रानी दुर्गावती महोबा के राजा कीर्तिसिंह चंदेल की एकमात्र संतान थीं. चंदेल लोधी राजपूत वंश की शाखा का ही एक भाग है. बांदा जिले के कालिंजर दुर्ग में ५ अक्तूबर, १५२४ ईसवी की दुर्गाष्टमी पर जन्म के कारण उनका नाम दुर्गावती रखा गया. नाम के अनुरूप ही वह तेज, साहस, शौर्य और सुन्दरता के कारण प्रसिद्ध हो गयी. दुर्गावती को तीर तथा बंदूक चलाने का अच्छा अभ्यास था. चीते के शिकार में इनकी विशेष रुचि थी.
कालिंजर का युद्ध
१५४५ ईस्वी कि बात है. बाबर कि औलाद हुमायूँ को हराकर बिहार का मुस्लिम शासक शेरशाह सूरी जो दिल्ली का बादशाह बन गया था, उसने महोबा के कालिंजर दुर्ग पर हमला किया. महोबा नरेश महाराज कीर्तिसिंह चंदेल शेरशाह सूरी की सेनाओं से भीषण युद्ध करते हुए बहुत गहरे घाव खा गए. चंदेल सैनिक उन्हें मूच्छित अवस्था में पालकी में डालकर किसी प्रकार दुर्ग में ले आए.
शेरशाह के सैनिक दुर्ग के सुदृढ़ कपाटों को भंग करने का प्रयत्न कर रहे थे. दुर्ग के पीछे की दीवार जो अपेक्षाकृत कम ऊंची थी, उसके नीचे सूरी के सैनिक बारूद की मोटी तह बिछने लगे. दुर्ग से अपने विरोध में कोई प्रतिक्रिया न देखकर, उनका साहस बढ़ता जा रहा था. ऐसा लग रहा था कि भारत का सबसे प्राचीन, सबसे मजबूत और सबसे अनोखा देव निर्मित यह कालिंजर दुर्ग जल्द ही ढह जायेगा.
दुर्ग के अंदर नारियों के सम्मान की रक्षा के लिए लकड़ियों के ढेर लगने लगे. मुस्लिमों से अपनी अस्मत कि रक्षा केलिए प्रत्येक आयु की कन्याओं को लेकर नारियां वहां एकत्रित होने लगीं. प्रत्येक चौराहे पर रखे केसर के घोल में रंग-रौग कर पुरुष केसरिया परिधान धारण कर अंतिम युद्ध कि तैयारी करने लगे. किसी भी क्षण बारूद के भीषण विस्फोट से गढ़ की दीवार टूट कर शेरशाह के मुस्लिम सैनिकों को प्रवेश का मार्ग प्रदान कर सकती थी.
तभी लोगों ने देखा कि पूर्ण श्रृंगार करके महाराज कुमारी दुर्गावती अपनी पाँच-सात समवयस्क सहेलियों के साथ सिंहवाहिनी भवानी की गति से बढ़ती चली आ रही है. वह आदेशात्मक स्वर से बोली,
“न कोई इन लकड़ियों के पर्वताकार ढेर में पलीता लगाए और न कोई गढ़ के कपाट खोलकर बाहर निकलने का विचार करे. हम दुर्ग शिखर पर जा रही हैं. महाराजा को यद्यपि घाव गंभीर लगे हैं किन्तु वे जीवित हैं.”
कहती हुई राजकुमारी दुर्गावती अजेय गढ़ के प्रमुख शिखर की ओर बढ़ चली. देखा कि बारूद बिछाने का कार्य स्वयं शेरशाह सूरी की निगरानी में विद्युत्गति से हो रहा है. वह सूरी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए ताली बजाकर हंस पड़ी और वहीं से ऊंचे स्वर से बोली,
“कालिंजर के महाराजा कुछ ही क्षण के मेहमान हैं. कालिंजर का राजसिंहासन हमारे अधिकार में है. बोलो तुम क्या चाहते हो? मैं तुम्हारा वरण करने को तैयार हूँ. इसके अतिरिक्त तुम्हारी और जो कोई शर्त हो, वह लिखकर अपने किसी दूत को भेज दो अथवा हम यहीं से एक डोल लटका रही हैं, उसमें रखा दो. कालिंजर अपनी शासिका सहित तुम्हें अपना शासक स्वीकार करने को तैयार है तो व्यर्थ के खून-खराबे से बचना उचित होगा. अपने वजीर से कहो संधि पत्र तैयार करे.”
शेरशाह मारा गया
शेरशाह दुर्गावती के शब्द सुनकर अपने वजीरों से परामर्श करने लगा. संधिपत्र तैयार होने लगा, किंतु राजकुमारी दुर्गावती से उनका बारूद बिछाने का कार्य गोपनीय रूप से होता हुआ छिपा नहीं रह सका. कालिंजर के सैनिक भी उसी गोपनीय रीति से धीरे-धीरे किंतु तीव्र गति से बारूद को भिगोने लगे. कालिंजर के सैनिक मुख्य द्वार के ऊपर मोटी-मोटी कनातें लगाकर तेल-पानी खौलाने लगे. बड़ी-बड़ी शिलाएँ एकत्रित करने लगे. प्रत्येक बुर्ज पर तीरन्दाजों को ढेरों बाण और पलीते दे-देकर बैठाया जाने लगा.
संधिपत्र तैयार कर शेरशाह विजेता कि तरह अपने सैनिकों सहित दुर्ग के भीतर प्रवेश करने लिए बढ़ा. शेरशाह के स्वागत में दुर्ग के दरवाजे खोल दिए गए. परन्तु दुर्ग तक पहुंचने से पहले ही स्थिति बदल गयी. दुर्ग के दरवाजे बंद हो गये. और दुर्ग के उपर से तीरों कि बौछार होने लगी. बड़ी बड़ी शिलाएँ, खौलता पानी और गर्म तेल कि बर्षा होने लगी. शेरशाह दगा दगा कहते हुए ज्यों ही बारूदी मंच से उतरने लगा, त्यों ही उसके पीछे राजकुमारी दुर्गा और उनकी सखियों के धनुषों से धधकते हुए अग्नि बाण गिरने लगे. उसके ही बिछाए बारूद से सौ-सौ लपलपाती जिहवाओं वाला गगनचुंबी लपटें लहराने लगा और बारूद कि उसी आग में दुष्ट शेरशाह अपने अंगरक्षकों सहित झुलसकर मर गया.
फिर चंदेल कालिंजर दुर्ग का द्वार खोलकर शेरशाह के सैनिकों पर बाज की भाँत टूट पड़े. २२ मई १५४५ को शेरशाह मार दिया गया और उसके सैनिकों को गाजर मूली कि तरह काट दिया गया. ऐसा वीरांगना दुर्गावती के कारण ही सम्भव हो सका. रानी दुर्गावती ने हमेशा छल कपट से जितनेवाले मुसलमानों को उसी कि भाषा में जबाब देकर मिशाल कायम किया था.
गोंडवाना की रानी वीरांगना दुर्गावती
१५४२ में, १८ साल की उम्र में दुर्गावती की शादी गोंड राजवंश के राजा संग्राम शाह के सबसे बड़े बेटे दलपत शाह के साथ हुई. मध्य प्रदेश के गोंडवाना क्षेत्र में रहने वाले गोंड वंशज ४ राज्यों पर राज करते थे-गढ़-मंडला, देवगढ़, चंदा और खेरला. दुर्गावती के पति दलपत शाह का अधिकार गढ़-मंडला पर था.
रानी दुर्गावती के इस सुखी और सम्पन्न राज्य पर मालवा के मुसलमान शासक बाजबहादुर ने कई बार हमला किया, पर हर बार वह पराजित हुआ. १५५६ में बाज़ बहादुर ने फिर गोंडवाना पर हमला किया लेकिन रानी दुर्गावती के साहस के सामने वह बुरी तरह से पराजित हुआ. परन्तु लम्पट अकबर बादशाह की बुरी नजर बाजबहादुर की पत्नी रूपमती पर थी. इसलिए उसने मालवा पर हमला कर मालवा को १५६२ में अपने अधिकार में कर लिया. जाहिर था लम्पट और दुष्ट अकबर का अगला निशाना रानी दुर्गावती और उनका राज्य गढ़मंडला था.
गोंडवाना पर मुगलों का आक्रमण
लम्पट मुगल अकबर गढ़मंडला राज्य को जीतकर रानी को अपने हरम में डालना चाहता था. उसने विवाद प्रारम्भ करने हेतु रानी के प्रिय सफेद हाथी (सरमन) और उनके विश्वस्त वजीर आधारसिंह को भेंट के रूप में अपने पास भेजने को कहा. रानी ने यह मांग ठुकरा दी. इस पर अकबर ने अपने एक रिश्तेदार आसफ खां के नेतृत्व में गोण्डवाना राज्य पर हमला कर दिया. आसफ खान ने युद्ध के मैदान में रानी दुर्गावती को सैनिको की वेशभूषा में देखा, तो चकित रह गया. युद्ध भयानक था. रानी की तलवार ने मुगलिया सेना को काट कर रख दिया, बड़ी मुश्किल से जान बचा कर आसफ खान अकबर के पास पहुचा.
अगली बार उसने दुगनी सेना और तैयारी के साथ हमला बोला. दुर्गावती के पास उस समय बहुत कम सैनिक थे. उन्होंने जबलपुर के पास नरई नाले के किनारे मोर्चा लगाया तथा स्वयं पुरुष वेश में युद्ध का नेतृत्व किया. इस युद्ध में ३००० मुगल सैनिक मारे गये लेकिन रानी की भी अपार क्षति हुई थी.
मुगल सेना ने अंतिम बार आसफ खां के नेतृत्व में १५६४ में गोंडवाना पर हमला किया. इस बार मुगलिया सेना तोपों के साथ आई थी. आज रानी का पक्ष दुर्बल था. रानी का पुत्र नारायण बहुत घायल हो गया तो रानी ने उसे सुरक्षित स्थान पर भेज दिया. नारायण कि सुरक्षा में लगे सैनिकों ने रानी दुर्गावती को सन्देश भेजा की उनका पुत्र अब कुछ ही पल का मेहमान है. एक बार उसके अंतिम दर्शन कर ले. पर रानी दुर्गावती ने कहा “मैं अपने पुत्र को देवलोक में ही मिल लुंगी, अभी अपनी मातृभूमि का ऋण चूका लूँ.” और इतना कहते ही रानी की तलवार ने अपनी गति बढ़ा दी, जिससे मुगलिया सैनिको के सर धड़ से पत्तो की तरह गिरने लगे.
रानी दुर्गावती का वीरगमन
तभी एक तीर उनकी भुजा में लगा, रानी ने उसे निकाल फेंका. दूसरे तीर ने उनकी आंख को बेध दिया, रानी ने इसे भी निकाला पर उसकी नोक आंख में ही रह गयी. तभी तीसरा तीर उनकी गर्दन में आकर धंस गया.
रानी ने अंत समय निकट जानकर वजीर आधारसिंह से आग्रह किया कि वह अपनी तलवार से उनकी गर्दन काट दे, पर वह इसके लिए तैयार नहीं हुआ. अतः रानी ने अपनी कटार स्वयं ही अपने सीने में भोंककर आत्म बलिदान के पथ पर प्रयाण किया.
महारानी दुर्गावती चंदेल ने अकबर के सेनापति आसफ़ खान से लड़कर अपनी जान गंवाने से पहले पंद्रह वर्षों तक शासन किया था. जबलपुर के पास जहां यह ऐतिहासिक युद्ध हुआ था, उस स्थान का नाम बरेला है, जो मंडला रोड पर स्थित है. वहीँ रानी दुर्गावती की समाधि बनी है, जहां गोण्ड जनजाति के लोग जाकर अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं. २४ जून १५६४ को रानी ने अंतिम सांस ली. उनकी मृत्यु के बाद उनके बेटे ने युद्ध जारी रखा, लेकिन शीघ्र ही वह भी वीरगति को प्राप्त हो गया.
भारत कि इस महान वीरांगना के चरणों में कोटि कोटि नमन है!!
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