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कांग्रेस की स्थापना भारत में ब्रिटिश राज को स्थायी बनाने केलिए हुआ था

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इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना सन १९८५ में अंग्रेजों ने की थी ताकि भारतीय लोगों को १८५७ की तरह क्रन्तिकारी और हिंसक विद्रोह करने से रोका जा सके. कांग्रेस के संस्थापक ए.ओ.ह्यूम को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान 17 जून 1857 को उत्तर प्रदेश के इटावा मे जंगे आजादी के सिपाहियों से जान बचाने के लिये मुंह में कालिख लगा, साड़ी पहन और बुर्का डालकर ग्रामीण महिला का वेष धारण कर भागना पड़ा था. उस समय वे इटावा के मजिस्ट्रेट एवं कलक्टर थे. तब से वे ऐसी क्रांति की पुनरावृत्ति होने के डर से अत्यधिक भयभीत रहते थे. (सावरकर समग्र, खंड एक लेखक वीर सावरकर)

एनीबेसेण्ट ने लिखा है, ह्यूम यह अच्छी तरह जानता था कि लाखों भारतीय अत्यन्त दुःखी होकर भूखों मर रहे थे और इतना होने पर भी वे थोड़े से शासक वर्ग के लिए सब प्रकार का भोग साधन और विलास की सामग्री उत्पन्न कर रहे थे. उनको पुलिस की गुप्त रिपोर्ट पढ़ने का अवसर मिला था और वह अन्दरूनी असन्तोष की कहानी को जानता था तथा उसे भूमिगत षड्यन्त्र, गतिविधियों और सार्वजनिक असंतोष की लहर का आभास था, जो 1877 के अकाल के पश्चात् एक बुहत बड़ा खतरा बन गया था. इसीलिए उसने कांग्रेस जैसे सन्गठन की आवश्यकता मह्सूस की थी.

एनी बेसेंट

इस प्रकार कांग्रेस का निर्माण जनता के असन्तोष के कारण सशस्त्र क्रांति को रोकने के उद्देश्य से भय के रूप में हुआ था. सर विलियम वेडरबर्न ने एक बार ह्यूम से कहा था, भारत में असन्तोष की बढ़ती हुई शक्तियों से बचने के लिए एक अभय दीप की आवश्यकता है और कांग्रेस से बढ़कर अभय दीप दूसरी चीज नहीं हो सकती थी. लाला लाजपतराय तथा नन्दलाल चटर्जी ने इस मत की पुष्टि की है.

लाला लाजपतराय ने यंग इण्डिया में लिखा है, राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का प्रमुख उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य को खतरे से बचाना था. भारत की राजनैतिक स्वतन्त्रता के लिए प्रयास करना नहीं, अंग्रेजी साम्राज्य के हितों की पुष्टि करना था. (आधुनिक भारत, लेखक विद्याधर महाजन)

स्वयं ह्यूम ने कहा था, हमारे कार्यों (कुशासन, लूट, अत्याचार) के परिणामस्वरूप उत्पन्न असन्तोष की बढ़ती हुई शक्तियों से बचाव के लिए सुरक्षा साधन की आवश्यकता थी, जिसकी रचना हमने इण्डियन नेशनल कांग्रेस के रूप में की. इससे अधिक प्रभावशाली सुरक्षा साधन का आयोजन असम्भव था.

मि. वेडरबर्न ने लिखा है, ह्यूम साहब की यह योजना क्रान्ति का भय दूर करने तथा भारतीयों में उमड़ती राष्ट्रीयता की भावना को रोकने के उद्देश्य से बनाई गई थी.

डॉ. अयोध्या सिंह लिखते हैं, “कांग्रेस राष्ट्रीय आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि भारतीय क्रान्ति को रोकने का अस्त्र बनाने के लिए पैदा की गई. ब्रिटिश शासको ने अपने साम्राज्य की रक्षा के लिए ऐसा अस्त्र पैदा करना जरूरी समझा था”.

1889 की इंडियन नेशनल कांग्रेस की रिपोर्ट में भी कहा गया था, “कांग्रेस की यह महत्ता है कि उसने भारत में फैली हुई क्रांतिकारी संस्थाओं को दबा दिया और राजनीतिक असन्तोष को वैधानिक उपायों द्वारा व्यक्त करने का साधन उपस्थित किया”.

इतना ही नहीं, कांग्रेस की स्थापना के लिए जब आकलैंड ने ह्यूम की आलोचना की तो ह्यूम ने पत्र लिखकर उसे समझाया कि, “हिन्दुस्थान में सशस्त्र क्रांति की जो प्रवृत्ति बढ़ रही है, उसे यदि समय पर ही कांग्रेस की ब्रिटिश-निष्ठा की बेड़ियाँ नहीं पहनाई जाती तो सन १८५७ जैसे सशस्त्र युद्ध का कोई संकट अंग्रेजी सत्ता को फिर से आ घेरता. उस तरह के सशस्त्र क्रांतीवाद से भारतीय लोगों को विमुख करने के लिए ही तो कांग्रेस का गठन किया गया है. ऐसे में उस कांग्रेस से ब्रिटिश शासन को कौन सा खतरा हो सकता है? ब्रिटिश सत्ता को हिन्दुस्थान में सुरक्षित रखने के लिए ही इसकी आवश्यकता था”. (सावरकर समग्र, खंड एक लेखक वीर सावरकर)

कांग्रेस का अधिवेशन

ए ओ ह्युम

कांग्रेस के संस्थापक अंग्रेज ए ओ ह्यूम को कांग्रेस का महासचिव नियुक्त किया गया. वे पुरे २२ वर्षों तक कांग्रेस के महासचिव पद पर रहे. ह्यूम चाहते थे कि कांग्रेस के अधिवेशन की अध्यक्षता कोई अंग्रेज अधिकारी करे, अंग्रेजभक्त कांग्रेस के भारतीय सदस्य भी यही चाहते थे परन्तु डफरिन कुटनीतिक कारणों से इसे पूरी तरह भारतीय संस्था प्रदर्शित करना चाहते थे. इसलिए कांग्रेस के अधिवेशन की प्रथम अध्यक्ष की खोज अंग्रेजी राज और अंग्रेजियत के दीवाने एक धर्मान्तरित बंगाली ईसाई व्योमकेश बनर्जी पर जाकर खत्म हुई. उन्होंने अधिवेशन की शुरुआत निम्न वाक्यों से की:

व्योमेश चन्द्र बनर्जी

“We pledge our unstinted and unswerving loyalty to Her Majesty the Queen Victoria, the Empress of India” और सब ने एक सुर से इसका उच्च नाद किया. इस जयनाद से उत्साहित ह्यूम ने कहा देखिये अब अंत में सिर्फ तिन बार ही नहीं अपितु तिन के तिन गुना और सम्भव हो तो उसके भी तिन गुना बार भारत सम्राज्ञी विक्टोरिया की जय जयकार करें. और ऐसा ही हुआ. आगे के कई वर्षों में भी कांग्रेस के हर अधिवेशन के अंत में हिन्द-सम्राज्ञी या सम्राट की जय जयकार प्रतिनिधियों तथा दर्शकों का गला सूखने तक चिल्ला-चिल्लाकर की जाती रही.

ब्रिटिशों के उपकार, हमारा मैग्नाकार्टा, हमारी सम्राज्ञी विक्टोरिया, मई-बाप सरकार, ब्रिटिश साम्राज्य ईश्वरीय वरदान, हम केवल उसके राजनिष्ठ प्रजाजन, ब्रिटिश सम्राज्य चिरायु हो इत्यादि उदघोषणाये कांग्रेस अधिवेशन का मुख्य हिस्सा होता था. (सावरकर समग्र, खंड एक लेखक वीर सावरकर)

राजभक्त कांग्रेस

कांग्रेस के उदारवादी नेताओं पर पाश्चात्य शिक्षा एवं संस्कृति का बहुत प्रभाव था. वे राजभक्त थे. उनकी यह धारणा थी कि ब्रिटिश शासन द्वारा भारत का आधुनिकीकरण सम्भव हो पाया है. अतः ब्रिटिश शासन भारत के लिए वरदान है.

गोपाल कृष्ण गोखले (गाँधी के राजनैतिक गुरु)

गोपाल कृष्ण गोखले ने जुलाई, 1909 में पूना में बोलते हुए कहा था, “हमारा सार्वजनिक जीवन ब्रिटिश शासन की निष्कपट एवं सच्ची राजभक्ति से पूर्ण स्वीकृति पर आधारित है, क्योंकि हम इस बात को महसूस करते हैं कि एक मात्र ब्रिटिश शासन ही इस देश में शान्ति एवं सुव्यवस्था को कायम रखने में समर्थ है और जिसके बिना भारत जैसे देश में, जहाँ अनेक धर्मो को मानने वाले और अनेक भाषाओं को बोलने वाले रहते हैं, एक राष्ट्र का निर्माण नहीं हो सकता. हमें इस बात को महसूस करना चाहिए कि यद्यपि विदेशी होने के कारण ब्रिटिश शासन में कुछ अवश्यम्भावी दोष है, तथापि ब्रिटिश शासन कुल मिलाकर हम भारतवासियों के लिए प्रगति का कारण सिद्ध हुआ है” (आधुनिक भारत, लेखक विद्याधर महाजन)

दादा भाई नौरोजी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा, “ब्रिटिश लोगों की स्वाभाविक न्यायबुद्धि पर एवं उनके सभ्यतापूर्ण व्यवहार पर हमने जो निष्ठा प्रकट की है, वह गलत नहीं है. ब्रिटिशों जैसे न्यायप्रिय और सदाचारी लोगों से व्यवहार करते हुए मुझे कभी भी आशंका नहीं होती.”

दादाभाई नौरोजी

उन्होंने सभा को सम्बोधित करते हुए पूछा, “हम यहाँ किस कार्य के लिए एकत्र हुए हैं? क्या कांग्रेस ब्रिटिश द्रोह का प्रयास करनेवाला या ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह करनेवाला संगठन है?

सभा ने जबाब दिया, नहीं! नहीं!!

उन्होंने फिर पूछा, “या वह हिंदुस्तान में ब्रिटिश राज अधिक मजबूत करने के लिए नींव में डाली जानेवाली एक मजबूत शिला है?

सभा ने जबाब दिया, हाँ हाँ ऐसा ही है!!

….तो फिर साहस के साथ कहें की हम हैं राजनिष्ठ! कट्टर ब्रिटिश राजनिष्ठ!!”

(सावरकर समग्र, खंड एक लेखक वीर सावरकर)

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी

इसी प्रकार सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने भी ब्रिटिश सरकार के प्रति राजभक्ति प्रकट करते हुए कहा, ब्रिटिश सरकार के साथ सम्बन्ध बनाए रखने के लिए हमें अनन्य राज-भक्ति के साथ कार्य करना चाहिए…हम ब्रिटिश सरकार के साथ सम्बन्ध-विच्छेदन करने की बात नहीं सोच रहे हैं, वरन् उसके साथ स्थायी सम्बन्ध बनाऐ रखना चाहते हैं, जिसने शेष संसार के सामने स्वतन्त्र संस्थाओ का आदर्श उपस्थित किया है.

फिरोज़शाह मेहता अंग्रेज़ों के बहुत ही प्रशंसक थे. 1890 ई. में उन्होंने कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन की अध्यक्षता की. इस अवसर पर उन्होंने अपने भाषण में कहा था कि, “यदि आप अंग्रेज़ों के सामाजिक, नैतिक, मानसिक और राजनीतिक गुणों को अपनायेंगे तो भारत और ब्रिटेन के बीच सदा अच्छा सम्बन्ध रहेगा.” 1904 की मुम्बई कांग्रेस के स्वागताध्यक्ष के रूप में भाषण करते हुए उन्होंने कहा कि, “मैंने दुनिया को नहीं बनाया, जिसने इसे बनाया है, वह स्वयं इसे सम्भालेगा. इसीलिए मैं तो अंग्रेज़ी राज को ईश्वर की देन मानता हूँ” (आधुनिक भारत, लेखक विद्याधर महाजन)

इंडियन नेशनल कांग्रेस
फिरोज शाह मेहता

कांग्रेस के तीसरे अधिवेशन में सर टी. माधवराव ने कहा था, “कांग्रेस ब्रिटिश शासन का सर्वोच्च शिखर और ब्रिटिश जाति का कीर्तिमुकुट है”.

ब्रिटिश जाति की न्यायप्रियता में कांग्रेस की आस्था

कांग्रेसी नेताओं को अंग्रेज जाति की न्यायप्रियता में गहरी आस्था थी. उनका मानना था कि स्वयं अंग्रेज स्वतन्त्रता प्रेमी हैं एवं यह विश्वास होने पर कि भारतीय लोग स्वशासन के योग्य हो गए हैं, वे स्वयं भारतीयों को स्वशासन सौंप देंगे. इस विश्वास से कांग्रेस सरकार की सहानुभूति एवं ब्रिटिश जनता का समर्थन पाने के लिए प्रयास करती रहती थी.

डॉ. पट्टाभि सीतारमैया के अनुसार, “उदारवादी नेता इस बात पर विश्वास करते थे कि अंग्रेज स्वभाव से ही न्यायप्रिय होते हैं” अतः यदि उन्हें भारतीय दृष्टिकोण का सही ज्ञान करा दिया जाए, तो वे भारतीय दृष्टिकोण को स्वीकार कर लेंगे”.

गोपालकृष्ण गोखले ने कहा था, “मुझे इस बात में तनिक भी सन्देह नहीं है कि ब्रिटिश अन्त में जाकर हमारी पुकार पर अवश्य ध्यान देंगे”

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के अनुसार, “अंग्रेजों की न्याय, दया तथा बुद्धि की भावना में हमारा दृढ़ विश्वास है. संसार की महानतम् प्रतिनिधि सभा, संसदों की जननी, ब्रिटिश कॉमन्स सभा के प्रति हमारे हृदय में श्रद्धा है. अंग्रेजों ने सर्वत्र प्रतिनिध्यात्मक आदर्श पर ही शासन की रचना की है.

कांग्रेस के 12वें अधिवेशन में रहीमतुल्ला सयानी ने कहा, “अंग्रेजों से बढ़कर सच्चरित्र तथा सच्ची जाति इस सूर्य के प्रकाश के नीचे नहीं बसती”.

कांग्रेस के छठे अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए फीरोजशाह मेहता ने कहा था, “इंग्लैण्ड और भारत का सम्बन्ध इन दोनों देशों और समस्त विश्‍व की आने वाली पीढ़ियों के लिए वरदान होगा” कांग्रेस के 1906 के अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए दादाभाई नौरोजी ने कहा, “शान्ति प्रिय विधि ही इंग्लैण्ड के राजनीतिक, सामाजिक और औद्योगिक इतिहास की जीवन और आत्मा है. इसलिए हमें भी उस सभ्य, शान्तिप्रिय और नैतिक शक्ति रूपी अस्त्र को प्रयोग में लाना चाहिए.  (आधुनिक भारत, लेखक विद्याधर महाजन)

गाँधी और कांग्रेस ने कभी भारत की आजादी की मांग नहीं की

श्रीमती एनीबेसेण्ट के शब्दों में, “इस युग के नेता अपने को ब्रिटिश प्रजा मानने में गौरव का अनुभव करते थे”.

अयोध्या सिंह के शब्दों में, “कांग्रेसी नेता देश की स्वतन्त्रता और ब्रिटिश राज्य के अन्त की माँग नहीं करते थे. स्वतन्त्रता और स्वाधीन भारत उनका लक्ष्य भी न था. कांग्रेस नेताओं ने बार-बार स्पष्ट कहा कि वे क्रान्ति नहीं चाहते, स्वतन्त्रता नहीं चाहते, नया संविधान भी नहीं चाहते, सिर्फ केन्द्र और प्रान्तों की कौंसिलों में भारतीयों के प्रतिनिधि चाहते हैं.”

अयोध्या सिंह ने बिलकुल सही व्याख्या किया है. वास्तव में गाँधी के आन्दोलन का उद्देश्य ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति से जनता को भटकाना था और ब्रिटिश सरकार के अधीन ब्रिटिश शासन में छोटे मोटे पदों पर कांग्रेस की भागीदारी सुनिश्चित करना था जिसे वे सुराज या स्वशासन के शब्दों में लपेटकर प्रस्तुत करते थे जिसे भारत की भोली भाली जनता आजादी समझकर उनके पीछे हो लेती थी. सुराज या स्वशासन का मतलब आजादी नहीं बल्कि सत्ता में अधिक भागीदारी होता है.

कांग्रेस में जो कोई भी नेता बन जाता वह कुछ दिन बाद किसी ब्रिटिश शासन के विभाग के उच्च पद पर अंग्रेजों द्वारा नियुक्त कर दिया जाता. सर, रायबहादुर आदि कोई न कोई मानद अलंकरण सरकार की ओर से उसे दिया जाता था. किसी न किसी शासकीय समिति या सलाहकार समिति में कांग्रेस के इन ब्रिटिश निष्ठ नेताओं को लिया जाता था और ब्रिटिशों की ओर से मिलनेवाली इस राज्य मान्यता के प्रसाद चिन्हों के सम्बन्ध में काग्रेस बहुत गौरवान्वित होती थी. (सावरकर समग्र, खंड एक लेखक वीर सावरकर)

कांग्रेसी अपनी माँगों को नरम भाषा में प्रार्थना-पत्रों, स्मृति-पत्रों एव शिष्ट मण्डलों के द्वारा सरकार के समक्ष रखते थे. गर्म दल वालों ने उसे राजनीतिक भिक्षावृत्ति कह कर पुकारा. गुरूमुख निहालसिंह ने लिखा है, “सम्भवतः कांग्रेस के नेताओं में स्वतन्त्रता के लिए व्यक्तिगत बलिदान करने और आपत्तियाँ सहन करने को कोई तैयार नहीं था. इस प्रकार कांग्रेसी पूर्णतः विफल रहे. वास्तविकता तो यह थी कि अंग्रेज दबाव और शक्ति की भाषा समझते थे, प्रार्थना की नहीं.”

कांग्रेस भारत की आजादी में बाधक थी

ब्रिटिश एक तरफ आस्ट्रिया और फ़्रांस के उपनिवेशवाद का विरोध करते थे और उनके क्रांतिकारियों को इंग्लैण्ड में शरण देते थे पर हिन्दुस्थान पर अपनी पकड़ मजबूत बनाये रखने के लिए अत्याचार और आतंक का सहारा लेते थे. इंगलैंड के इस दोहरी रवैया के विरुद्ध यूरोप और अमेरिका के लोग कड़ी टिपण्णी करते थे और हिन्दुस्थान को आजाद करने का दबाब डालते थे. परन्तु इंडियन नेशनल कांग्रेस बन जाने के बाद ऐसी प्रखर टिका करनेवालों का मुंह बंद करने का एक सुन्दर साधन इंगलैंड को मिल गया. वास्तव में कांग्रेस के स्थापना का एक उद्देश्य यह भी था. वे इन आलोचनाओं का सीधा उत्तर यों देने लगे थे, “देखिये, कांग्रेस के प्रस्ताव यह दर्शाते हैं कि हिन्दुस्थान हमसे अलग होना ही नहीं चाहता. केवल इसीलिए हम वहां राज कर रहे हैं और हिन्दुस्थान की सहमती से हिन्दुस्थान के हितार्थ राज करना हम ब्रिटिशों का नैतिक कर्तव्य है.”

इसकी पुष्टि १९०५ में ग्रीनिच इथिकल सोसायटी में दिए गये वेडरबर्न के भाषण से भी होती है. उन्होंने कहा, “इटली के लोगों ने कभी भी ऑस्ट्रिया के शासन को स्वीकार नहीं किया. उन्होंने ऑस्ट्रिया के शासन का परदासता समझकर बहिष्कार किया. परन्तु भारतीय लोगों ने तो हमारी ब्रिटिश सत्ता का बहिष्कार नहीं किया है. इतना ही नहीं, ब्रिटिशों की राजसत्ता को ही उन्होंने स्वराज मानकर स्वीकार किया है. वे स्वयम आगे बढ़कर हमारी ब्रिटिश सरकार से सहयोग कर रहे हैं. भारतीय लोगों की प्रतिनिधि-संस्था इंडियन नेशनल कांग्रेस के प्रस्ताव इसके साक्षी हैं. भारतीय प्रजा के दुःख दूर करने और लोगों को सम्पन्न तथा संतुष्ट रखने के कार्य में कान्ग्रेस का सहयोग हमें प्राप्त है. कांग्रेस चाहती है कि ब्रिटिश सत्ता इसीलिए लोकप्रिय प्रबल और अटल रहे.” (सावरकर समग्र, खंड एक लेखक वीर सावरकर)

वास्तव में जिसे हिन्दुस्थान की राष्ट्रिय सभा (INC) कहा जाता था वह अपनी ख़ुशी से हिन्दुस्थान की स्वतंत्रता और राजासन छीन लेनेवाली ब्रिटिश सत्ता को हमारी सम्राज्ञी कहकर चंवर डुलाने में सुख और सम्मान समझे-यह देखकर यूरोप लज्जित था, परन्तु हिंदुस्तान राष्ट्र की प्रतिनिधि कही जानेवाली कांग्रेस को उस दासता का कष्ट नहीं था. उलटे उसे वह ईश्वरीय वरदान लगता था- वीर सावरकर

इस शर्मनाक स्थिति का उद्घाटन क्रन्तिकारी श्यामकृष्ण वर्मा के इंडियन हाउस के उद्घाटन समारोह में मुख्य अतिथि श्री हिंडमन के शब्दों में होता है. उन्होंने अपने भाषण में कहा, “ब्रिटेन के प्रति राजनिष्ठा से रहने का अर्थ हिंदुस्तान के प्रति देशद्रोह करने जैसा है. ऐसा होते हुए भी कई भारतियों द्वारा ब्रिटिश सत्ता के लिए राजनिष्ठा देखकर घृणा होती है. या तो वह लोगों का ढोंग होगा अन्यथा अज्ञान…भारतीय लोगों ने आज तक अपनी बेड़ियों को ही अलंकार मानकर गले लगाया था…स्वतः इंग्लैण्ड से आप कुछ भी आशा न करें. मध्यमार्गी नहीं, जो संकल्पशील है एवं हठवादी हैं वे ही हिन्दुस्थान को अपने पराक्रम से स्वतंत्र कर सकेंगे. यह इंडिया हाउस संस्था हिन्दुस्थान को आजाद करने के मार्ग में एक बहुत बड़ा कदम है.” (सावरकर समग्र, खंड एक लेखक वीर सावरकर)

आधार ग्रन्थ:

  1. आधुनिक भारत, लेखक विद्याधर महाजन
  2. सावरकर समग्र, खंड-१, लेखक वीर सावरकर
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4 thoughts on “कांग्रेस की स्थापना भारत में ब्रिटिश राज को स्थायी बनाने केलिए हुआ था

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