नव धर्मान्तरित ज्यादा खतरनाक होते हैं
भाग-2: कालाचंद राय उर्फ़ काला पहाड़
(कारण, नव धर्मान्तरित को साबित करना होता है कि 1. जिस नाले में उसने डुबकी लगाई है वह पवित्र गंगाजल से बेहतर है और 2. उसे नाले में रहने केलिए अनुकूलित होना पड़ता है।)
बंगाल के इतिहास में काला पहाड़ का नाम एक अत्याचारी के नाम से स्मरण किया जाता है। काला पहाड़ का असली नाम कालाचंद राय था। कालाचंद राय एक बंगाली वैष्णव ब्राहण नयनचंद राय का पुत्र था। पूर्वी बंगाल के उस वक्त के कर्रानी वंश के सुल्तान की बेटी गुलनाज को उससे प्यार हो गया। सुल्तान की बेटी ने उससे शादी की इच्छा जाहिर की। वह उससे इस कदर प्यार करती थी कि वह इस्लाम छोड़कर हिंदू विधि से उससे शादी करने के लिए तैयार हो गई।
ब्राहमणों को जब पता चला कि कालाचंद राय एक मुस्लिम शाहजादी से शादी कर उसे हिंदू बनाना चाहता है तो ब्राहमण समाज ने कालाचंद का विरोध किया। उन्होंने उस मुस्लिम युवती के हिंदू धर्म में आने का न केवल विरोध किया, बल्कि कालाचंद राय को भी जाति बहिष्कार की धमकी दी। कालाचंद राय को अपमानित किया गया। अपने अपमान से क्षुब्ध होकर कालाचंद गुस्से से आग बबुला हो गया और उसने इस्लाम स्वीकारते हुए उस युवती से निकाह कर उसके पिता के सिंहासन का उत्तराधिकारी हो गया।
हालाँकि कुछ इतिहासकारों का मत है कि कालाचंद राय अपनी मुस्लिम प्रेमिका और सुल्तान की बेटी से शादी करने केलिए और सुल्तान के बाद सत्ताधिकार प्राप्त करने केलिए इस्लाम ग्रहण कर मुसलमान बन गया। मुस्लिम औरत के प्यार में मुसलमान बनने पर उसे अपने परिवार तथा समाज के विरोध और बहिष्कार का सामना करना पड़ा जिन्हें मनाने और समझाने की बहुत कोशिश कालाचंद राय ने की थी। यह ज्यादा विश्वसनीय लगता है क्योंकि कोई आम मुसलमान भी स्वेच्छा से अपनी बेटी को किसी हिन्दू को ब्याहने केलिए तैयार नहीं होता है फिर वो तो एक सुल्तान था और उस पर मौलाना, मौलवी, मुफ़्ती का दबाब होगा। अतः वह अपनी बेटी को स्वेच्छा से हिन्दू बनकर हिन्दू रीति से एक हिन्दू ब्राह्मण के साथ शादी की अनुमति कदापि नहीं दे सकता था।
जैसा कि सुजान भट्टाचार्य ने बताया, कलिंग (ओडिशा) के हिंदू राजा मुकुंद देव मुगल सम्राट अकबर के सहयोगी और बंगाल के सुल्तान के दुश्मन थे। ओड़िशा के गजपति और सुल्तान के बीच दो युद्ध हुए, पहला वह जीता, दूसरा वह हार गया। काला पहाड़ ने दोनों लड़ाइयों में हिस्सा लिया लेकिन दोनों तरफ से। पहले युद्ध में वे बंगाल के स्वतंत्र हिंदू साम्राज्य कलिंग और भूरिश्रेष्ठ की संयुक्त सेना के सर्वोच्च सेनापति थे। इसके बाद उन्होंने बंगाल के सुल्तान सुलेमान कर्रानी की बेटी गुलनाज़ से शादी के बाद अपना धर्म बदल दिया जो सुल्तान द्वारा निर्धारित पूर्व विवाह शर्त था।
दूसरे युद्ध के बाद 1568 में राज्य के प्रमुख शहरों और धार्मिक स्थानों को नष्ट कर दिया, जो कि ओडिशा के समकालीन भारतीय राज्य का निर्माण करते हैं। बांग्लादेश के राष्ट्रीय विश्वकोश में शम्सुद्दीन अहमद के अनुसार, सुल्तान सुलेमान ने अपने बेटे “बयाज़ीद और जनरल कालापहाड़” की कमान के तहत अपनी सल्तनत का विस्तार करने के लिए ओडिशा में अपनी सेना भेजी। उन्होंने राजा मुकुंद-देव को हराया और मार डाला।
अपने परिवार और समाज से बहिष्कृत होकर अपमान का बदला लेने केलिए उसने तलवार के बल पर ब्राह्मणों को मुसलमान बनाना शुरू कर दिया। उसका एक ही नारा था मुसलमान बनो या मरो। पूरे पूर्वी बंगाल में उसने इतना कत्लेआम मचाया कि लोग तलवार के डर से मुसलमान होते चले गए। इतिहास में इसका जिक्र है कि पूरे पूर्वी बंगाल को इस अकेले व्यक्ति ने तलवार के बल पर इस्लाम में धर्मांतरित कर दिया। उसकी निर्दयता के कारण इतिहास उसे काला पहाड़ के नाम से जानती है।
कोणार्क सूर्य मंदिर पर हमला
कालापहाड़ को बार-बार होने वाले हमलों और कोणार्क सूर्य मंदिर के नुकसान से जोड़ा गया है। ओडिशा के इतिहास के अनुसार, कालापहाड़ ने 1568 ई। में ओडिशा पर आक्रमण किया। उसने कोणार्क सूर्य मंदिर, साथ ही ओडिशा में कई हिंदू मंदिरों को क्षतिग्रस्त कर दिया। पुरी जगन्नाथ मंदिर की मदला पंजी बताती है कि कैसे कालापहाड़ ने 1568 ई. में ओडिशा पर हमला किया था।
आगे गायत्री परिवार द्वारा लिखित कथा का एक अंश
“काला पहाड़ आ रहा है!” कितना भयंकर है यह संवाद। प्रलय का संदेश भी शायद इतना दारुण नहीं। वह नृशंसता की नग्न मूर्ति-जनपदों को फूँकते रौंदते मानव के छिन्न-भिन्न शवों से धरती को वीभत्स बनाते पिशाचों की सेना के समान आँधी के वेग से आने वाला निष्ठुर हत्यारा जिधर जाता है, दिशा उजाड़ हो जाती है। उड़ीसा को रौंदकर, उसके शासक मुकुँद देव को मारकर उसने मित्रता गाँठी है दिल्ली के बहलोल लोदी से। अब जौनपुर को तबाह करता चल पड़ा है काशी की ओर।
“कापुरुष। तू और क्या कर सकता था? “ढाई हड्डी का दुर्बल ब्राह्मण काला पहाड़ को ये शब्द कहे, कौन कल्पना कर सकेगा। जिस प्रचण्ड झंझावात के सम्मुख समूचा महाअरण्य धराशायी हो जाता है उसके सामने।।।। भीषण ताण्डव मचा काशी में। रणभूमि से रक्तारक्त शरीर अंगारे जैसे नेत्र खून टपकती तलवार लिए काला पहाड़ सीधे विश्वनाथ मन्दिर आया था। नीले रंग के कपड़े पहने, म्लेच्छ सेना के कुछ मुख्य नायक उसके पीछे थे।उन उद्धत लोगों के घोड़े मन्दिर के भीतर गर्भगृह के सामने एकाएक आ गए। किन्तु जैसे ही वह घोड़े से कूदा महाकाल का आराधक यह वृद्ध ब्राह्मण द्वार पर सामने दिखा।
“कापुरुष! काला पहाड़ तू कायर है!”
“मूर्ख ब्राह्मण! क्या कहता है तू? “चीखा वह काजल जैसे काले रंग का अत्यन्त दीर्घ एवं प्रचण्डकाय दैत्य।
“इन असहायों की हत्या से, अपवित्र शस्त्र और इन दौलत के लोभी पिशाचों को लेकर तू शूर समझता है अपने को? कायर कहीं का!” बूढ़े ब्राह्मण की वाणी में सिर्फ शब्दों का तीखापन नहीं था, उसमें वह उपेक्षा और तिरष्कार था, जो कोई किसी पशु को भी नहीं देता।” शूर थे वे जिन्होंने अन्याय का प्रतिकार करने में अपना बलिदान दिया। तू अभिमान में डूबा भीरु है।”
“ले” कहकर हाथ का शस्त्र काला पहाड़ ने पूरी ताकत से एक ओर फेंक दिया। झनझना कर टूट गई वह भारी तलवार। पीछे घूम कर उसने अपने अनुचरों को हुक्म दिया “दूसरे सब बाहर चले जायँ।”
“नपुँसक! मैं नहीं जानता था तू मूर्ख भी है।” ब्राह्मण ने झिड़क दिया।
“अब तू मुझ बूढ़े से मल्ल युद्ध करेगा? तू समझता है कि शौर्य सैनिकों में और शस्त्र में नहीं है तो तेरे इस हिंसा परायण पापी शरीर में है? हड्डी, माँस, विष्ठा में है? यह तेरे जैसे बेवकूफ की ही समझ है।“ वृद्ध की वाणी नहीं उनका तप प्रवाहित हो रहा था। वाणी तो सिर्फ माध्यम थी, उनकी दोनों आँखें दो मध्याह्न-कालीन सूर्यों की तरह प्रकाशित थीं। कुछ घट रहा था अद्भुत-अद्वितीय जिन्हें सामान्य साँसारिक आँखें देखने में असमर्थ थीं।
“ओह!” काला पहाड़ ने अपने होंठ दाँतों से इतनी जोर से दबाए कि उनसे खून की बूंदें छलछला आयीं। क्रोध के अधिकतम आवेश में आँखों से टपाटप आँसू टपकने लगे। पसीने से भीगा शरीर थर थर काँपा कुछ क्षण और स्तम्भित जड़ हो गया। वह पलक तक नहीं गिरा पाया। मूर्ति की तरह स्थिर खड़ा रह गया वह। आँखें अंगारे की तरह जल रही थीं। विष निचोड़े जा रहे नाग के समान फुँकार भरी साँसें छोड़ रहा था-वह।
“शौर्य अन्तरात्मा का गुण है। चित्त की स्वाभाविक प्रक्रिया पर विजय प्राप्त करने पर मिलता है। क्रोध, राग, द्वेष को जीतने का नाम है शौर्य। तुम में है साहस शौर्य पाने का?”
ब्राह्मण श्रेष्ठ के इन शब्दों के बाद इतिहास के पृष्ठ मौन है, यह रहस्योद्घाटन करने के विषय में कि इस घटना के बाद तेरहवीं सदी का वह आतंक “काला पहाड़“ कहाँ चला गया। कतिपय इतिहास विज्ञ लिखते हैं कि वह चला गया था भीषण-घनघोर जंगलों में तप-तितिक्षा द्वारा स्वयं को बदलने, बचा शौर्य पाने। “स्वभाव विजय शौर्य” उक्ति को चरितार्थ करने।