महान राष्ट्रवादी इतिहासकार स्वर्गीय पुरुषोत्तम नागेश ओक लिखते हैं कि, “ताजमहल, कुतुबमीनार या फतेहपुर सीकरी या सुल्तान गढ़ी आदि स्थलों से देवमूर्ति या संस्कृत शिलालेख जो प्राप्त होते रहे हैं उन्हें गुल और गुम करके उनकी प्राप्ति के सम्बन्ध में पूरी गुप्तता बरती जाती है. जब कुतुबमीनार परिसर से देवमुर्तिया निकाली जाने लगी तब पुरातत्व विभाग ने कुतुबमीनार के इर्दगिर्द ऊँची कनात खड़ी कर चोरी छिपे उत्खनन किया ताकि वह हिन्दू स्थल होने की बात किसी को ज्ञात न हो.”
ताजमहल, कुतुबमीनार, फतेहपुर सीकरी, सुल्तान गढ़ी, हुमायूँ का मकबरा, निजामुद्दीन की दरगाह आदि सारी ऐतिहासिक इमारतें इस्लाम पूर्व हिन्दू क्षत्रिय राजाओं के मन्दिर महल होने के कारण उनमें समय समय पर देवी देवताओं की मूर्तियाँ और संस्कृत शिलालेख मिलते रहे हैं. तथापि अंग्रेजों के समय से इन प्रमाणों को गुप्त रखते हुए उन भवनों को इस्लाम निर्मित कहते रहने की प्रथा जो कनिंघम ने चलायी थी दुर्भाग्य से वही प्रथा कांग्रेस भी चला रही है.
वे आगे लिखते हैं, “ताजमहल में भी सन 1952 के लगभग एस आर राव नाम के पुरातत्वीय अधिकारी को ताजमहल की दीवार में पड़ी दरार में अष्टवसु की मूर्तियाँ दिखाई दी थी किन्तु वरिष्ठ अधिकारीयों की आज्ञा से दरार बंद कर उसी अवस्था में दुबारा चिनवा दी गई. इसी प्रकार टी एन पद्मनाभन नाम के एक दुसरे पुरातत्वीय अधिकारी को ताजमहल में विष्णु की मूर्ति मिली थी. उसे भी वह बात गुप्त रखने को कहा गया. अतः वह भी मौन धारण किए हुए है.”

“एस आर राव जब मेरा शोध ग्रन्थ “ताजमहल हिन्दू मन्दिर है” प्रकशित हुआ तो उसने अपने मित्र एकनाथ रामचंद्र साठे जो बडौदा पुरातत्व विभाग में अधिकारी थे उनको जो बताया वो बात उन्होंने मुझे एक पत्र में लिखकर बताया. उन्होंने बताया कि जब उपर्युक्त दरार वाली दीवार की मरम्मत करने हेतु मिस्त्री को बुलाया गया तो मिस्त्री ने कहा की दरार के आसपास की कई ईंटे निकालकर पूरी दीवार को दुबारा ठीक तरह संवारना होगा.
तदनुसार ईंट निकालने का कार्य जैसे ही आरम्भ हुआ दीवार में से अष्टवसु की मूर्तियाँ निकलती गई. उस घटना से घबराकर राव साहब ने मरम्मत का कार्य रुकवा दिया और दिल्ली के पुरातत्व प्रमुख से बात किया. मसला गम्भीर था, ताजमहल हिन्दू मन्दिर होने की बात फ़ैल जाती, तो हिन्दू उसका कब्जा मंगाते शाहजहाँ मुमताज की कब्रें तुड़वा दी जाती जिससे मुसलमान क्रुद्ध होकर कांग्रेस को वोट नहीं देते.”
“अतः दिल्ली के पुरातत्व प्रमुख ने शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद से मार्गदर्शन माँगा. अबुलकलाम ने प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरु से चर्चा की. हिन्दू देश में हिन्दुओं के पक्ष में निकलने वाली बातों को दबाकर इस्लामतुष्टि करते रहना ही कांग्रेस की नीति रही है. तदनुसार नेहरु ने अबुलकलाम आजाद द्वारा एस आर राव को आदेश दिया की मूर्तियाँ ज्यों की त्यों दीवार में बंद करके अपना मुंह भी बंद रखना ताकि ताजमहल में मूर्तियाँ दबी होने की बात कहीं फ़ैल न जाये. सरकारी अधिकारी होने के नाते एस आर राव ने उस आदेश का पालन कर पुरातत्वीय सत्य को दबा दिया.”
सन 1976 में बंगलौर में मैंने जब एस आर राव से उस घटना की पुष्टि चाही तो उन्होंने बात टाल दी. इसी प्रकार पुरातव विभाग के अधिकारी टी एन पद्मनाभन ने हमारे मद्रास में दिए जा रहे इसी विषय पर व्याख्यान के दौरान कहा कि , “ओक जी ठीक ही तो कहते हैं क्योंकि मैं जब ताजमहल पर तैनात था तब मुझे वहां विष्णु की एक मूर्ति मिली थी.”
सन 1976 के लगभग दिल्ली की तथाकथित कुतुबमीनार में अनेक देवमूर्तियाँ निकलीं, कुछ नीव से तो कुछ दीवारों से. उस समय उस विभाग के मंत्री कांग्रेस के सदस्य भी थे और मुसलमान भी थे (कांग्रेसियों/इंदिरा गाँधी ने मुस्लिम शिक्षा मंत्रियों के साथ पुरातत्व विभाग के मंत्री भी मुस्लिम रखा था ताकि उनके फर्जी एजेंडा इतिहास को पुरातात्विक आधार भी मिल सके). उन्हें यह बात रुचिकर नहीं लगी की कुतुबमीनार परिसर में देवी देवताओं की मूर्तियाँ निकलने की बात जनता तक पहुंचे.

अतः उत्खनन स्थल के इर्दगिर्द एक ऊँची कनात खड़ी कर दी गई. उसके अंदर रात के अँधेरे में तथा दिन में चोरी – छिपे उत्खनन कर जो जो हिन्दू मूर्तियाँ प्राप्त हुई वे चुपके से वहां से दूर कहीं ले जाकर गुम करवा दी गई (संभवतः विदेश स्मगल कर दिया जाता था) ताकि किसी को कभी पता ही न लगे की वे मूर्तियाँ कभी क़ुतुब के परिसर में लगी हुई थी. इस प्रकार हिन्दुओं की सरकार ही हिन्दू विरोधी कार्यवाही करना अपना परम कर्तव्य समझती है.
वे दुःख व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि 85% हिन्दू आबादी वाले भारत में भी हिन्दुओं के पक्ष में जो प्रमाण मिलते हैं उन्हें दबाकर अधिकतर ऐतिहासिक इमारतें मुसलमानों की ही बनाई जाने की प्रथा जो अंग्रेजी अमलदारों ने चालू की वह अभी भी ज्यों की त्यों चलायी जा रही है.
स्रोत: वैदिक विश्वराष्ट्र का इतिहास, भाग 4, पृष्ठ संख्यां 172 से 181
लेखक: स्वर्गीय पुरुषोत्तम नागेश ओक