गतांक से आगे…
५. अशोक का धम्म नीति और विकृत अहिंसा का प्रचार प्रसार
महात्मा बुद्ध ने अहिंसा को मानवीय संवेदना के रूप में व्यक्त किया था व्यक्ति या राज्य के नीति के रूप में नहीं. उन्होंने व्यक्ति के लिए शांति और अहिंसा की नीति का प्रतिपादन किया था शासन के लिए अहिंसा और निशस्त्रीकरण की नीति का प्रतिपादन नहीं किया था अर्थात अहिंसा परमोधर्मः के साथ साथ धर्महिंसा तथैव च की नीति से कतई छेड़छाड़ नहीं किया था. पर सम्राट अशोक अपने हिंसक युद्धनीति और कलिंग युद्ध में हिंसा का विभत्स नंगा नाच करने के पश्चात युद्ध से विरक्त हो पुरे जम्बुद्वीप में जिस धम्म विजय की स्थापना की थी वो ना तो सनातन धर्म पर आधारित था और ना ही बुद्ध धर्म पर. वह सिर्फ एक हिंसक शासक के पश्चताप से प्रेरित आत्म ग्लानी पर आधारित था.
परिणामतः सनातन हिंदू अपने मूल संस्कृति, सभ्यता, परम्परा, वीरता, शूरता और ज्ञान से विचलित होने लगे थे. हिंदुओं और हिन्दुस्तान की सुरक्षा की दृष्टि से कहें तो वे इतने आलसी, स्वार्थी और दब्बू हो गये की अपनी कमजोरी को भूलकर केवल अहिंसा परमोधर्मः की आधी अधूरी वाक्य रटने लगे थे. यहाँ तक की धर्मोरक्षति रक्षितः के मूल मन्त्र को भी भूलने लगे थे और यही से हिंदुओं का पतन प्रारम्भ हुआ. इसे और भी विस्तार से समझने केलिए निचे लिंक पर जाकर लेख पढ़े महात्मा बुद्ध की अहिंसा नहीं सम्राट अशोक की धम्म नीति भारतवर्ष और हिन्दुओं के पतन का कारन था
अशोक की धम्म नीति का दूसरा सबसे बड़ा दुष्प्रभाव यह था कि शक्तिशाली एकजुट हिन्दू दो भिन्न और विरोधी ऐसे धार्मिक विचारों में विभक्त हो गये जो राजनीतिक सत्ता के भी भागीदार थे. परिणामतः हिन्दुओं की केवल एकजुट शक्ति ही क्षीण नहीं हुई बौद्ध राज्यों के रूप में विरोधी शक्ति भी पैदा हो गयी थी जिससे “भारतवर्ष” कमजोर हुआ. यही कारण है कि भारतवर्ष की सीमा के बाहर शासन कर रहे हिन्दुओं केलिए यह अत्यंत घातक सिद्ध हुआ क्योंकि वहां हिन्दू, बौद्ध राज्य और जनता हिंसक ईसाई, इस्लाम के आक्रमण का मुकाबला करने में बिलकुल अक्षम साबित हुए और वे आसानी से उनके द्वारा कत्ल कर दिए गए और हिन्दू, बौद्ध राज्यों का इस्लामीकरण हो गया.
६. मुस्लिम आक्रामकों के विरुद्ध हिन्दुओं, बौद्धों में संघटन का आभाव
मुस्लिम आक्रामकों के विरुद्ध हिन्दू, बौद्ध राज्यों में आपसी सामंजस्य और संघटन का अभाव भी भारतियों के पराजय का कारण था. भारतवर्ष के हिन्दू, बौद्ध राज्य विदेशी मुस्लिम आक्रामकों के विरुद्ध भी एकजुट नहीं हो सके. प्रारम्भ के हिन्दू राजाओं जैसे रघुवंशी सिसोदिया और गुर्जर प्रतिहारों ने एकजुट हो मुस्लिम आक्रमणकारियों का सामना किया और उनके छक्के छुड़ाकर भागने को मजबूर कर दिया था परन्तु परवर्ती हिन्दू राज्यों ने ऐसा नहीं किया और कभी कोशिश की भी तो संघटन और नेतृत्व का अभाव रहा जिसके कारण जीतके मुहाने तक पहुंचकर भी भारतीय पराजित हो गये. इसे दो उदाहरण द्वारा समझते हैं.
हिन्दुशाही वंश के आनंदपाल की हार
गंधार के हिन्दुशाही वंश के राजा जयपाल के बाद उनका पुत्र आनंदपाल ने इस्लामिक नरपिशाच मोहम्मद गजनवी से भयानक संघर्ष किया. उसके संघर्ष में दिल्ली, अजमेर, कन्नौज, कालिंजर, उज्जैन, ग्वालियर के सेनाओं ने भी हिस्सा लिया. संयुक्त सेना ने गजनवी के सेनाओं के छक्के छुड़ा दिए. मुसलमान सैनिक गाजर मूली की तरह काटे जा रहे थे, मुस्लिम सेना तेजी से पीछे हट रही थी, गजनवी को अपनी हार निश्चित जान पड़ रही थी तभी दुर्भाग्य ने खेल खेला और पासा पलट गया.
आनंदपाल के हाथी के एक कनपट्टी पर बारूद का गोला लग गया और हाथी आनंदपाल को लेकर पीछे की ओर भागने लगा. अन्य राजाओं के सेनापतियों को लगा की आनंदपाल युद्ध छोड़कर भाग रहा है तो वे भी भागने लगे. जीत के द्वार तक पहुंचकर संयुक्त सेना मूर्खतावश हार गयी और आनंदपाल को अपमानजनक संधि करना पड़ा. संधि के अपमान से आनंदपाल की कुछ ही दिनों में मौत हो गयी.
अगर हिन्दू राज्यों में आपसी सामंजस्य होता और वे आक्रमणकारी मोहम्मद गजनवी के विरुद्ध एक सुदृढ़ संघटन बनाने में सफल हुए होते तो जीत के मुहाने पर पहुंचने के बाद अगर सचमुच में भी सेनाध्यक्ष युद्ध से भागता तो भी युद्ध पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि तब दूसरा नेतृत्व तुरंत तैयार हो जाता और युद्ध को सफलता पूर्वक जीत लेता. परन्तु यहाँ विभिन्न राज्यों ने एक सन्गठन के रूप में नहीं बल्कि केवल आनंदपाल के सहयोगी के रूप में ही भाग लिया था जिसका आनंदपाल के जीत हार से कोई लेना देना नहीं था. यह भी सम्भव था कि वह सैन्य सहायता क्षतिपूर्ति पर आधारित सहयोग मात्र हो.
बौद्ध राज्य मुसलमानों के विरुद्ध हिन्दुओं का साथ नहीं दिया
दूसरी बात, आनंदपाल की सहायता के लिए भारत के दूर दूर के राज्यों ने सैनिक सहायता भेजी थी पर पड़ोस के स्वात, बाजूर और काफिरिस्तान के बौद्ध राज्यों ने कोई सहायता नहीं किया था. आनंदपाल की हार के बाद गजनवी केलिए उन राज्यों पर हमला करना आसान हो गया. उसने उन तीनों बौद्ध राज्यों पर हमला किया और बिना किसी बड़े संघर्ष के उनपर अधिकार कर लिया. वहां के बौद्ध राजा या तो मारे गये या बौद्ध प्रजा सहित मुसलमान बन गये. शांतिप्रिय, अहिंसक बौद्ध स्त्रियाँ हिंसक, रक्तपिपाशु जिहादी पैदा करने को मजबूर हो गयीं.
पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों की हार
इसी प्रकार १७६१ में मोहम्मद अब्दाली ने जब भारतवर्ष पर आक्रमण किया था तब उनका मुकाबला अकेले मराठों ने किया और खेत रहे. अगर राजपूतों ने उनकी सहायता की होती तो दोनों की संयुक्त शक्तियाँ इतनी अधिक हो जाती की वे मोहम्मद अब्दाली को सिंध पार क्या अफगानिस्तान के भीतर घुसकर मारने में भी सक्षम थे. हमें यह नहीं भूलना चाहिए की मराठों की हार ने भारत की मुस्लिम आक्रमणकारियों के बाद अंग्रेजों के हाथों बर्बादी की एक और कहानी लिखने को छोड़ दिया.
अगर मराठे पानीपत में नहीं हारते तो आज भारतवर्ष अखंड हिन्दुराष्ट्र होता
ज्ञातव्य है कि अट्ठारहवी शताब्दी में मराठा शक्ति इतनी प्रबल हो गयी थी कि उन्होंने मुगलों को लगभग खत्म कर ही दिया था. हैदराबाद के निजाम के अतिरिक्त दूसरा कोई मुस्लिम शक्ति उस समय नहीं बचा था और वह मराठों के आगे कुछ नहीं था. अगर पानीपत में मराठों की हार नहीं होती तो अंग्रेज भारत पर कभी भी अधिकार करने में सक्षम नहीं होते. हिन्दू अपनी ताकत से भारतवर्ष को मुस्लिम शासन से मुक्त करने के करीब थे और जल्द ही सफल भी हो जाते. और तब भारतवर्ष फिर से हिन्दूराष्ट्र होता, भारतवर्ष की तस्वीर सुनहला होता. भारत आज की तरह कटा-फटा, जीर्ण-शीर्ण और लुटा-पिटा बदहाल नहीं होता.
७. भारत राष्ट्र की संकल्पना का क्षय
मध्यकालीन भारतीय राज्यों की एक और सबसे बड़ी कमजोरी थी उनमे भारत राष्ट्र की संकल्पना का आभाव होना. वैदिक और पौराणिक भारतवर्ष कम से कम काश्पीय सागर तक विस्तृत था और तब केवल वैदिक संस्कृति ही प्रचलित थी इसलिए समस्या भी नहीं था. ३१३८ ईस्वीपूर्व हुए महाभारत युद्ध के बाद वैदिक संस्कृति के राज्यों का विखराव और पतन की शुरुआत हुई थी. जिसके बाद चाणक्य और चन्द्रगुप्त मौर्य के नेतृत्व में बाह्लीक प्रदेश (बल्ख) से लेकर ताम्रलिप्ति और कामरूप तक हिन्दुओं और हिन्दू राज्यों को पुनर्संगठित कर भारतवर्ष को एक राष्ट्र के रूप में दूसरी बार स्थापित किया गया.
अशोक के मूर्खतापूर्ण धम्म नीति और विकृत अहिंसा के परिणामस्वरूप हुए भारतराष्ट्र के पुनरविखंडन के बाद तीसरी बार भारतवर्ष के चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य कामरूप से अर्बस्थान तक भारतवर्ष को हिन्दू राष्ट्र के रूप में संगठित करने में सफल हुए.
भारतवर्ष को बृहत हिन्दूराष्ट्र के रूप में नहीं देख पाए
परन्तु बाद के हिन्दू राज्यों और हिन्दू राजाओं में वो दूरदृष्टि का आभाव दिखाई पड़ता है जो चाणक्य, चन्द्रगुप्त मौर्य और विक्रमादित्य की राष्ट्रवादी सोच और कार्यों में दिखाई देता है. एक तो परवर्ती हिन्दू राज्य सुरक्षात्मक युद्ध करने लगे तो मध्यकालीन हिन्दू राज्यों में भारतवर्ष को एक बृहत हिन्दूराष्ट्र के रूप में देखने और समझने की जो अंतर्दृष्टि थी वो खत्म हो गया जान पड़ता है.
परिणाम यह हुआ की जब अरबी और तुर्की आक्रमणकारियों ने सीमावर्ती हिन्दू राज्यों मसलन सिंध और काबुल राज्यों पर आक्रमण किया तो भीतरी हिन्दू राज्य यह सोचकर निश्चिन्त रहे की ये उनके राज्यों पर हमले का मामला है हमें उससे क्या! परिणाम यह हुआ की हिन्दू राज्य आधुनिक अफगानिस्तान से पाकिस्तान और भारत से बांग्लादेश तक एक एक कर मुस्लिम आक्रमणकारियों से पराजित होते चले गये और भारतवर्ष का इस्लामीकरण होता चला गया.
हिन्दू राज्यों में राष्ट्रवादी सोच का आभाव
भारतवर्ष की दूसरी समस्या थी हिन्दू राज्यों का आपसी लड़ाई. इसमें कोई संदेह नहीं की राजपूत प्रचंड वीर थे और उन्होंने मुस्लिम आक्रमणकारियों से जमकर लोहा लिया और उनके छक्के भी छुड़ा दिए. परन्तु उपर्युक्त कारणों से हारने के अतिरिक्त उनमें एक और कमी थी और वह कमी थी राष्ट्रवादी सोच का आभाव. विभिन्न हिन्दू राज्य भारतवर्ष को एक राष्ट्र के रूप में देखने की क्षमता खो दिए थे. अगर वे भारतवर्ष को एक राष्ट्र के रूप में देखते तो भले ही अहंकार वश या रजनीतिक कारणों से आपस में लड़ते परन्तु जब विदेशी आक्रमणकारियों से अपने राष्ट्र, धर्म और समाज की सुरक्षा की बात आती तो वे एकजुट होकर आक्रमणकारियों से लड़ते. परन्तु ऐसा नहीं हुआ और आज परिणाम सबके सामने है.
राज्यों के साथ साथ राज्य की जनता में भी राष्ट्रवादी सोच का आभाव साफ दिखता है. ईसापूर्व भारतीय राज्यों की जनता राज्य पर जब कभी संकट आता तो वे सबकुछ भूलकर और छोड़कर आक्रमणकारियों के विरुद्ध एकजुट हो जाते और घरों में रखे हथियार लेकर एकजुट होकर खुद आक्रमणकारियों से भीड़ जाते थे या राज्य-राष्ट्र सेना के नेतृत्व में आक्रमणकारियों से लड़ते थे.
मध्यकालीन भारत में राज्य और राष्ट्र की सुरक्षा की जिम्मेदारी पूरी तरह राज्य और राज्य के सैनिकों पर थी और आम जनता आक्रमणकारियों के विरुद्ध युद्ध में भाग लेती दिखाई नहीं देती है. इसका परिणाम यह होता था की राज्य जनता के पूर्ण सहयोग के आभाव में ज्यादातर हार जाते थे और राज्य के हारने पर राज्य की जनता भी आक्रमणकारियों द्वारा आसानी से खत्म कर दिए जाते थे.
अपने ही राष्ट्र, धर्म और समाज के विरुद्ध आक्रमणकारियों का सहयोग
इतना ही नहीं, इससे भी बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण बात यह हुआ की कुछ जयचंदों ने अपने ही राष्ट्र, धर्म और समाज के लोगों के विनाश केलिए विदेशी और बाहरी आक्रमणकारियों का सहारा भी लिया और उन्हें सहयोग भी दिया. परिणाम यह हुआ की जयचंदों के सहयोग से मुस्लिम आक्रमणकारियों ने लक्षित राज्य, धर्म और समाज का विनाश तो किया ही जिन जयचंदों ने उनकी मदद की उन्हें भी आसानी से खत्म करने में सफल हो गये.
परिणाम यह हुआ की भारत में आक्रमणकारी मुस्लिम शासन की नीब पड़ गयी जिसने भारतीय सभ्यता, संस्कृति, धर्म, समाज, सुख, शांति, समृद्धि, विकास, शिक्षा, ज्ञान, विज्ञान, दर्शन सब खत्म कर भारत को अनवरत हिंसा, अत्याचार, शोषण और गुलामी की बेड़ियों में जकड़ दिया जिससे १९४७ में भारतवर्ष का विभाजन कर दो अतिरिक्त मुस्लिम राष्ट्रों के निर्माण के बाद भी भारत आजतक अभिशाप से मुक्त नहीं हो सका है.
उपर्युक्त गलतियों पर गम्भीरता से विचार करने कि जरूरत
अब हिन्दुओं को सोचना ही होगा की आखिर ऐसा क्यों हुआ और इस टूटे फूटे छोटे से बचे हुए भारत का भविष्य क्या होगा. इन प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने केलिए उपर्युक्त किये गये ऐतिहासिक गलतियों पर विचार करना होगा और उन्हें सुधारना ही होगा. तभी हम सौ करोड़ हिन्दुओं के लिए बचे इस छोटे से घर को सुरक्षित बचा पाएंगे. और सिर्फ हिन्दू ही क्यों? सेकुलर भारत के समर्थक सभी लोगों को उपर्युक्त ऐतिहासिक गलतियों पर विचार करना होगा और उन्हें सुधार कर आगे की रणनीति बनानी होगी तभी इस छोटे से भारत को सभी धर्म के लोगों केलिए सुरक्षित और सेकुलर रख पाएंगे वरना इसका भी मजहबी राष्ट्र बनना अवश्यम्भावी है.
मैं देश के सभी हिन्दू, बौद्ध, सिक्ख, जैन राष्ट्रप्रेमियों, देशभक्तों और मानवता के समर्थकों से अनुरोध करता हूँ कि वे उपर्युक्त गलतियों को मद्दे नजर रखते हुए ऐसी रणनीति बनाएं और उसका प्रचार-प्रसार सुनिश्चित करें ताकि यह छोटा सा बचा खुचा भारत हिन्दुओं, बौद्धों, जैनों और सिक्खों केलिए और उससे भी बढ़कर सभी लोगों केलिए सर्वकालिक सुरक्षित भूमि बना रहे. कहीं आनेवाली पीढियां सिर्फ किताबों में ही न पढ़े कि भारत में भी कभी हिन्दू बौद्ध लोग रहते थे जैसा कि हम आजकल पढ़ते हैं कि प्राचीन काल में मध्य एशिया में वैदिक धर्म था, अर्बस्थान, इराक में भी हिन्दू, बौद्ध रहते थे, कुछ शताब्दी पूर्व अफगानिस्तान और कुछ दशक पूर्व तक पाकिस्तान हिन्दुओं और बौद्धों का निवास क्षेत्र था आदि.
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