प्रतापरुद्र (१२८९-१३२३ ईस्वी) जो रुद्रदेव-II के नाम से जाने जाते थे काकतीय वंश के अंतिम राजा थे. उनकी राजधानी वारंगल थी. संभवतः काकतीय राजवंश के वंशज आज रेड्डी जाति के नाम से जाने जाते हैं. ये काकतीय वंश की महारानी रुद्रमादेवी के नाती थे जिन्हें काकतीय वंश के महान शासकों में गिना जाता है. महारानी रुद्रमादेवी के नाम पर दक्षिण भारत में कई फ़िल्में भी बनी है. दक्षिण में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना करने वाले हरिहर और बुक्का इन्ही के समय काकतीय राज्य के खजाने के खजांची थे. आन्ध्र-तेलंगाना के नायक जाति के पूर्वज प्रलय नायक इनके सेनापति एवं अन्य सैन्य अधिकारी थे.
इन्ही के समय शैतान उलुघ खां (भावी मोहम्मद बिन तुगलक) ने काकतियों की राजधानी वारंगल पर आक्रमण किया था. पर प्रतापरूद्र की सेना ने आक्रमणकारी उलुघ खां की सेना को दौड़ा दौड़ा कर मारा. उन्होंने उनके सैन्य शिविर को लूट लिया और उन्हें कोटगिरी तक खदेड़ दिया. उलुघ खां अपनी सेना सहित देवगिरी भाग गया.
मुस्लिम इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी लिखता है, “वारंगल के माटी दुर्ग और पाषाण दुर्ग में बहुत से हिन्दू सैनिक थे. प्रतिदिन तीव्र झड़पें होने लगी. दुर्ग से भीषण अग्नि वर्षा होती थी और दोनों ओर के बहुत लोग मारे जाते थे…. उलुघ खां (मोहम्मद बिन तुगलक) दुर्ग ध्वस्त करने और राय को बंदी बनाने का पक्का इरादा कर लिया था. इस प्रकार चारों ओर से घिरे हताश हिन्दू समझौते की बातें चला रहे थे. तबतक एक महीना हो चुका था और दिल्ली से सुल्तान का कोई भी समाचार नहीं आया….उलुघ खान और उनके दरबारियों ने अनुमान किया की मार्ग की कुछ चौकियां नष्ट हो गयी है….सैनिकों में घबराहट और आशंका फ़ैल गयी…सभी लोगों ने अपना अपना रास्ता नापा… शायर उबैद और शेखजाद-इ-दिमाक्षी मलिक तमर, मलिक तिगिन, मलिक मल्ल अफगान और मलिक काफ़ूर (अन्य दूसरा) के पास गए और (उनसे) कहा की उलुघ खां उनको ईर्ष्या और शंका की नजरों से देखते हैं…अतएव उन लोगों ने भागने का मंसूबा बाँधा….सेना में घबराहट फ़ैल गयी…घिरे हुए लोगों ने आक्रमन करके सामान लूट लिया. उलुघ खां अपने लोगों के साथ देवगिरी तक पीछे हट गया.”
मुस्लिम इतिहासकार इसामी ने भी कुछ इसी प्रकार का वर्णन किया है. इतिहासकार पुरुषोत्तम नागेश ओक बरनी के इस विवरण से निष्कर्ष निकालते हैं कि, “वारंगल के राय प्रतापरुद्र देव (या लद्दर देव) ने गियासुद्दीन की मुस्लिम सेना को बड़ी बुरी तरह हराया. उसने लोगों के भागने का मार्ग बंद कर दिया. पत्राचार और आपूर्ति मार्ग बंद कर दिया. उसने मुस्लिम सेना की हालात इतनी पतली कर दी की उनमें परस्पर तीव्र मतभेद हो गया. शत्रुओं की हिन्दू लूट और हिन्दू सामान एक बार फिर हिन्दुओं को वापिस मिल गया. मुस्लिम आक्रमणकारी दूर देवगिरी खदेड़ दिए गए.”
यह मार इतनी कमरतोड़ और करारी थी कि “सैनिक पस्त हो गए, जिधर मौका मिला भाग निकले….भागने वाले कुलीनों ने भी अपना-अपना रास्ता पकड़ा, उनके सिपाही और गुलाम नष्ट हो गए, उनके घोड़े और हथियार हिन्दुओं के हाथ लगे. मलिक तमार (गलती से) अपने कुछ सवारों के साथ हिन्दू-क्षेत्र में घुस गए और वहीँ खत्म हो गए. हिन्दुओं ने भी मलिक तमार को मारकर उसकी चमड़ी उलुघ खां के पास देवगिरी भेज दिया (जैसे उलुघ खान ने देवगिरी के शासक हरपाल देव का किया था). (उन लोगों ने) मलिक मल्ल अफगान, शायर उबैद आदि बहुत लोगों को बंदी बनाकर देवगिरी भेज दिया ऐसा वर्णन इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी ने किया है.” (इलियड एवं डाउसन, पृष्ठ २३१-२३३)
जब तेलंगाना के वीर हिन्दुओं के हाथों मुस्लिम संकट एवं पराजय का समाचार गियासुद्दीन के पास पहुंचा, तब उसने “बागियों की पत्नियों और पुत्रों को कैद कर लिया.” बरनी ने आगे लिखा है कि “सीरी (श्री) के मैदान में सुल्तान ने एक आम दरबार बुलाया. वहां शायर उबैद और मलिक काफूर को उन्होंने अन्य बंदियों के साथ जिन्दा शूली पर चढ़ा दिया. उन्होंने उन लोगों को ऐसी कठोर सजाएं दी की देखने वाले काफी दिनों तक भय से कांपते और सिहरते थे. सुल्तान के भीषण प्रतिशोध से सारी नगरी थर्रा उठी (वही पृष्ठ २३३).
शैतान उलुघ खां का दुबारा हमला
प्रतापरुद्र को लगा की उन्होंने अंतिम सफलता प्राप्त कर ली है, दिल्ली सल्तनत की मुस्लिम सेना अब दुबारा उनके राज्य पर हमला नहीं करेंगे और वे सैनिक तयारी भंग कर निश्चिन्त हो गये. और यही उनकी सबसे बड़ी गलती साबित हुई.
अन्य उत्तर भारतियों की तरह प्रतापरुद्र भी मुसलमानों को समझने में भूल कर बैठे. उत्तर-पश्चिम और उत्तर भारत की दुर्गति से उन्होंने सीख नहीं लिया था. वे भी अनभिज्ञ ही थे कि मुसलमान बादशाह और सेना काफिरों (गैर मुस्लिमों) का कत्लेआम, उनकी मन्दिरों और मूर्तियों को भंग करने और उनकी स्त्रियों को लूट लेने के लिए ही होते थे. जिस तरह हम हिन्दुओं को बचपन से सिखाया जाता है की सत्कर्म, दान, पूण्य, परोपकार, मानव सेवा से स्वर्ग मिलता है उसी प्रकार मुसलमानों को सिखाया जाता है कि काफिरों का कत्ल करना, उनकी मन्दिरों और मूर्तियों को भंग करना, उनकी स्त्रियों का बलात्कार करना और दर उल हर्ब यानि गैर मुस्लिम देश को इस्लामिक राष्ट्र बनाना ही जन्नत और ७२ हूरों को प्राप्त करने का सर्वोत्तम रास्ता है. इसलिए वे जहाँ भी मौका मिलेगा काफिरों पर हमला करना नहीं छोड़ेंगे.
पराजय की पीड़ा से छटपटाते हुए सुलतान ने “एक शक्तिशाली वाहिनी” देवगिरी में उलुघ खां के पास भेज दिया और एक बार फिर वारंगल पर आक्रमण करने का आदेश दिया. सिर्फ चार महीने बाद ही “तदनुसार वह तैलंग क्षेत्र में प्रविष्ट हो गया और उसने बिदार (बीदर) दुर्ग को जीतकर उसके मुखिया को कैद कर लिया (वही पृष्ठ २३३).
मुसलमानों ने बिदार दुर्ग में काफी तोड़फोड़ मचाई. बिदार के उजाड़ और सुनसान खँडहर अभी भी देखने वालों का दिल दहला देते हैं. धूर्त वामपंथी इतिहास्यकार बिदार दुर्ग के निर्माण का श्रेय कभी इस तो कभी उस मुसलमानों को देते हैं जबकि बरनी स्पष्ट स्वीकार करता है कि बिदार दुर्ग हिन्दू निर्मित दुर्ग था जिसे मुसलमानों ने नष्ट-भ्रष्ट किया था और फिर बाद में जोड़ तोड़ कर काफ़िर चिन्हों से मुक्त कर इस्लामिक आक्रान्ताओं के रहने लायक बनाया गया जैसा कि अरब से मध्य मध्य-पूर्व एशिया और उत्तर भारत में अबतक करते आ रहे थे.
अस्तु, पुरुषोत्तम नागेश ओक लिखते हैं, “फलते फूलते हिन्दू नगर बिदार को नष्ट भ्रष्ट कर इस्लामी महामारी वारंगल की ओर बढ़ी. कुछ मास पूर्व वे लोग यहाँ से मार खाकर, हताश-निराश होकर जान लेकर भागे थे. इस बार उन्होंने धर्मान्तरित हिन्दुओं को बलि का बकरा बनाकर आगे रखा गया. उलुघ खां ने घात लगाकर वारंगल पर हमला किया. सच्चाई से बेखबर वारंगल की सेना हार गयी.” और फिर आतंक और यातनाओं के जोर से मुसलमानों ने इस पर अपना अधिकार कर लिया. प्रताप रूद्र को परिवार सहित बंदी बनाकर दिल्ली भेज दिया गया और वारंगल में हत्या, बलात्कार, मन्दिर-मूर्ति भंजन और जबरन धरमांतरण का वही विनाश लीला प्रारम्भ हो गया.
बरनी लिखता है, “अपने सारे कुलीनों, अधिकारियों, नारियों, बच्चों, हाथियों और घोड़ों के रथ के साथ लद्दर देव (प्रतापरुद्र देव) अधिकार में आ गये. विजय की सूचना दिल्ली भेज दी गयी. वारंगल का नाम बदलकर सुल्तानपुर रख दिया गया और सभी बंदियों को दिल्ली गियासुद्दीन तुगलक के पास भेज दिया गया.”
विभिन्न इतिहासकारों और अभिलेखों के अनुसार राजा प्रतापरुद्र ने शोक और ग्लानी से रास्ते में ही आत्महत्या कर लिया और इस प्रकार काकतीय वंश का दक्षिण भारत से सदा केलिए अंत हो गया. उनके राज्य को दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया. उलुघ खां ने वारंगल का नाम सुल्तानपुर करने के बाद कुछ दिनों तक वहां रुका. १३२४ ईस्वी में उसे दिल्ली बुला लिया गया. वह वारंगल का शासन नव धर्मान्तरित मुस्लिम मलिक मकबूल के हाथों में सौंपकर, जो पहले काकतीय सेनानायक हुआ करता था, दिल्ली चला गया. उसका हिन्दू नाम नागया गना विभुदू था.
वारंगल के वीरों का भयानक विद्रोह
इन परिस्थियों में भी आन्ध्र-तेलंगाना की जनता ने हार नहीं मानी. उन्होंने अपने अपने स्तर से आक्रमणकारी मुसलमानों का विरोध करना शुरू किया. उन्हीं में से एक मुनुसुरी कपया नायक (Musunuri Kapaya Nayak) थे जिन्होंने विद्रोहियों को संगठित कर पूरी ताकत से आक्रमणकारी मुसलमानों का विरोध किया. वे मुनुसुरी प्रलय नायक के भतीजे थे.
मुनुसुरी कपया नायक ने एक विशाल हिन्दू सेना का संगठन किया. उनकी सेना में ७५ नायक थे. शैतान उलुघ खां, जो अब अपने पिता गियासुद्दीन तुगलक की हत्या कर मुहम्मद बिन तुगलक के नाम से खुद दिल्ली का सुल्तान बन गया था के समय कई राज्यों में विद्रोह हुआ. उस परिस्थिति का लाभ उठाते हुए प्रलय नायक ने आधुनिक आन्ध्र प्रदेश और मुनुसुरी कपया नायक ने तेलंगाना प्रदेश में विद्रोह का झंडा बुलंद किया.
प्रलय नायक ने १३२८ में समुद्र तटीय आंध्रप्रदेश को मुसलमानों से मुक्त करा लिया. १३२९ में उन्होंने चालुक्य राजकुमार सोमदेव के साथ मिलकर कुर्नुल (कोनदनवोलु) को केंद्र बनाकर बेल्लुर और रायलसीमा क्षेत्र में आक्रमणकारी मुसलमानों पर हमला शुरू कर दिया. भयानक युद्ध के बाद उन्होंने फिर से अनेगोंडी, मुद्गल, मुसलिमादुगु, सताणी कोट, एतागिरी, कुन्ती और सारा दुर्ग को वापस ले लिया. वीर बल्लाल ने काम्पिली पर हमला किया. काम्पिल्य के गवर्नर मलिक मोहम्मद को अब एक साथ दो दो मोर्चों पर लड़ना पड़ रहा था. एक तरफ वीर बल्लाल की सेना हमला करता तो दूसरी तरफ से राजकुमार सोमदेव की सेना. अंततः सोमदेव मलिक मोहम्मद को हराने में सफल हुए और उसे उसके ६००० सैनिकों सहित बंदी बना लिया.
आन्ध्र-तेलंगाना को मुस्लिम आक्रान्ताओं से मुक्ति
१३३३ ईस्वी तक आन्ध्र में मुसलमानों की स्थिति बेहद खराब हो गयी. वे वारंगल की ओर भागने लगे जहाँ मलिक मकबूल गवर्नर था. १३३४-३५ में मुहम्मद तुगलक दिल्ली से इन विद्रोहियों को कुचलने केलिए चला पर उस समय आन्ध्र में हैजे का प्रसार हो गया और उसकी सेना हैजे का शिकार हो मरने लगी. खुद मोहम्मद बिन तुगलक को भी कै-दस्त होना शुरू हो गया. वह हैजे की महामारी से मरने के डर से दौलातावाद होते हुए दिल्ली वापस भाग गया.
१३३६ तक वारंगल के मुक्ति का रास्ता भी साफ हो गया था क्योंकि कपया नायक की सेना बबंडर की तरह तेलंगाना में मुस्लिम आक्रमणकारियों पर टूट पड़े थे और धीरे धीरे उन क्षेत्रों को अपने अधिकार में लेना शुरू कर दिया.
फरिश्ता के अनुसार इसी समय मुनुसुरी कपया नायक ने आधुनिक कर्नाटक में होयसल के राजा बीरबल्लाल तृतीय से सहायता की अपील की और कुछ शर्तों के बाद उन्होंने सहायता देना स्वीकार कर लिया. फिर नायक बन्धुओं और वीर बल्लाल ने मिलकर मुसलमानों को १३३६ में मार भगाया. वारंगल के गवर्नर इमाद-उल-मुल्क दौलताबाद भाग गया. धर्मान्तरित मुसलमान मलिक मकबूल डरकर दिल्ली भाग गया. (Ferishta, Tarikh-i-farishti)
इतिहासकार पुरुषोत्तम नागेश ओक लिखते हैं, “सुल्तान के खून से चिपचिपे हाथ अभी सूखे भी नहीं थे कि छठे विद्रोह का समाचार भी आ पहुंचा. वारंगल के वीर हिन्दुओं ने विदेशी मुस्लिम भेड़ियों को दबोच लिया था. एक वीर हिन्दू देशभक्त कान्य (कपया) नायक ने मुस्लिम बघेरों को हिन्दू तलवार का स्वाद चखाने का निश्चय कर लिया. सुल्तान का मुस्लिम गुर्गा मलिक काबुल इतना भयभीत हो गया था कि बिना पीछे देखे वह सीधा दिल्ली भाग आया.. कान्य नायक का प्रत्याक्रमण इतना सफल रहा की एक ही वार में आन्ध्र का मुस्लिम फंदा कटकर निचे गिर पड़ा. आन्ध्र मुस्लिम लूट-पाट से पुर्णतः मुक्त हो गया. आशा है कि वारंगल के इस महान हिन्दू देशभक्त की याद वहां के निवासियों के दिल में अब भी ताजा होगी.”
नायक बन्धुओं ने प्राचीन गौरव और वैदिक शिक्षा और संस्कृति को फिर से स्थापित किया. उन्होंने उन मन्दिरों को भी पुनर्प्रतिष्ठित किया जिन्हें मुसलमानों ने नष्ट भ्रष्ट कर दिया था. कपया नायक ने फिर अन्य हिन्दू विद्रोहियों की भी मुस्लिम आक्रमणकारियों के विरुद्ध सहायता और सहयोग दिया. लगभग इसी समय हरिहर और बुक्का ने भी तेलंगाना को मुसलमानों से मुक्त कर विश्व प्रसिद्द विजय नगर साम्राज्य की स्थापना की.
आधार ग्रन्थ:
भारत में मुस्लिम सुल्तान, लेखक पुरुषोत्तम नागेश ओक
विकिपीडिया प्रतापरुद्र
विकिपीडिया कपया नायक आदि