भारत के वामपंथी इतिहासकार भारत के सोलहवें महाजनपद कम्बोज को अफगानिस्तान, पाकिस्तान और कश्मीर में विस्तृत दिखाते हैं परन्तु आधुनिक ऐतिहासिक शोधों से स्पष्ट हो गया है कि प्राचीन कम्बोज मध्य एशिया के आधुनिक ताजीकिस्तान और उसके आसपास के क्षेत्रों में विस्तृत था. भारतीय इतिहासकार जिस कम्बोज महाजनपद को दिखाते हैं वे अधिकांशतः कम्बोजों के विजित भारतीय क्षेत्र थे.
कंबोज प्राचीन भारत के १६ महाजनपदों में से एक था. इसका उल्लेख पाणिनी के अष्टाध्यायी और बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तर निकाय और महावस्तु मे कई बार हुआ है. राजपुर (राजौरी), द्वारका (?) तथा कपिशा (काबुल से ५० मील उत्तर) इनके प्रमुख नगर थे. इसका उल्लेख इरानी प्राचीन लेखों में भी मिलता है जिसमें इसे राजा कम्बीजेस के प्रदेश से जोड़ा जाता है. (डॉ रतिभानु सिंह, प्राचीन भारत का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास. इलाहाबाद, पृ॰ ११२.)
वाल्मीकि-रामायण में कंबोज, बाह्लीक और वनायु देशों को श्रेष्ठ घोड़ों के लिये उत्तम देश बताया है. के पी जायसवाल के अनुसार कम्बोज अपने कुशल घुड़सवार योद्धाओं के लिए प्रसिद्ध थे, इसलिए, कम्बोज ‘अश्वक’ के नाम से भी जाने जाते थे.
कम्बोज क्षत्रिय थे
मनुस्मृति के श्लोक १०.४३-१०.४४ में उन क्षत्रियों का वर्णन है जो वैदिक संस्कृति का सही ढंग से पालन नहीं करने के कारण शूद्र वर्ण का कहे जाने लगे थे. वे जन थे: पौन्ड्रक, द्रविड़, कम्बोज, यवन, शक, परद, पहलव, चीना, किरात, दरद आदि. [Baldwin, John Denison (1871). Pre-historic Nations, p. 290. ISBN 1340096080]
इतिहासकार इश्वर मिश्रा के अनुसार ये लोग इंडो-आर्यन कहे जाते हैं. मनुस्मृति और महाभारत दोनों में कम्बोजों को क्षत्रिय बताया गया है जो वैदिक संस्कृति का सही ढंग से पालन नहीं करने के कारण पतित हो गये थे. (Encyclopedia of the Peoples of Asia and Oceania, Barbara A. West, p. 359). पाणिनि के सूत्र भी बताते हैं कि कम्बोज एक “क्षत्रिय राजशाही” था.
प्राचीन कम्बोज महाजनपद मध्य एशिया में था
महाभारत में अर्जुन की दिग्विजय के प्रसंग में कम्बोज का लोह और ऋषिक जनपदों के साथ उल्लेख है (सभा. २७, २५). महाभारत के अनुसार कम्बोज हिन्दुकुश के निकट दरदों के पड़ोसी थे और परमा कम्बोज हिन्दुकुश के पार ऋषिकों (तुखारों) के पड़ोसी थे जो फरगना क्षेत्र में रहते थे. भूगोलवेत्ता पोलेमी ने भी कम्बोजों को हिन्दुकुश के उत्तर और दक्षिण विस्तृत होने की बात लिखी है [Sethna, K. D., Problems of Ancient India, Aditya Prakashan].
हालाँकि कुछ अन्य इतिहासकार कम्बोजों को बल्ख, बदख्सां, पामीर और काफिरिस्तान में फैले हुए पाते हैं (Asoka and His Inscriptions, pp 93-96) और परमा-कम्बोज को उससे भी आगे उत्तर में पामीर क्षेत्र के पार Zeravshan घाटी में फरगना क्षेत्र की ओर (इश्वर मिश्रा १९८७). कुछ इतिहासकार आमू और सिर दरिया के पर्वतीय क्षेत्र, आधुनिक ताजीकिस्तान में भी प्राचीन कम्बोज महाजनपद के होने की पुष्टि करते हैं. [Central Asiatic Provinces of the Mauryan Empire, p 403, H. C. Seth; and Indian Historical Quarterly, Vol. XIII, 1937, No 3, p. 400]
परमा-कम्बोज का उल्लेख महाभारत में उत्तर-पश्चिम के दूरस्थ राज्य के रूप में बाह्लीक, उत्तर मद्र और उत्तर कुरु राज्यों के साथ साथ आया है. यह आधुनिक अफगानिस्तान, ताजीकिस्तान और उज्बेकिस्तान में स्थित था. डॉ बुद्ध प्रकाश के अनुसार कालिदास के रघुवंशम से पता चलता है कि रघु ने हूणों को वक्षु नदी (आमू दरिया) पर हराया था और उसके बाद वह कम्बोजों पर आक्रमण किया था जो पामीर और बदख्शां में रहते थे. [India and the World, 1964, p 71, Dr Buddha Prakash ]
बदख्शां पहले प्राचीन कम्बोज का हिस्सा था पर दूसरी शताब्दी में तुखारों ने इस पर और कुछ अन्य हिस्सों पर अधिकार कर लिया. जब चौथी पांचवी शताब्दी में तुखारों की स्थिति कमजोर हुई तो यहाँ के लोग फिर इस क्षेत्र को कम्बोज कहने लगे. [ Dr J. C. Vidyalankara; Bhartya Itihaas ki Ruprekha, p 534]
The Komedai of Ptolemy, the Kiumito of Xuanzang’s accounts, Kumed or Kumadh of some Muslim writers, Cambothi and Komedon of the Greek writers who lived in Buttamen Mountains (now in Tajikistan) in the upper Oxus (वक्षु) are believed by many scholars to be the Kambojas who were living neighbours to the Tukhara/Tusharas north of the Hindukush in the Oxus valley. The region was also known as Kumudadvipa of the Puranic texts, which the scholars identify with Sanskrit Kamboja. (विकिपीडिया, Kambojas)
एच सी सेठ भी आमू और सिर दरिया के पर्वतीय क्षेत्र, आधुनिक ताजीकिस्तान को प्राचीन कम्बोज राज्य चिन्हित करते हैं. [Central Asiatic Provinces of the Mauryan Empire, p 403, H. C. Seth]
राजतरंगिनी के अनुसार आठवीं शताब्दी में कश्मीर के राजा ललितादित्य ने कम्बोजों पर आक्रमण किया था जो उत्तरापथ के उत्तर दूर तक विस्तृत थे. डीसी सरकार के अनुसार यहाँ कम्बोजों को वक्षु नदी घाटी के पूर्वी हिस्से में बसे हुए बताया गया है जो पश्चिमी हिस्से में बसे तुखारों के पड़ोसी थे [Sircar, D. C. “The Land of the Kambojas”, Vol V, p. 250]
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है प्राचीन कम्बोज मध्य एशिया के आधुनिक ताजीकिस्तान और उसके आसपास के क्षेत्रों में विस्तृत था. कम्बोज महाजनपद के जिन क्षेत्रों को आधुनिक पाकिस्तान और कश्मीर में बताया जाता है वे कम्बोजों के विजित प्रदेश थे न कि मूल क्षेत्र.
प्राचीन कम्बोज अनार्य हो गये थे?
महाभारत के वर्णन में कंबोज देश के अनार्य रीति रिवाजों का आभास मिलता है. भीष्म. ९,६५ में कांबोजों को म्लेच्छजातीय बताया गया है. मनु ने भी कांबोजों को दस्यु नाम से अभिहित किया है तथा उन्हें म्लेच्छ भाषा बोलनेवाला बताया है (मनुस्मृति १०, ४४-४५). मनु की ही भाँति निरुक्तकार यास्क ने भी कम्बोजों की बोली को आर्य भाषा से भिन्न कहा है.
ऋग्वेद में वैदिक व्यापारियों के मार्गों में खलल डालने वाले, उन्हें लूट लेनेवाले जिन दस्युओं का उल्लेख बार बार आया है वे कम्बोज हो सकते हैं क्योंकि ये वैदिक व्यापार मार्ग सिल्क मार्ग पर स्थित थे. कम्बोज आर्य भाषा नहीं बोलते थे मतलब सतेम या संस्कृत भाषी नहीं थे. संभव है ऋग्वेद में इन्हें भी मृद्धवाची (विदेशी भाषा बोलनेवाला) कहा जाता हो.
उपर्युक्त तथ्यों से भी कम्बोज कि अवस्थिति मध्य एशिया ही प्रतीत होती है क्योंकि अफगानिस्तान, कश्मीर से गोदावरी तक भारत तो सतेम, संस्कृत या इसके प्राकृत भाषा का ही प्रयोग करते थे. इतिहासकारों का मानना है कि कम्बोज उत्तरापथ पर स्थित था जो बंग से कश्मीर, काबुल होते हुए मध्य एशिया जाता था. पर हमें ध्यान रखना होगा कि यही मार्ग कश्मीर में चीनी सिल्क मार्ग से भी जुड़ जाता था और चीनी तुर्किस्तान होते हुए मध्य एशिया पहुंचता था. यह भी सम्भव है प्राचीन काल में पूरा सिल्क मार्ग उत्तरापथ कहलाता हो. कम्बोज एक शक्तिशाली राज्य था और उसका विस्तार भारतीय उतरापथ और चीनी सिल्क मार्ग तक सम्भव है और ऐसा प्रमाण भी मिलता है.
परवर्ती कम्बोज में आर्य संस्कृति पुनः स्थापित हो गयी थी
अर्जुन के कम्बोज के विजय के बाद कम्बोज पुर्णतः आर्य संस्कृति के प्रभाव में आ गया. दुर्योधन कि पत्नी भानुमती कम्बोज के राजा चित्रांगद और रानी चन्द्रमुंद्रा की बेटी थी. संभवतः इसलिए कम्बोजों के नेतृत्व में शकों, यवनों आदि ने महाभारत में कौरवों के पक्ष में युद्ध किया था. पर महाभारत में पांडवों के विजय के बाद वह युद्धिष्ठिर के साम्राज्य का हिस्सा बन गया होगा. इसीलिए उसकी गणना परवर्ती काल में भारतवर्ष के महाजनपद के रूप में होने लगी थी.
कंबोज में बहुत प्राचीन काल से ही आर्यों की बस्तियाँ बिद्यमान थीं. इसका स्पष्ट निर्देश वंशब्राह्मण के उस उल्लेख से होता है जिसमें कांबोज औपमन्यव नामक आचार्य का प्रसंग है. यह आचार्य उपमन्यु गोत्र में उत्पन्न, मद्रगार के शिष्य और कंबोज देश के निवासी थे. इतिहासकार कीथ का अनुमान है कि इस प्रसंग में वर्णित औपमन्यव कांबोज और उनके गुरु मद्रगार के नामों से उत्तरमद्र और कंबोज देशों के सन्निकट संबंध का आभास मिलता है. बौद्ध ग्रंथ मज्झिमनिकाय से भी कंबोज में आर्य संस्कृति की विद्यमानता के बारे में सूचना मिलती है.
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कंबोज के ‘वार्ताशस्त्रोपजीवी’ संघ का उल्लेख है जिससे ज्ञात होता है कि मौर्यकाल से पूर्व यहां गणराज्य स्थापित था. अशोक के अभिलेखों में कांबोजों का उल्लेख नाभकों, नाभपंक्तियों, भोजपितिनकों और गंधारों आदि के साथ किया गया है (शिलालेख १३). इस धर्मलिपि से ज्ञात होता है कि यद्यपि कंबोज जनपद अशोक का सीमावर्ती प्रान्त था तथापि वहाँ भी उसके शासन का पूर्ण रूप से प्रचलन था. इससे भी कम्बोज मध्य एशिया के उत्तर-पूर्व अफगानिस्तान और ताजीकिस्तान का भाग प्रतीत होता है.
मुम्बई से प्रकाशित टाईम्स ऑफ़ इंडिया के ३० अगस्त १९८२ के सांध्य दैनिक में एक न्यूज प्रकाशित हुआ था कि ताजीकिस्तान (कम्बोज) में एक स्थान पर एक प्राचीन भवन की दीवार पर वैदिक रथ का चित्र रेखांकित पाया गया.
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