आज का विवादित “ज्ञानवापी” सहित सम्पूर्ण ज्ञानवापी काशी विश्वनाथ मन्दिर परिसर अनादिकाल से विश्वेशर ज्योर्तिलिंग मन्दिर के नाम से जाना जाता था. यह मन्दिर भारतवर्ष और यूरेशिया के अन्य बड़े बड़े प्राचीन मन्दिरों जैसे मक्का (अरब), वेटिकन (रोम), रावक (खोतान) आदि की तरह ज्योतिषीय आधार पर निर्मित था.
काशी में विश्वेशर मन्दिर का निर्माण सर्वप्रथम किसने करवाया था इसकी कोई जानकारी नहीं है. मन्दिर से सम्बन्धित जितनी भी जानकारी है वे इनके जीर्णोधार और पुनर्निर्माण से सम्बन्धित है. इस मन्दिर का उल्लेख महाभारत, उपनिषद, पुराण आदि में मिलता है. मन्दिर से सम्बन्धित अनेक पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं. मुख्य ज्ञानवापी काशी विश्वनाथ मन्दिर का उल्लेख स्कन्द पुराण के काशी खंड में विस्तार से मिलता है. १४६० में वाचस्पति ने अपनी पुस्तक ‘तीर्थ चिंतामणि’ में वर्णन किया है कि अविमुक्तेश्वर और विशेश्वर एक ही ज्योर्तिलिंग है.
ज्ञानवापी काशी विश्वनाथ मन्दिर पर इस्लामिक आक्रमण
ईसा पूर्व ११वीं सदी में एक राजा हरीशचन्द्र ने काशी विशेश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था. फिर सम्राट विक्रमादित्य ने अपने समय में उसका पुनर्निर्माण करवाया था. सम्राट विक्रमादित्य द्वारा निर्मित विश्वेशर मन्दिर पर ही पहला इस्लामिक हमला विदेशी आक्रान्ता मोहम्मद गौरी ने ११९४ में किया था. कन्नौज के राजा जयचंद को हराने के बाद उसने काशी और बनारस पर हमला किया.
मुहम्मद हसन निजामी ने अपनी पुस्तक ताजुल मासिर में वाराणसी पर मोहम्मद गौरी के हमले के बारे में लिखा है, “उस स्थान (असनी) से शाही सेना बनारस की ओर बढ़ी जो हिंद देश का केंद्र है और यहां उन्होंने लगभग १००० मंदिरों को नष्ट कर दिया और वहां मस्जिदें खड़ी कर दी गयी और कानून (इस्लामी) के ज्ञान की घोषणा की गयी और धर्म के नीब की स्थापना हो गयी..”
इतिहासकारों के अनुसार जिस भव्य विश्वेश्वर मंदिर को सन् ११९४ में मुहम्मद गौरी द्वारा तोड़ा गया था उस मन्दिर को गुजरात के एक सौदागर द्वारा बनबाया गया था लेकिन एक बार फिर इसे संभवतः सन् १४४७ में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह द्वारा तोड़ दिया गया.
डॉ. एएस भट्ट की किताब ‘दान हारावली’ के अनुसार सन् १५८५ ई. में राजा टोडरमल की सहायता से पं. नारायण भट्ट द्वारा इस स्थान पर फिर से एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया. १६३२ में शाहजहां ने इस भव्य मंदिर को आदेश पारित कर तोड़ने के लिए सेना भेजी. हिन्दुओं के प्रबल प्रतिरोध के कारण विश्वेशर मंदिर के केंद्रीय मंदिर को तो तोड़ नहीं सकी, लेकिन काशी के ६३ अन्य मंदिर तोड़ दिए गए.
ज्ञानवापी काशी विश्वनाथ मन्दिर पर औरंगजेब का हमला
९ अप्रैल १६६९ को मुगल आक्रमणकारी औरंगजेब को उसके एक दरबारी ने रिपोर्ट दिया जिसके बाद औरंगजेब द्वारा निम्नलिखित आदेश जारी किया गया:
“बादशाह औरंगजेब को ये खबर मिली है कि मुल्तान के कुछ सूबों और विशेषकर बनारस में अपनी रद्दी किताबें अपनी पाठशालाओं में पढ़ाते हैं. और इन पाठशालाओं में हिन्दू और मुसलमान विद्यार्थी और जिज्ञासु उनके बदमाशी भरे ज्ञान, विज्ञान को पढ़ने कि दृष्टि से आते हैं. धर्म संचालक बादशाह ने ये सुनने के बाद सूबेदारों के नाम ये फरमान जारी किया है कि वो अपनी इच्छा से काफिरों के मन्दिर और पाठशालाएँ गिरा दें. उन्हें इस बात कि भी सख्त ताकीद की गयी है कि वे सभी तरह के मूर्ति पूजा सम्बन्धित शास्त्रों का पठन पाठन और मूर्ति पूजन भी बंद करा दें.”
औरंगजेब ने ताकीद की थी काशी विश्वनाथ मन्दिर को सिर्फ तोड़ा नहीं जाये बल्कि यह सुनिश्चित की जाये कि फिर वहां मन्दिर का निर्माण नहीं हो सके. इसलिए औरंगजेब के आदेश पर यहां का मंदिर तोड़कर गर्भगृह पर या गर्भगृह को ही ज्ञानवापी मस्जिद बना दिया गया क्योंकि ज्ञानवापी की पश्चिमी दीवार मन्दिर की मूल दीवार का हिस्सा ही माना जाता है जो चित्र में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि वह वहां तोड़े गये मन्दिरों से संलग्न था.
सुब्रमण्यम स्वामी का मानना है कि पूर्व मंदिर के अवशेषों का उपयोग मस्जिद निर्माण के लिए किया गया था, जिसे मस्जिद की नींव, स्तंभों और मंदिर के पीछे के भाग के रूप में दिखाई देने वाली मस्जिद के पीछे के भाग में देखा जा सकता है. २ सितंबर १६६९ को औरंगजेब को मंदिर तोड़ने का कार्य पूरा होने की सूचना दी गई.
‘हिंदुस्तान इस्लामी अहद में’ पुस्तक का लेखक मौलाना अब्दुल जो एक उच्च सम्मानित विद्वान था और इस्लामी इतिहास के विद्वान के रूप में जाना जाता था ने लिखा है कि, “बनारस की मस्जिद आलमगीर औरंगजेब द्वारा विश्वेश्वर मन्दिर परिसर पर बनाया गया. वह मन्दिर बहुत ऊँचा था और हिन्दुओं में बहुत पवित्र माना जाता था. उसी जगह पर उन्ही पत्थरों से एक बड़ा मस्जिद बनाया गया और उसके प्राचीन पत्थरों को जो मस्जिद की दीवार में गड़े हुए थे फिर से नए ढंग से स्थापित किया गया.”
मौलाना अब्दुल ने उसी पुस्तक और उसी अध्याय में अयोध्या के बाबरी मस्जिद के विध्वंस और मथुरा के गोविन्द देव मन्दिर के स्थान पर औरंगजेब द्वारा एक मस्जिद बनाने का भी उल्लेख किया है.
ज्ञानवापी काशी विश्वनाथ मन्दिर की पुनर्प्राप्ति केलिए संघर्ष
१७४२ में, मराठा शासक मल्हार राव होलकर ने मस्जिद को ध्वस्त करने और मंदिर को फिर से बनाने की योजना बनाई, हालांकि, उनकी योजना अवध के नवाब द्वारा हस्तक्षेप के कारण सफल नहीं हुई. १७५० के आसपास जयपुर के तत्कालीन महाराजा ने काशी विश्वनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए भूमि खरीदने के उद्देश्य से स्थल के चारों ओर भूमि का सर्वेक्षण कराया पर वहां मंदिर के पुनर्निर्माण की उनकी योजना भी सफल नहीं हुई.
अंत में १७७७-८० में मालवा की महारानी अहिल्याबाई द्वारा काशी विश्वेश्वर मन्दिर जो अब विवादित स्थल ज्ञानवापी कहलाता है के बगल में काशी विश्वनाथ मंदिर बनवाया जिस पर पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने एक हजार किलो सोने का छत्र बनवाया.
सन् १८०९ में काशी के हिन्दुओं ने विश्वेश्वर मन्दिर पर जबरन बनाई गई ज्ञानवापी मस्जिद पर पुनः कब्जा कर लिया क्योंकि यह संपूर्ण क्षेत्र ज्ञानवापी मंडप का क्षेत्र है. कोलकाता के वाईस प्रेसिडेंट इन कौंसिल ने बनारस के मजिस्ट्रेट वाटसन से इस दंगे का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि यहाँ होनेवाले हिन्दू मुस्लिम दंगे का मुख्य कारण मन्दिर को तोड़कर मस्जिद बनाना है.
३० दिसंबर १८१० को बनारस के तत्कालीन जिला दंडाधिकारी मि. वाटसन ने ‘वाइस प्रेसीडेंट इन काउंसिल’ को पत्र लिखकर ज्ञानवापी परिसर हिन्दुओं को हमेशा के लिए सौंपने को कहा था, लेकिन यह कभी संभव नहीं हो पाया.
१९३६ में दीन मोहम्मद नामक एक मुसलमान ने न्यायालय में याचिका डाली कि पूरा ज्ञानवापी परिसर मस्जिद की भूमि मानी जाये पर न्यायालय में उसका दावा ख़ारिज हो गया क्योंकि सारे सबूत मन्दिर के पक्ष में थे. इसी मामले में जेम्स प्रिन्सेप ने १५८५ का नक्शा अदालत में पेश किया था जो ज्योतिषीय आधार पर विश्वेश्वर मन्दिर परिसर के निर्माण को दिखाता है, जिसके अनुसार विवादित ज्ञानवापी मन्दिर परिसर के केंद्र में निर्मित है जहाँ पहले विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थापित था.
१५८५ में निर्मित काशी विश्वेश्वेर मन्दिर का गर्भगृह नक्शे के अनुसार मध्य में स्थित था जिसे महादेव के नाम से दर्शाया गया है. इसके चारों ओर अन्य मन्दिर स्थित थे. निचे मध्य में नंदी मुख्य मन्दिर की ओर मुख करके बैठा था जिसे द्वारपाल के रूप में दिखाया गया है. विवादित ज्ञानवापी ढांचा गर्भगृह सहित मध्य के दोनों ओर विस्तृत है जिसे डॉटेड लाईन से दिखाया गया है. नंदी बैल का मुख उसी विश्वेश्वर मन्दिर की ओर आज भी है जिसे अब विवादित ज्ञानवापी कहा जाता है.
१९८३ में विवादित ज्ञानवापी सहित सम्पूर्ण मन्दिर परिसर को काशी विश्वनाथ मन्दिर का हिस्सा मानते हुए उत्तर प्रदेश सरकार “उत्तर-प्रदेश काशी विश्वनाथ मन्दिर एक्ट, १९८३” पारित किया और पूरे मन्दिर परिसर के व्यवस्थापन का भार सीधे सरकारी नियन्त्रण में ले लिया.
इसी विवादित स्थल को लेकर २३ सितम्बर १९९८ को वाराणसी जिला जज का फैसला आया कि पहले ज्ञानवापी के धार्मिक स्वरूप के निर्धारण केलिए साक्ष्य लिए जाएँ ताकि यह सुनिश्चित किया जाये कि विवादित ज्ञानवापी १५ अगस्त, १९४७ को जबरन अधिग्रहित किया गया मन्दिर था या खाली भूमि पर बना मस्जिद.
संघर्ष की इसी कड़ी में वाराणसी कोर्ट ने ज्ञानवापी परिसर की पुरातात्विक जांच केलिए आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया को कार्य भार पांच सदस्यीय टीम बनाकर सौंप दिया है. इस मुद्दे के आज तिन पक्षकार हैं:
- स्यंभू ज्योर्तिलिंग विश्वेश्वर जिसके वकील विजय रस्तोगी हैं
- सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड, और
- अंजुमन इंतजामिया मस्जिद कमिटी
मेरा मानना है, कायदे से होना यह चाहिए था कि भारत विभाजन के बाद कम से कम भारत के उन तमाम सैकड़ों या हजारों मन्दिरों को, जिन्हें मुस्लिम शासन में मुस्लिम आक्रमणकारियों ने जबरन मस्जिद, मदरसा या मकबरा बना दिया था, उन्हें भी मुसलमानों के चंगुल से आजाद कर उनकी पुरानी प्रतिष्ठा बहाल कर दी जाती, परन्तु, दुर्भाग्य से आजादी के बाद भारत का मुख्य नियन्त्रण कुछ ऐसे धूर्त लोगों के हाथों में चला गया जिन्होंने हिन्दू विरोधी, मुस्लिम तुष्टिकरण की कुत्सित राजनीती से हिन्दुओं और भारत को बर्बाद करने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखा.
मुख्य स्रोत:
- विकिपीडिया
- वेबदुनिया
- संडे गार्जियन में छपा डॉ सुब्रमण्यम स्वामी का लेख
- जी न्यूज का ०१.१०.२०२० का डीएनए आदि
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