोचना की। उन्होंने कहा हालाँकि पर्दा हिंदुओं में भी है पर उसे धार्मिक मान्यता केवल मुसलमानों ने दी है। उन्होंने इस्लाम में कट्टरता की आलोचना की और लिखा कि इस्लाम की नीतियों का अक्षरश: अनुपालन की बद्धता के कारण मुस्लिम समाज बहुत कट्टर हो गया है और उसे बदलना बहुत मुश्किल हो गया है। उन्होंने आगे लिखा कि भारतीय मुसलमान अपने समाज का सुधार करने में विफल रहे हैं जबकि इसके विपरीत तुर्की जैसे देशों ने अपने आपको बहुत बदल लिया है।
एक बार पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ जहर उगला और हिन्दुओं को तोड़ने की बात कही, इसके जवाब में बाबा साहब ने कहा कि, “ये मत समझो कि हमारा हिन्दुओं से झगड़ा है, ऐसा सोचना भी मत”।
डॉ.भीमराव अम्बेडकर के जीवनी लेखक स्वर्गीय श्री सी.बी खैरमोड़े ने डॉ. अम्बेडकर के शब्दों को उद्धृत किया है:
“मुझमें और सावरकर में इस प्रश्न पर न केवल सहमति है बल्कि सहयोग भी है कि हिन्दू समाज को एकजुट और संगठित किया जाये, और हिन्दुओं को अन्य मजहबों के आक्रमणों से आत्मरक्षा के लिए तैयार किया जाये।” (ब्लिट्ज, १५ मई, १९९३ में उद्धृत)।
जरा सोचिये, क्या कोई तथाकथित दलितवादी और दलितों की राजनीती करनेवाले लोग बाबा साहेब आम्बेडकर के इन विचारों का पालन करते हैं? हम हिंदुओं में आपस में अतीत की कुछ कड़वाहटें हैं जिस पर गुस्सा जायज है। बाबा साहेब आम्बेडकर और गाँधी जी के प्रयत्नों और लोकतंत्र के नव जागरण में अब अधिकांश बुराईयों का खात्मा भी हो गया है और अभी भी कहीं कुछ है तो आज पूरा हिंदू समाज उनके विरुद्ध दलित भाइयों के साथ खड़ा है।
दलित हिंदू और बौद्ध हमारे हिंदू समाज का एक अभिन्न अंग हैं और उनके हर सुख दुःख में हम सब साथ है। हमारा घर हिन्दुस्तान और हमारे समाज की सुरक्षा साझी है। आपसी विखराव के कारन ही अतीत में हमलोगों के साथ हिंसक जुल्म और अत्याचार हुए तथा सदियों गुलामी की पीड़ा झेलनी पड़ी। हमारा भारतवर्ष आज अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बंगलादेश और कश्मीर बन गया और हम हिंदू, बौद्ध, सिक्ख, जैन वहाँ अपने ही घरों में खत्म कर दिए गए।
हमें इतिहास से सबक लेने की आवश्यकता है। हमारी एकता ही हमारी और हमारे देश की सुरक्षा की गारंटी है। क्या दलित भाइयों को ऐसे हितैषियों की आवश्यकता है जो दलित हिंदुओं और गैर दलित हिंदुओं के आपसी झगडों पर तो छाती पिटते हों, पर अगर दलितों की हत्या करनेवाले, उन्हें जिन्दा जलाने वाले, उनके घरों को आग लगाने वाले, दलित लड़कियों का बलात्कार करने वाले मुसलमान हो तो मौन धारण कर लेते हैं? यदि किसी विशेष राजनितिक पार्टी के शासन में दलितों पर अत्याचार हों तब तो छाती पीटते हों परन्तु अन्य के राज्य में दलितों पर अत्याचार हो तो मौन रह जाते हैं?
क्या ऐसे रवैयों से दलितों की समस्याओं का समाधान होगा? वास्तविकता तो यह है कि इनकी इसी दोगली रवैया के कारन जेहादी मुसलमानों के हौसले बढे हैं और दलितों पर मुसलमानों के हमलों में तेजी से वृद्धि हुई है। वे खुलेआम दलित लड़कियों पर अपना अधिकार जताने लगे हैं।
इतना ही नहीं, दलित राजनीती करने के लिए सबसे कुख्यात पार्टी के मुस्लिम नेता का कहना है कि यदि दलित मुस्लिम एक हो जाएँ तो हिंदुओं को गुलाम बनाकर उनपर शासन करेंगे। मतलब साफ है हिन्दुस्तान के १९% दलित हिंदुओं को ये न केवल हिंदू मानने से इंकार करते हैं बल्कि ये उन्हें अपने ही भाई बन्धु हिंदुओं के विरुद्ध खड़ा भी करना चाहते हैं ताकि एक बार फिर पहले की तरह हम हिंदुओं को आपस में लड़ाकर हिन्दुस्तान पर कब्जा कर सकें तथा भारत में फिर से हिंसा, बलात्कार, अत्याचार और जबरन धर्मान्तरण का जिहादी दौर प्रारम्भ कर बचे खुचे हिन्दुस्तान को भी मुस्लिमस्तान बना सकें।
राजनितिक स्वार्थ में अंधे आज के तथाकथित दलितवादी राजनेता कल के मुर्ख जयचंदों की तरह निहित स्वार्थ के लिए अपने ही भाई बंधुओं के विरुद्ध गैरों का सहयोग लेकर फिर से भारत को गुलामी तथा दलित बुद्धिष्टों को मौत की राह पर धकेलने को उद्धत हैं।
और हाँ,
१. धूर्त दलितवादी झूठ कहते हैं कि दलित हिंदुओं से भाषा, मूल, धर्म, सभ्यता, संस्कार या राष्ट्रीयता में भिन्न हैं। उत्तर से लेकर दक्षिण भारत और पाकिस्तान, बांग्लादेश सहित हम सब एक ही मूल के हैं। हमारी सभ्यता, संस्कृति, भाषा, मूल, धर्म और राष्ट्रीयता हमारी साझी विरासत है। यह वैज्ञानिक शोध में साबित हो चूका है और एतिहासिक शोध में भी। धूर्त वामपंथी इतिहासकारों के झूठ बेनकाब हो गए हैं। हाँ, कुछ आदिवासी जातियां इनसे इतर हो सकते, केवल कुछ क्योंकि अधिकांश आदिवासी वे राजा, जमींदार और क्षत्रप हैं जो मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा मारे जाने के भय से या जबरन मुसलमान बनाये जाने के डर से अपने प्रजा और प्रियजनों सहित अपना धर्म, संस्कृति बचाने केलिए जंगलों में जाकर छिप गये और वहीं रहने लगे।
२. मनुस्मृति में जाति व्यवस्था के लिए कोई जगह नहीं थी। मनुस्मृति कर्म और योग्यता आधारित वर्ण व्यवस्था थी और कोई भी अपने कर्म और योगता के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शुद्र बन सकते थे। इसके दर्जनों उदहारण हैं। जैसे विश्वामित्र, मतंग, बाल्मीकि, शाक्य क्षत्रिय महात्मा बुद्ध आदि।
३. जाति व्यवस्था वर्ण व्यवस्था की विकृति है जो आर्थिक विकास के साथ समाज में समाहित हो गयी। इसका सनातन धर्म से कोई लेना देना नहीं है। जैसे सोना का काम करने वाला सुनार, लोहा का काम करने वाला लोहार, मिट्टी का बर्तन बनाने वाला कुम्भकार आदि। और भी, मौर्यों से पहले किसी के साथ जाति सूचक सर नेम नहीं पाया जाता है बल्कि वे गोत्र से जाने जाते थे जैसे शाक्य मुनि।
४. हिंदुओं का दलित में रूपांतरण आर्थिक और क्रमिक था जातिगत या धार्मिक नहीं। मनुस्मृति से इसका कोई लेना देना नहीं है। उदहारण के लिए ऋग वेद से लेकर उत्तर वैदिक काल तक कुम्भकार, लोहार और सोनार बड़े व्यावसायिक वर्ग थे। कुम्भकार का वर्चस्व इतना था कि वैदिक काल से लेकर ताम्र पाषाण काल तक का इतिहास हम इनके मृदभांडों के आधार पर ही निर्धारित करते हैं, परन्तु धातु के आविष्कार के साथ इनका महत्व घटता गया और ये बड़े व्यासायिक वैश्य वर्ग से पतित होकर विकृत वर्ण व्यवस्था के अनुसार शुद्र वर्ग की श्रेणी में आ गए।
यही हाल लोहार का भी है, परन्तु सोने की चमक आज भी बरकरार होने के कारन सोनार अभी भी वैश्य वर्ग में स्थान बनाये हुए है। इसी तरह मौर्य क्षत्रिय आज वैश्य श्रेणी में गिने जाते हैं, श्रीराम के पुत्र कुश के वंशज कुशवाहा अब वैश्य हैं। लव के वंशज लोहान तो अब गिने चुने हिंदू बचे हैं क्योंकि लाहोर पाकिस्तान में पड़ने के कारन अधिकांश में ये लड़ते हुए मारे गए या कन्वर्ट हो गये।
५. भारत में ५०-६०% दलित जातियां मुस्लिम-ईसाई (अंग्रेज) अत्याचार और लूट की देन है तथा आजादी के बाद करीब ३०-३५% जातियां गरीबी, आर्थिक और सामाजिक पिछडेपन के कारन अनुसूचित जाति में शामिल किये गए थे। जैसे, क्षत्रियों के आठ कुलों में से एक परमार वंश जिसमे राजा भोज और मुंज जैसे महावीर पैदा हुए। शालिवाहन परमार, जिसकी तूती अरब के देशों तक बजती थी, अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के बाद पतन को प्राप्त हो सत्ता और सामाजिक प्रतिष्ठा से मरहूम हो गए और इनसे उत्पन्न अधिकांश जातियां जैसे पवार, पंवर, पनवार और खुद कुछ परमार भी आज क्षत्रिय नहीं शुद्र और वैश्य माने जाते हैं।
इसी तरह खट्टीक ब्राह्मण जिन्होंने सिकन्दर की सेना को धुल चटा दी थी आज दलित हैं, चंवरवंशी क्षत्रिय मुसलमानों के कारन चर्मकार हैं, कई क्षत्रिय और ब्राह्मण कुल आज भंगी और मेहतर बन चुके हैं।