गतांक से आगे…
यूरोप के ड्रुइडस और सेल्टिक अथवा केल्टिक सभ्यता के वैदिक संस्कृति से सम्बन्धित होने के कई अन्य ग्रन्थों से भी प्रमाण मिलते हैं.
किसी भी क्षेत्र में उच्चतम स्तर को प्राप्त व्यक्ति को वैदिक प्रणाली में ब्राह्मण कहा जाता था. मनुस्मृति के अनुसार जन्म से सभी शुद्र ही होते हैं अतः किसी भी कुल में जन्मा व्यक्ति निजी योग्यता बढ़ाते बढ़ाते ब्राह्मणपद पर पहुंच सकता था यदि वह १.निष्पाप शुद्ध आचरण वाला जीवन यापन करता है २.अध्ययन त्याग और निष्ठा से करे ३.स्वतंत्र जीविका उपार्जन करता है ४.उसका दैनन्दिनी कार्यक्रम आदर्श हो. अतः मनुमहराज कहते हैं, इस देश में तैयार किए गये ब्राह्मणों से विश्व के सारे मानव आदर्श जीवन सीखें. ऐसे ब्राह्मणों को प्राचीन यूरोप में ड्रुइड कहा जाता था.
ग्रन्थ The Celtic Druids, Writer-Godfrey Higgins, Picadilly, 1929 से प्रमाण
इस ग्रन्थ की भूमिका में हिगिंस ने लिखा है, “उत्तर भारत के निवासी बौद्ध लोग, जिन्होंने पिरमिड्स, स्टोनहेंज, कोरनोक आदि (भवन) बनाए उन्होंने ही विश्व की दंतकथाएँ (पुराण आदि) लिखी जिनका स्रोत एक ही था और जिनकी प्रणाली बड़े उच्च, सुंदर, सत्य तत्वों पर आधारित थी-उन्ही की गौरवगाथा इस ग्रन्थ में वर्णित है.
बौद्ध, जैन, शैव, शाक्त, वैष्णव सभी आर्य सनातन वैदिक संस्कृति के ही हिस्सा हैं जिसे समझने में हिगिंस से थोड़ी चूक हो गयी लगता है -पी एन ओक
ब्रिटेन के ड्रुइड सेल्ट्स अथवा केल्टस नाम के एक अतिप्राचीन परम्परा के लोग थे. विश्व की अद्यात्म पीढ़ियों के वे लोग थे, जो प्रलय से बचकर ग्रीस, इटली, फ़्रांस, ब्रिटेन आदि देशों में पहुंचे. इसी प्रकार उन्हीं लोगों की अन्य शाखा दक्षिण एशिया से सीरिया और अफ्रीका में गयी. पाश्चात्य देशों की भाषा एक ही थी. प्राचीन आयरलैंड की लिपि ही उन सबकी लिपि थी. ब्रिटेन, गाल, इटली, ग्रीस, सीरिया, अर्बस्थान, ईरान और हिन्दुस्थान-सबकी वही लिपि थी.
इस प्रकार यह चौथा यूरोपीय लेखक है जो कहता है कि प्रलय के पश्चात मनु के वंशजों ने ही वैदिक संस्कृति और संस्कृत भाषा का विश्व में प्रसार किया-पी एन ओक
यूरोप के प्राचीनतम इतिहास की खोज करते हुए हर प्रदेश में ड्रुइडो के ही विशाल भवनों के खंडहर प्राप्त होते हैं. कई स्थानों पर वे अवशेष बड़े भव्य हैं. प्राचीन काल में वे बड़े ही प्रेक्षनीय और शोभायमान होने चाहिए. (पेज-१)
ड्रुइड धर्मगुरु पूर्ववर्ती देशों के निवासी थे. वे भारत से ब्रिटेन में आए थे. प्रथम लिपि यानि कैडमियन वर्णमाला उन्ही की चलाई हुई थी. स्टोनहेंज, कोरनोक आदि एशिया और यूरोप की भव्य इमारतों के निर्माता वे ही लोग थे. कोई भी पुरोहित, ड्रुइड या ब्राह्मण भारत से ब्रिटेन तक अपनी पवित्र भूमिका के संरक्षण हेतु बड़ी सरलता से प्रवास कर सकता था.
लिखाई के बजाय ड्रुइड लोग छात्रों से विद्या इसलिए मुखोद्गत कराते थे कि एक तो अयोग्य अपात्र जनों के हाथ वह साहित्य न लगे, लिखित विद्या पुस्तकों में ही धरी न रह जाए, और छात्रों का स्मरण तीव्र रहे. (पेज-१४)
भारत, ईरान और ब्रिटेन में प्राचीनकाल में कुछ संस्कृतिक मेलजोल रहा हो तो वह भारत के ब्राह्मण, ईरान के मगी और यूरोप के ड्रुइडो द्वारा ही हो सकता है. प्राचीन लिपि के अंश संस्कृत में ही पाए जाते हैं. पर्सिपोलिस (पुरुषपुर, वर्तमान पेशावर) नगर के शिलालेख आयरलैंड की अगम लिपि से मेल खाते हैं.
अगम शब्द संस्कृत में भी हैं. इसे सर विलियम जोन्स बड़े आश्चर्य की बात मानते हैं. अगम अक्षर अद्यात्म लिपि के थे. पेड़ों के पत्तों पर लिखने को ही रोम में प्रथा थी. आयरलैंड के ड्रुइड लोग अपने आपको अगम लिपि के निर्माता नहीं कहते थे. वे तो बताते थे की अगम बड़े प्राचीन समय से चलती आ रही थी. (पेज-२७-४२ The Celtic Druids, Writer-Godfrey Higgins, Picadilly, 1929)
ग्रन्थ Matter, Myth and Spirit or Keltic and Hindu Links, लेखक- Dorothea Chaplin से प्रमाण
प्राचीन यूरोप के लोग सेल्ट (Celts) या केल्ट्स (Kelts) कहलाते थे. डोरोथी चैपलिन ने अपने ग्रन्थ के पृष्ठ १६-२० पर लिखा है, “केल्ट लोग विभिन्न जातियों के थे. उनकी भाषाएँ भिन्न थी तथापि उनकी संस्कृति एक थी. उनके न्यायालय होते थे. ड्रुइड पुरोहितों के बनाए नियमानुसार समाज का नियन्त्रण होता था. केल्ट जन आर्य थे या नहीं इस पर मतभेद है किन्तु यदि वे आर्य नहीं थे तो होम-हवन की प्रथा उनमें कैसे आई? ऋग्वेद के अतिरिक्त किस प्राचीन ग्रन्थ में यज्ञ के बारे में विपुल वर्णन है? हिन्दुओं के धर्मग्रन्थ के अतिरिक्त बैल, वराह और सर्प को किस साहित्य में दैवी प्रतीक समझा जाता है?”
ग्रन्थ A complete History of Druids से प्रमाण
भाट रखने की प्रथा पूर्ववर्ती देशों कि है और वहां (यूरोप में) वह अनादिकाल से चली आ रही है. वहां से वह ग्रीक और लैटिन लोगों में आई. ग्रीक लोगों के केवल देवताओं के ही गीत नहीं होते थे अपितु विवाहों से लेकर अंत्येष्टि तक उनकी सारी धार्मिक विधियाँ मन्त्रों के साथ मनाई जाती थी. उसी प्रकार संकटों से मुक्ति, युद्ध विजय आदि सभी प्रसंगों पर वे देवताओं के स्तुति गीत बड़े भक्तिभाव से वाद्यों की संगत से जनता से भी गवाते थे. (पृष्ठ २३, A complete History of Druids)
ड्रुइडस के सामाजिक व्यवस्था में बरदाई लोग गीतों में राजकुलों के विविध राजाओं के गुण जनसमूहों को सुनाया करते थे. यह वरदायी लोग प्रथम धार्मिक गीत गायक थे. वे गीत बड़े पवित्र प्रसंगों पर गाए जाते थे. धीरे धीरे उनका पतन होते होते वे सामान्य कवी और गायक बन गये. आरम्भ में उनके गीतों में आत्मा का अमरत्व, प्रकृति का स्वभाव, ग्रहों का भ्रमण देवों का कीर्तन और जनता को स्फूर्ति दिलाने के लिए श्रेष्ठ व्यक्तियों की महत्ता बखानी जाती थी. (पृष्ठ २३-२४ A complete History of Druids)
अन्य ग्रंथों से प्रमाण
ग्रीक, रोमन और सेल्टिक या केल्टिक भाषाएँ परस्पर मिलती जुलती हैं ऐसा M Hudelleston ने बता दिया है. वह समानता स्वाभाविक थी क्योंकि तीनों को सफल बनानेवाली धाराएं किसी श्रेष्ठ पूर्ववर्ती देश से पश्चिम दिशा में आई. (पेज-२२) फिनिशियन, कर्थेजियन, रोमन, ग्रीक आदि लोगों के इतिहास भिन्न-भिन्न भले ही लगें किन्तु वे सारे किसी एक राष्ट्र से सम्बन्धित हैं. संस्कृत भाषा ही सबको एक सूत्र में पिरोती है.
इस जानकारी से वह विचार परिवर्तन होता है. उन सारे साहित्यों का मूल जानने केलिए संस्कृत भाषा की जानकारी होना, उस भाषा के महान योगदान का ज्ञान और आधुनिक शास्त्रों से उस भाषा का सम्बन्ध ज्ञात कर लेना आवश्यक है. सोलोमन के समय (ईसापूर्व १०१५) में और अलेक्जेंडर के समय (ईसापूर्व ३२४) में भी संस्कृत बोली जाती थी.” (Page 1-2, Sanskrit and its kindred Literatures-Studies in Comparative Mythology, Writer-Laura Elizabeth, London, 1881)
इतिहासकार लिचफिल्ड्स कहते हैं, “अनेक इतिहासकारों के कथन से यही निष्कर्ष निकलता है कि आंग्लभूमि के मूल निवासी विश्व के पूर्वी भागों से आए थे”.
इससे स्पष्ट है कि वे भारत से ही आंग्ल भूमि में जा बसे थे क्योंकि उतने प्राचीन काल में सभ्यता केवल भारत में ही थी-पी एन ओक
इंडिया इन ग्रीस ग्रन्थ के लेखक एडवर्ड पॉकोक अपने ग्रन्थ के पृष्ठ ५३ पर लिखते हैं कि यूरोपीय क्षत्रिय, स्कैंडिनेविया के क्षत्रिय और भारतीय क्षत्रिय सारे एक ही वर्ग के लोग है. पी एन ओक लिखते हैं कि उत्तरी यूरोप के डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन आदि देशों में शिवपुत्र स्कन्द की पूजा होती थी इसलिए उस क्षेत्र को संस्कृत शब्द स्कंदनावीय अपभ्रंश स्कैंडिनेविया नाम पड़ा है.
क्या ड्रुइडस अभी भी यूरोप में रहते हैं?
यूरोप के लगभग प्रत्येक प्रदेश में छोटे-छोटे गुट आज भी अपने आप को ड्रुइड कहते हुए अपना भिन्न अस्तित्व घोषित करते हैं परन्तु वे गुप्त रहते हैं क्योंकि लगभग ६०० वर्षों तक निर्मम अत्याचार और दहशत के माध्यम से जब दक्षिण से उत्तर तक ईसाई धर्म फैलाया गया तब कई ऋषि मुनिगण अपने आपको बाहरी दृष्टि से ईसाई कहलाकर गुप्त रूप से आर्य-सनातन हिन्दू वैदिक धर्म पर निजी श्रद्धा अब भी कायम रखे हुए हैं. ये सूर्यपुजक हैं और निजी भाषा में गायत्रीमंत्र का अनुवादित उच्चारण करते हैं.
उनके पंथ की छपी सूर्यस्तवन आदि की छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ हैं. उनमे शिवसंहिता नाम की एक पुस्तक है. इसमें अब केवल नाम और संस्कृत भाषा ही शेष रह गया है. अनुवाद उनके अपने भाषाओँ में ही है जो सूर्य पूजा से सम्बन्धित है. एक सूर्यपूजन के दिन मैं लन्दन में १९७७ में ड्रुइडों से सम्पर्क किया था तब मुझे यह पता चला. प्राचीनकाल में यूरोप में इन लोगों के पूर्वज ही वहां के वैदिक समाज के व्यवस्थापन करते थे. वे उस समाज के नेता और अधीक्षक थे-इतिहासकार, पी एन ओक
यूरोप से वैदिक संस्कृति का अंत कैसे और क्यों हुआ
प्राचीन वेद विद्या के सम्बन्ध में आगम और निगम शब्द प्रयुक्त होते हैं. यूरोप के ड्रुइडो में वे ही शब्द पाए जाते हैं. ईसाई पंथ प्रसार के कारन प्राचीन अगम लिपि ईसाई पादरियों के समझ में न आने से उसे जादू टोना मानकर जहाँ भी दिखे वहां नष्ट कर दी जाती थी. पैट्रिक ने उस लिपि के तिन सौ ग्रन्थ जलाए. वेल्स भाषा में अगम शब्द कायम है. उसका अर्थ है विधिलिखित या भविष्य में होने वाली घटनाएँ. (पेज २१, The Celtic Druids, Writer-Godfrey Higgins, Picadilly, 1929)
उपर नये नये ईसाई बने लोगों द्वारा वैदिक ग्रन्थ जलाये जाने का वर्णन है. हर शनिवार या रविवार गिरजाघरों में या अन्यत्र ईसाई प्रवचन समाप्त होने पर सारी भीड़ हथौड़े लेकर मन्दिर तोड़ने और मूर्तियाँ फोड़ने निकलती थी और वैदिक ग्रन्थों को आग लगा दी जाती थी. इससे जाना जा सकता है कि ईसाई मत उसी छल, बल कपट द्वारा फैलाया गया जिस प्रकार कुछ सदियों बाद इस्लाम लादा गया. दोनों धर्मों में तोड़-फोड़ लूट और लोगों का वध करने वालों को संत, सूफी इत्यादि उपाधि दी गयी है. इसलिए पैट्रिक भी ईसाई संत माना जाता है-पी एन ओक
हिगिंस के ग्रन्थ के पृष्ठ ४३ से ५९ पर उल्लेख है कि “भारत के नगरकोट, कश्मीर और वाराणसी नगरों में, रशिया के समरकंद नगर में बड़े विद्याकेंद्र थे जहाँ विपुल संस्कृत साहित्य था.” वैसा ही वैदिक साहित्य और धर्मकेंद्र इजिप्त के अलेक्जेंड्रिया, इटली के रोम और तुर्की के इस्ताम्बुल नगरों में भी था. वहां की जनता जैसे जैसे ईसाई और इस्लामी बनती गयी वहां के मन्दिर, ग्रन्थ आदि सब जला दिए गये.
यूरोप के लोग मध्यरात्रि १२ बजे के बाद अगले दिन की शुरुआत क्यों करते हैं?
प्राचीन यूरोप में जब वैदिक संस्कृति थी तब अर्थात ड्रुइडो के समय पूरे यूरोप में वैदिक पंचांग ही प्रचलन में था. भारत में सूर्योदय लगभग साढ़े पांच बजे सुबह होता है. उस समय ब्रिटेन में रात्रि के १२ बजते हैं. अतः भारत में नए दिन की शुरुआत के समय को ही वहां भी नया दिन माना जाता था. वही परम्परा आज भी यूरोप में है और नये दिन की शुरुआत मध्यरात्रि के पश्चात् होती है. (पी एन ओक)
क्या २५ दिसम्बर का क्रिसमस पर्व वैदिक यूरोप का ही उत्सव है?
इसमें कोई संदेह नहीं की ईसाईपंथ के कुछ विधि और त्यौहार मूर्तिपूजकों की प्रणाली का अनुकरण करते हैं. चौथी शताब्दी में क्रिसमस का त्यौहार २५ दिसम्बर को इसलिए माना गया की इस दिन प्राचीन परम्परानुसार सूर्यजन्म का उत्सव होता था.(Preface of Oriental Religious by क्युमोंट)
पहाड़ियों पर आग जलाकर २५ दिसम्बर का त्यौहार ब्रिटेन और आयरलैंड में मनाया जाता था. फ़्रांस में ड्रुइडस की परम्परा वैसी ही सर्वव्यापी थी जैसे ब्रिटेन में. हरियाली और विशेषतया Mistletoe (यानि सोमलता) उस त्यौहार में घर-घर में लगायी जाती थी. लन्दन नगर में भी लगायी जाती थी. इससे यह ड्रुईडो का त्यौहार होने का पता चलता है. ईसाई परम्परा से उसका (क्रिसमस का) कोई सम्बन्ध नहीं है. (गॉडफ्रे हिंगिस का ग्रन्थ, पेज १६१)
इशानी (Esseni) पंथ के साधू ईसाई बनाए जाने के बाद पतित और पापी रोमन और ग्रीक साधू कहलाने लगे. उनके ईसाई बनने से पूर्व के मठों में एक विशेष दिन सूर्यपूजा होता था. सूर्य को ईश्वर कहते थे. वह दिन था २५ दिसम्बर, मानो सूर्य का वह जन्मदिन था. ड्रुइड लोग भी इसे मनाते थे. भारत से लेकर पश्चिम के सारे देशों तक सूर्य के उस उत्तर संक्रमन का दिन जो मनाया जाता था उसी को उठाकर ईसाईयों ने अपना क्रिसमस त्यौहार घोषित कर दिया. (हिंगिस पेज १६४)
अन्य प्रमाण
आयरलैंड में एक जगह है तारा हिल्स यानि तारा की पहाड़ियाँ जहाँ एक शिवलिंग स्थापित है. वैज्ञानिक इसे 4000 वर्ष प्राचीन बताते हैं. ये शिवलिंग यहाँ Pre Christian युग का है जब यहाँ मूर्ति पूजक ड्रुइड रहते थे. आज से 1500 वर्ष पहले तक आयरलैंड के सभी राजाओं का राज्याभिषेक यहीं इन्हीं के आशीर्वाद से होता था. फिर 500 AD में ये परम्परा बंद कर दी गई. इसमें कोई शक नहीं कि ये शिव लिंग है क्यूँकि जिस देवी तारा के नाम पर ये पर्वत स्थित है हमारे शास्त्रों में तारा माता पार्वती को भी कहते हैं.
Old Testament का इतिहास और कालक्रम इनका आधुनिक संशोधन ध्यान में लेकर हम सरलतया यह कह सकते हैं कि ऋग्वेद केवल आर्यों का ही नहीं अपितु सारे मानवों का प्राचीनतम ग्रन्थ है. (Page 213, The Teaching of the Vedas, by Rev. Morris Philip)
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