भारतवर्ष से यहूदियों के प्रस्थान मार्ग
यह शोध यहूदी “धर्म” के सम्बन्ध में नहीं बल्कि यहूदी लोगों के “मूल” और भारतियों के पश्चिम की ओर प्रव्रजन से सम्बन्धित है. आर्यों के आक्रमण/माईग्रेशन का सिद्धांत १९७० के दशक में झूठ और ब्रिटिश साम्राज्यवादी षड्यंत्र साबित होने के बाद आज ऐतिहासिक शोधों से साबित हो चूका है कि मेसोपोटामिया, सुमेर, बाल्टिक, ग्रीस तथा यूरोप के Druids, Celts, इटली के Etruscan आदि सभ्यताओं के जनक भारतीय लोग ही थे. यहूदी भी उन्हीं में से एक हैं जिसे इस लेख में १५ मानकों पर भारतीय मूल का साबित किया गया है. यह केवल इत्तेफाक है कि यहूदियों के प्राचीन इतिहास और संस्कृति के विश्लेषण से वे द्वारिका से निकले यदुवंशी साबित होते हैं.
महाभारत युद्ध के बाद पतिव्रता गांधारी के श्राप के प्रभाव से भगवान कृष्ण के वंशज यदुवंशी सत्तासंघर्ष में जुट गये और एक दुसरे पर मूसल (आणविक अस्त्र या रेडियोधर्मी पदार्थ) से प्रहार कर मरने लगे. भगवान कृष्ण की देहत्याग पश्चात यदुवंशियों और द्वारिका (सौराष्ट्र की राजधानी) का पतन और तेज हो गया. रेडियो उत्सर्जन, भूकम्प आदि कारकों ने द्वारिका और द्वारिकावासियों पर तबाही लाया और समुद्र ने द्वारिका को अपने में समाहित कर लिया. इन सम्पूर्ण तबाही के दौरान कुछ को छोड़कर यदुवंशी २२ जत्थों में द्वारिका से विभिन्न क्षेत्रों में प्रस्थान कर गये.
उनमे से कुछ भगवान कृष्ण के आदेश पर युधिष्ठिर के राज्य१ चले गये. कुछ जत्थे अगस्त्य ऋषि के साथ दक्षिण भारत में प्रस्थान कर गये. प्राचीन भारत के इतिहास पुस्तक में झा और श्रीमाली लिखते हैं की, “अगस्त्य ऋषि द्वारा द्वारका से अट्ठारह राजाओं के समूह, वेलिर के अठारह कुलों एवं अरुवालरों का नेतृत्व किया. इन्होने मार्ग में आने वाले वनों का नाश कर कृषि योग्य बनाया और बसते गये. दक्षिण के वेलिर जाति द्वारिकाधीश कृष्ण के वंशज माने जाते हैं.”
कुछ जत्थे उत्तर की ओर बढे और कश्मीर, तुर्किस्तान होते हुए इलावर्त (रूस) चले गये. १२ जत्थे पश्चिम एशिया की ओर निकले. उनमे से एक जत्था इराक के मोसूल में आकर रहने लगा. पश्चिम की ओर आने वाले ये सम्भवतः पहले यदुवंशी जत्थे थे जो मूसल युद्ध से हताहत होकर इस प्रदेश में आकर बसे थे (आधुनिक यजदी?). अन्य ग्यारह जत्थे भी मध्य एशिया से लेकर ग्रीक तक विभिन्न देशों में बस गये.
यहूदियों में फैले भ्रान्ति
वैसे इजरायल के यहूदी खुद को ईजिप्त से इस्रायेल भागकर आये हुए समझते हैं क्योंकि एसा हिब्रू बायबल में लिखा है. परन्तु विस्तृत अध्ययन से पता चलता है कि इस बात का न तो कोई एतिहासिक और न ही पुरातात्विक आधार है. सभी स्रोतों में इसे मिथक कहा गया है. हलांकि फिर भी कुछ लोगों का मानना है कि ये कभी दक्षिण ईजिप्त में रहे थे परन्तु वे मूलतः इजरायल के Cannan२ के कननाईट थे अर्थात वे ईजिप्त के मूल निवासी नहीं थे. अतः ईजिप्त यहूदियों का अपना देश कभी नहीं था. Cannan मूलतः कान्हा शब्द है और कननाईट कान्हापंथी ही थे. अतः सम्भव है कि जो यदुवंशी यहूदी कहलाये वे द्वारिका से निकलकर पहले Cannan में बसे हों, फिर वहां से अधिकांश लोग निकलकर ईजिप्त गये हों परन्तु वहां अनुकूल परिस्थिति नहीं होने के कारन वे वापस इस्रायल आ गये हों.
यहूदियों का संवत पासओवर वर्ष से प्रमाण
इतिहासकार पी एन ओक के दिए आंकड़े के अनुसार यहूदी लोगों का ईसवी सन २०१९-२० में ५७८० वा वर्ष चल रहा है. उन्होंने लिखा है, “उनके संवत को Passover वर्ष कहते हैं. Passover का अर्थ है देश छोड़कर निकल जाना. अर्थात उन्हें द्वारिका राज्य छोड़े और कृष्ण से बिछड़े हुए ५७८० वर्ष हो गये. वे जब द्वारिका से बिछड़े तब से उन्होंने निजी सम्वत गणना आरम्भ की. अतः महाभारतीय युद्ध हुए लगभग ५७८१ वर्ष होना चाहिए.”
हमारा संशोधन
यहाँ मैं कुछ संशोधन प्रस्तुत करना चाहता हूँ. कुछ इतिहासकार ज्योतिष और वैज्ञानिक गणना से महाभारत युद्ध के काल को ५५६१ ईसवी पूर्व से लेकर ३०६७ ईसवी पूर्व तक अपनी शोध रखते हैं. इतिहासकार पी एन ओक महाभारत युद्ध को यहाँ ३७६१ ईसवी पूर्व हुआ मानते हैं जो यहूदियों के अनुसार सृष्टि निर्माण का वर्ष है.
महान ज्योतिषाचार्य और गणितज्ञ पंडित आर्यभट्ट के अनुसार महाभारत युद्ध ३१३६ ईसवी पूर्व (एहोल अभिलेख के अनुसार ३१३७ ईसवी पूर्व) में हुआ था और भगवान श्रीकृष्ण का परिनिर्वाण १८ फरवरी, ३१०२ ईसवी पूर्व हुआ था और यही सर्वमान्य तिथि है. मैं भी आर्यभट्ट जैसे महान ज्योतिषविद और गणितज्ञ की गणना को ही सर्वोचित मानने के पक्ष में हूँ. तो फिर भगवान श्रीकृष्ण के परिनिर्वाण का वर्ष और यहूदियों के गृहत्याग के वर्ष में अंतर क्यों दिखाई देता है?
इस सवाल का जबाब ढूंढने केलिए मैंने विकिपीडिया३ हिब्रू केलेंडर और अन्य सम्बन्धित विकिपीडिया तथा इतिहास देखा तो पता चला की यहूदियों का जीवन एक दुर्धर्ष संघर्ष का काल रहा है. प्रारम्भ में तो इनके केलेंडर भारतीय पञ्चांग से बिलकुल मिलते थे परन्तु उन्हें सैकड़ों वर्ष बेबीलोनियनों (इराक में) के गुलाम बनकर भी रहना पड़ा जहाँ इनके केलेंडर में काफी परिवर्तन हुआ. फिर २०० ईसवी से ५०० ईसवी के बिच भी हिब्रू केलेंडर में कई गणितीय सुधार लागू हुआ.
मेरा मत है यह जो समय का अंतर है वह मूल हिब्रू केलेंडर में हुए विभिन्न सुधारों और समायोजन का परिणाम है. परन्तु, इनके केलेंडर से सम्बन्धित दो बातें महत्वपूर्ण है-एक तो ये passover फेस्टिवल बसंत ऋतू में मार्च-अप्रैल में अपने देश से बिछड़ने की याद में मनाते हैं. दूसरा, ये अपने केलेंडर को सृष्टि निर्माण के समय से प्रारम्भ मानते हैं और ये मानते हैं कि ३७६० ईसवी पूर्व में “एडम” पैदा हुआ था और तभी से उसका केलेंडर शुरू हुआ.
हिब्रू केलेंडर से प्रमाण
उपर्युक्त में से एक बात मैंने पहले ही बता दिया है कि ये ईजिप्त के मूल निवासी थे ही नहीं अर्थात ईजिप्त इनका अपना देश था ही नहीं तो ईजिप्त से बिछड़ने का सवाल ही नहीं उठता. दूसरी बात सिर्फ ३७६० ईसवी पूर्व सृष्टि निर्माण की बात भी झूठी है क्योंकि भारतीय पञ्चांग के अनुसार सृष्टि (पृथ्वी) निर्माण का काल १९७२६४८०८४ वर्ष पूर्व है. आधुनिक भौतिक शास्त्रियों का भी लगभग यही हिसाब है. परन्तु “बाईबल” में सृष्टि निर्माण का वर्ष महज ४००४ ईसवी पूर्व४ दिया हुआ है जिसके कारन यहूदी भी लगता है किसी कालखंड में भ्रम के शिकार हो गये.
फिर भी उपर्युक्त दोनों बातों से यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रारम्भिक यहूदी अपने देश से बिछड़ने के वर्ष से अपना केलेंडर प्रारम्भ किये थे पर वो देश ईजिप्त न होकर भारत था. उनका पञ्चांग वैदिक पञ्चांग का ही हिस्सा था क्योंकि उनका नया साल भी पहले वैदिक पञ्चांग की तरह बसंत ऋतु में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही प्रारम्भ होता था. ये अभी भी passover week बसंत ऋतु के प्रारम्भ में मार्च-अप्रैल में ही मनाते हैं. उनका पञ्चांग भी वैदिक पञ्चांग ही था क्योंकि वैदिक पञ्चांग ही सृष्टि के आरम्भ से प्रारम्भ होता है. पर लम्बे कालखंड और उथल पुथल में यहूदियों में इन दोनों बातों की अब स्मृति मात्र ही शेष रह गयी है.
और भी, यहूदी केलेंडर भी भारतीय पञ्चांग चन्द्रमास के अनुसार ही बारह चन्द्र मासों का होता है और प्रत्येक तिन वर्ष पर एक मल मास जुड़कर १३ महीने का वर्ष हो जाता है. दिन भी भारतीय पञ्चांग की तरह निश्चित नहीं है. भारतीय पञ्चांग की तरह सूर्यास्त से सूर्योदय तक रात्रि और सूर्योदय से सूर्यास्त तक दिन कहा जाता है. इस तरह हम देखते हैं कि यहूदियों का हिब्रू केलेंडर भी यहूदियों के भारतीय मूल के होने का मजबूत प्रमाण उपलब्ध कराता है.
विदेशी ग्रंथों से यहूदियों के भारतीय मूल के होने के प्रमाण
The Chosen People ग्रन्थ के लेखक अलेंग्रो लिखते हैं कि, “यहूदियों के प्रख्यात पूर्वज तथा उनके भगवान के नाम सेमेटिक (अर्थात अरबी) परम्परा के नहीं है. वे तो किसी प्राचीनतम पौर्वात्य सभ्यता ही नहीं अपितु प्राचीनतम जागतिक परम्परा के हैं.”
यहूदियों के पूर्वज और भगवान प्राचीनतम पौर्वात्य सभ्यता के होने का मतलब स्पष्ट है भारतीय पूर्वज और कृष्ण भगवान.
यहूदियों के प्रथम नेता अब्राहम माने गये हैं. यह ब्रह्मा शब्द ही है. उनके दूसरे देवता मोज़ेस (मूसा) कहलाते हैं. अब्राहम के बाद यहूदी इतिहास में सबसे बड़ा नाम पैगंबर मूसा का है. जो महेश अर्थात महान ईश्वर शब्द का विकृत उच्चार है. मूसा की जन्मकथा कृष्ण की जन्मकथा से मेल खाती है:
यहूदियों का मानना है कि मूसा मिस्र के फराओ के जमाने में हुए थे. उनको उनकी माँ ने नील नदी में बहा दिया था. उनको फिर किसी और की पत्नी ने पाला था. बाद में मूसा को मालूम हुआ कि वे तो यहूदी हैं और उनका यहूदी राष्ट्र अत्याचार सह रहा है तो उन्होंने यहूदियों को इकठ्ठाकर उनमें नई जागृति लाई. परमेश्वर की मदद से उन्होंने फराओ को हराकर यहूदियों को आजाद कराया.
उपर्युक्त यहूदी कथाओं में यहूदी को यदुवंशी, फराओ को कंस, नील को यमुना और मिस्र को मथुरा से प्रतिस्थापित कर दे तो मूसा की बालकथा कृष्ण की बालकथा प्रतीत होगी. श्रीकृष्ण का जैसा विराट रूप कुरुक्षेत्र में अर्जुन ने देखा वैसा ही विराट रूप यहूदी लोगों ने रेगिस्तान में मोज़ेस का देखा, एसा यहूदियों की दंतकथा है.
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम
श्रीमद्भगवत गीता की यही भविष्यवाणी यहूदी लोगों में भी प्रचलित है. अतः यह महा-ईश भगवान कृष्ण हो सकते हैं-पी एन ओक
“यहूदियों के नेता मोझेस के धर्मतत्व एक ईश्वर की कल्पना पर ही आधारित थे. वेदों का तात्पर्य भी वही है. मोझेस की धर्म-प्रणाली और सृष्टि-उत्पत्ति की धारणाएँ कुछ मात्रा में उसी हिन्दू वैदिक स्रोत की दिखती है.” (पृष्ठ १४४, The Theogony of the Hindus by कौन्ट विअन्स्तिअर्ना)
यहूदियों का मानना है कि नूह ने ईश्वर के आदेश पर जल प्रलय के समय बड़ी-सी किश्ती बनाई थी और उसमें सृष्टि के सभी प्राणियों को रखकर सृष्टि को बचाया था. भारतीय पौराणिक इतिहास में यही राजा मनु की भी कहानी है.
आधुनिक इतिहासकारों का मानना है कि नूह मनु: शब्द का ही अपभ्रंश है. इतना ही नहीं जैसे हिन्दू भगवान के अगले अवतार का इंतजार कर रहे हैं वैसे ही यहूदी भी भगवान (पैगम्बर) के अगले आगमन का इंतजार कर रहे हैं.
यहूदी भी पहले मूर्तिपूजक थे और मन्दिरों में पूजा करते थे
यदुवंशी जब द्वारिका से निकले थे तब भगवन कृष्ण की मूर्ति और अनेक ग्रन्थ लेकर निकले थे. परन्तु वे सैकड़ों वर्ष तक इधर उधर जंगल, पहाड़, रेगिस्तान में भटकते रहे, उधर का समाज भारत की तरह विकसित नहीं था. इसलिए ग्रन्थ समय के साथ धीरे धीरे कुछ यादों में सिमटकर खत्म हो गये. दूसरी बात, कठिन प्रवास के दौरान मूर्तियों का भार ढोना कठिन था, मूर्तियाँ टूट-फूट जाती थी, मन्दिर बनाकर मूर्ति स्थापित करते थे पर मन्दिरों की स्थायी देखभाल सम्भव नहीं था क्योंकि उनका जीवन खुद स्थायी नहीं था. उधर जल का भी आभाव था जो पूजा पाठ की पवित्रता में व्यवधान था.
उपर्युक्त कारणों से उनके हाथों से देव मूर्तियाँ निकलती चली गयी और मूर्ति पूजा बंद हो गया. अब वे एकजुट होकर किसी भी एक स्थान पर भगवान की प्रार्थना करने लगे. जहाँ प्रार्थना करते उस स्थान को संगम या समागम कहते जो बाद में Synagogue हो गया.
एडवर्ड पोकोक अपने ग्रन्थ इंडिया इन ग्रीस के पृष्ठ २२४ पर लिखते हैं, “यहूदी लोगों से यदि कोई पाप होता तो वे पहाड़ के उपर कुञ्जवनों में या वृक्ष के तले मन्दिर बनाते और उसमे “बाल” की मूर्ति स्थापना कर देते. मन्दिर के आगे स्तम्भ होता था. मन्दिर की वेदी पर धूप जलाते थे.”
उपर जिस ‘बाल’ की मूर्तिस्थापना की बात लिखी है वह बालकृष्ण की मूर्ति ही हो सकती है. बायबिल में भी यहूदी लोगों के भगवान का नाम “बाल” उल्लिखित है जो स्पष्टतया बालकृष्ण ही हैं-पी एन ओक
यहूदियों के इतिहास में यहूदियों के मन्दिरों में बाल(कृष्ण) के मन्दिर के अतिरिक्त सोने के गोवत्स की मूर्ति होने के भी उल्लेख मिलते हैं. यहूदियों का इतिहास उनके मन्दिरों के आधार पर प्रथम मन्दिर के काल का इतिहास, द्वितीय मन्दिर के कालखंड का इतिहास आदि लिखा जाता है.
इजिप्त से निकलकर यहूदी लोग उनके प्रदेश (इस्राएल) में आने से पूर्व कननाइट लोगों ने मूर्तिपूजा आरम्भ कर दिया था (पेज ४३, A complete History of Druids).
अर्थात जो यहूदी/यदुवंशी Cannan में ही रह गये थे वे वहां फिर मूर्तिपूजा करने लगे थे परन्तु जो यहूदी/यदुवंशी ईजिप्त चले गये थे उन्होंने मूर्तिपूजा बंद कर दिया था.
इतिहासकार पी एन ओक लिखते हैं, “सातवीं शताब्दी में मुस्लिमों द्वारा अधिकार करने से पूर्व जेरुसलेम के पूर्वी पहाड़ी पर स्थित Dome on the Rock मस्जिद स्वयंभू महादेव का मन्दिर था और अलअक्सा मस्जिद बालकृष्ण का मन्दिर था”.
इसका मतलब है ईजिप्त से आये यहूदियों जिन्होंने मूर्तिपूजा बन कर दिया था के प्रभाव तथा बाद में इस्लामिक आधिपत्य के काल में मन्दिरों और मूर्तिपूजा के अंत के कारन यहूदियों में मूर्तिपूजा पूरी तरह खत्म हो गया.
इराक में श्रीकृष्ण पूजा का प्रमाण
बालकृष्ण प्राचीन इराक के लोगों के भी प्रतिष्ठित देवता थे क्योंकि इराक के मोसूल में बसनेवाले लोग भी यदुवंशी ही थे. इसलिए उनका चित्र अभी भी इराक में सुरक्षित है. ऐसे ही चित्रों पर १९७९ में मोसूल में वसंतोत्सव के अवसर पर मोसूल के प्राचीन दैवी बालक का डाक टिकट जारी किए गये थे. इराक के मुसलमानों को नहीं पता की वे वास्तव में कौन हैं पर हम भारतवासी उन्हें देखते ही पहचान लेंगे की यह बाल श्रीकृष्ण हैं. वैसे अरबी आक्रमण से पूर्व इराक बौद्ध राज्य था और वहां बरमक/परमक बौद्ध के अधीन शासन था.
शब्दों और उच्चारणों के स्थानिक परिवर्तन से प्रमाण
यहूदी को अंग्रेजी में Jew कहा जाता है. यह मूल शब्द जदु अर्थात यदु का अपभ्रंश है. यहूदी पंथ को Judaism कहा जाता है, यह Yeduism का अपभ्रंश है. य का ज उच्चारण भी होता है जैसे यादव का जादव या जाधव, यदु-ज से जडेजा, यात्रा से जात्रा आदि. इसी पंथ का एक और नाम है Xionism यह Jewnism या जदुनिज्म अर्थात यदुपंथ शब्द है जिसका मतलब है यदुवंशी श्रीकृष्ण के अनुयायी.
अक्षरों और ध्वनियों के स्थानिक परिवर्तन से प्रमाण
मेरा मानना है Xionism शब्द कृष्निज्म अर्थात कृष्णपंथ भी हो सकता है. इसे समझने केलिए यूरोपीय देशों में अक्षरों और ध्वनियों के परिवर्तन को समझना पड़ेगा.
लेखक Spencer Lewis ने अपने ग्रन्थ The mystical Life of jesus के पृष्ठ १५६ पर लिखा है कि “क्रिस्तस नाम या उपाधि पूर्ववर्ती देशों के अनेक गूढ़ पंथों में देवावतार की द्योतक थी. क्रिस्तस यह मूलतः ईजिप्त के एक देवता का नाम था. ईजिप्त के लोग जिसे ‘ख’ कहते थे उसे ग्रीक ‘क्ष’ लिखते थे. ग्रीक ‘क्ष’ का उच्चारण ‘क’ भी किया जाता था. इसी कारन ईजिप्त का ‘खरु’ ग्रीक भाषा में ‘कृ’ लिखा जाता था.”
यहाँ क्रिस्तस मूलतः कृष्णस शब्द है. ‘ष्ण’ का उच्चारण ही ष्ट या स्त था. एसा उच्चारण भारत के कई प्रदेशों में भी होता है. अतः स्पष्ट है कि कृष्ण ही कृष्ट, कृष्त, ख्रीष्ट है और कृष्णनीति ही कृष्टनीति, क्रिस्तनीति, ख्रीष्टनीति या क्रिश्चियनीति है. संस्कृत ईशष कृष्ण का ग्रीक/रोमन उच्चार ही जीसस कृष्ट या जीसस क्राईस्ट है. ईश्वर का संस्कृत शब्द ईशष बाइबिल में Jesus, यहूदी में जबतक ‘c’ का उच्चारण ‘स’ होता रहा तब तक issac का उच्चारण ईशष; ‘c’ का उच्चारण ‘क’ होने पर आयझेक हो गया. उसी तरह इस्लाम का इशाक (issac) भी ईशष ही है-पी एन ओक
इजिप्त और यूनान में कृष्ण पूजा से प्रमाण
दूसरी बात, ईजिप्त में ब्रिटिश-फ़्रांस युद्ध (१७७८-१७८३ ईसवी) के समय भी कृष्ण मन्दिर था और ग्रीक के कोरिन्थ नगर के म्यूजियम में गौ चराते, बांसुरी बजाते कृष्ण की प्राचीन चित्र अभी भी है जो इस बात का प्रमाण है कि यूनान में भी भगवान कृष्ण की पूजा होती थी. Spencer Lewis ने लिखा है कि, “प्राचीन ग्रीक के लोग शुभ अक्षर XP लिखा करते थे”. X कृष्ण शब्द का अद्याक्षर था क्योंकि ग्रीक ‘क्ष’ का उच्चारण ‘क’ भी किया जाता था. उसी तरह P परमात्मा या परमेश्वर का. अतः शुभ अक्षर XP का मतलब था कृष्ण परमात्मा या कृष्ण परमेश्वर.
उपर के विश्लेष्ण से स्पष्ट है X कृष्ण शब्द का प्रतीक या आद्य अक्षर था. इसलिए Xionism वास्तव में कृष्निज्म अर्थात कृष्णपंथ शब्द है.
यहूदियों की हिब्रू भाषा से प्रमाण
यहूदियों की भाषा हब्रू के बारे में Encyclopaedia Judaica में लिखा है कि शब्द का पहला अक्षर ‘ह’ परमात्मा के नाम का संक्षिप्त रूप है. पर किस परमात्मा का किसी को पता नहीं है. ब्रू का क्या मतलब है इसपर चर्चा ही नहीं है क्योंकि उन्हें पता ही नहीं होगा. हम भारतीय बता सकते हैं कि ‘ह’ से हरि अर्थात विष्णु या कृष्ण और ‘ब्रू’ अर्थात ब्रूते या बोलता है. इस प्रकार हब्रू का मतलब है हरि बोलता था वह भाषा.
यहूदियों के धर्मचिन्ह से प्रमाण
यहूदी का धर्म चिन्ह षटकोण है जो वैदिक अनाहत चक्र या शक्तिचक्र का केन्द्रीय चक्र है. शक्ति के पूजक उसे शक्ति का प्रतीक मानकर पूजते हैं. दिल्ली के हुमायूँ की कब्र कही जाने वाली जो विशाल इमारत है उसके उपरले भाग में चारों तरफ बीसों ऐसे शक्तिचक्र बने हुए हैं जो संगमरमर प्रस्तर से ढंक दिए गये हैं-पी एन ओक बंगाल के त्रिवेणी, हुगली में स्थित विष्णु मन्दिर जो अब जफर खान गाजी मस्जिद और मकबरा कहा जाता है उसके दीवार पर भी ठीक यहूदियों के धर्म चिन्ह जैसा ही वैदिक अनाहत चक्र या शक्ति चक्र बना हुआ है.
यहूदियों के विवाह और दीपोत्सव से प्रमाण
यहूदी लोग भी आर्य संस्कृति की तरह प्रेम विवाह की जगह कुटुंबसम्मत विवाह को वरीयता देते हैं. वे भी मंडपों में विवाह संस्कार कराना शुभ समझते हैं. यहूदी लोग भी दीपावली की तरह दीप जलाकर एक पर्व मनाते हैं. यहूदी भी वृक्ष पूजन करते हैं.
यहूदियों के शिलालेख से प्रमाण
मार्कोपोलो ने अपने प्रवास वर्णन के ग्रन्थ में पृष्ठ ३४६ पर चीन के कायफुन्गफु नगर में यहूदियों की एक बस्ती में मिले एक यहूदी शिलालेख में लिखी बातों का उल्लेख किया है. उसमें लिखा है, “With respect to the Israelitish religion we find an inquiry that its first ancestor, Adam came originally from India and that during the (period of the) Chau State the sacred writings were already in existence. The sacred writings embodying eternal reason consist of 53 sections. The principles therein contained are very abstruse and the external reason therein revealed is very mysterious being treated with the same veneration as Heaven. The founder of the religion is Abraham, who is considered the first teacher of it. Then came Moses, who established the law, and handed down the sacred writings. After his time this religion entered China”
उपर के उद्धरण से स्पष्ट है यहूदी धर्म का मूलव्यक्ति Adam (संस्कृत आदिम) भारतीय था अर्थात मनु थे, sacred writings से वेदों या गीता की बात कही गयी है, संस्थापक अब्राहम कोई और नहीं ब्रह्मा हैं, मोज़ेस विष्णु (या कृष्ण) हैं और अंतिम पंक्ति की अंतिम बात यह की उसके बाद चीन में वह धर्म अर्थात वैदिक धर्म प्रवेश किया अर्थात चीन वैदिक आर्य संस्कृति और वैदिक धर्मी हो गया था.
भारत होकर पूरे विश्व में मानव विस्तार की आउट ऑफ़ अफ्रीका सिद्धांत से प्रमाण
Recombinational Analysis के आधार पर आउट ऑफ़ अफ्रीका सिद्धांत जो बनाया गया है वो बताता है कि प्रारम्भिक मानवों की उत्पत्ति अफ्रीका के नेजिरिया और केन्या में हुई और वे सोमालिया और इथियोपिया के रास्ते अरब प्रायद्वीप से होते हुए लाल सागर पारकर बलूचिस्तान और सिंध के रास्ते भारतवर्ष में प्रवेश किये और गुजरात, महाराष्ट्र के तटवर्ती सीमा से होते हुए कर्नाटक, केरल तमिलनाडू गये और फिर वहां से चोल और कलिंग साम्राज्य के विस्तार के सहारे दक्षिण पूर्व एशिया और उत्तरपूर्व एशिया में फैले.
दूसरी तरफ उत्तर भारत के गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र से मानव निकलकर पश्चिम की ओर दो भिन्न शाखाओं में प्रस्थान किये. एक शाखा उत्तर पश्चिम की ओर बढ़ते हुए रूस के चेचन्या से होते हुए स्केंडेनेविया और पूरे यूरोप में फ़ैल गया और दूसरी शाखा ईरान, इराक, अरब, इजिप्त होते हुए मोरोक्को चले गये और इसी की एक शाखा ग्रीस अर्थात यूनान भी पहुंचे. पहली शाखा के लोग यूरोप के ड्रुइडस, इटली के एट्रुसकन, स्पेन, पुर्तगाल, फ़्रांस अर्थात गाल प्रदेश के गाल या सेल्ट्स आदि कहलाये. ये सभी वैदिक संस्कृति को मानने वाले लोग थे. ये भारत से कब प्रस्थान किये थे अभी निश्चित कहना मुश्किल है.
गुजरात से पश्चिम की ओर ईरान से होते हुए इराक, अरब, इजिप्त और यूनान जाने वाले लोग जो खुद को सेमेटिक (श्यामेटिक अर्थात श्याम पंथी), कननाईट अर्थात कान्हापंथी कहते थे वे यदुवंशी थे. वास्तव में यह दूसरी शाखा के लोगों का एक हिस्सा ही यहूदी कहलाया. इस शाखा का कुछ हिस्सा इराक के मोसूल में रह गया, कुछ इजरायल में रह गया और कुछ इजिप्त चला गया. इजरायल में रह गये कननाईट यदुवंशी और इजिप्त से प्रताड़ित होकर वापस इजरायल आये कननाईट यदुवंशी मूल यहूदी लोग थे जिसमें बाद में अरब के सेमेटिक लोग भी जुड़ गये.
१. युधिष्ठिर चक्रबर्ती सम्राट थे जिसकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ थी. महाभारत के बाद लगभग सम्पूर्ण भारतवर्ष इंद्रप्रस्थ के नियन्त्रण में था या स्थानीय क्षत्रप इन्द्रप्रस्थ के अधीन शासन करते थे. परीक्षित को भारतवर्ष का सम्राट कहा गया है. भारतवर्ष को कुछ लोग ईरान सीमा से वर्तमान अफगान, तिब्बत, कश्मीर होते हुए ब्रह्मदेश, बांग्लादेश सहित दक्षिण तक मानते हैं. वहीं कुछ लोगों का मत है कि प्राचीन भारतवर्ष पूरे जम्बुद्वीप (एशिया) में विस्तृत था.
२. सम्भवतः इस्राएल (ईश्वरालय)
३. en.wikipedia.org/wiki/Hebrew_calendar
मुख्य स्रोत: वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास, लेखक-पी एन ओक
अन्य स्रोत: विकिपीडिया एवं अन्य
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