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मध्य एशिया का वैदिक इतिहास-सावित्री-सत्यवान से बौद्ध राज्यों के उदय तक

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मध्य एशिया का ताजीकिस्तान, कीर्गीस्तान, उज्बेकिस्तान और तुर्कमेनिस्तान आधुनिक भारत, अफगानिस्तान, ईरान से उपर काश्पीय सागर तक विस्तृत है. यही वह क्षेत्र है जहाँ से आर्यजन द्रविड़ों या असुरों को खदेड़ते हुए हड़प्पा सभ्यता को नष्ट करते हुए १५०० ईस्वीपूर्व भारत में घुस आये थे ऐसा झूठ साम्राज्यवादी और वामपंथी इतिहासकार फैला रखे थे. कारण था यहाँ उन्हें प्राचीन वैदिक संस्कृति के विपुल प्रमाण मिले थे और उनमें से सबसे प्रमुख प्रमाण ये लोग यह मानते थे कि इस क्षेत्र के लोगों के देवी देवताओं के नाम ठीक वही हैं जो आर्यों का था या भारतियों का है. इसलिए प्राचीन मध्य एशिया में वैदिक आर्य सभ्यता, संस्कृति, धर्म, परम्परा थी और वहां के लोग भी पहले सनातन धर्मी हिन्दू ही थे यह मुझे साबित करने कि जरूरत नहीं है.

दूसरी बात जो साम्राज्यवादी और वामपंथी इतिहासकार प्रमुख रूप से उल्लेख करते हैं वह यह कि इसी मध्य एशिया में “मीदिया” स्थित था जहाँ के लोग मन्द या मिदी कहलाते थे वहाँ से कुछ आर्यगण ईरान कि ओर पलायन कर गए और बड़ी संख्यां में आर्यगण भारत कि ओर दौड़ पड़े. ऐसी क्या विपदा आ पड़ी थी, ऐसा क्या कारण था कि उन्हें अपना मूल निवास स्थान छोड़कर कुछ को ईरान और बाकी को भारत आना पड़ा इस सवाल का इनके पास कोई जबाब ही नहीं है. इसलिए इन “मन्दबुद्धियों” के इस बात पर भी तर्क वितर्क कर समय बर्बाद करने कि आवश्यकता नहीं है क्योंकि वैसे भी आर्यों के आक्रमण का सिद्धांत या आर्यों के माईग्रेशन का सिद्धांत आदि सत्तर के दशक में ही फर्जी, मनगढ़ंत और साम्राज्यवादी षड्यंत्र साबित हो चूका है.

हमारा शोध और प्रमाण

हम आपको यह बतायेंगे कि मिदिया से ईरान और भारत की ओर आर्यों के माईग्रेशन की वास्तविकता क्या है और साबित करेंगे मध्य एशिया का ये क्षेत्र भारतवर्ष केलिए विलायंत नहीं था बल्कि अति प्राचीन काल से भारतवर्ष का ही हिस्सा रहा है. हम साबित करेंगे कि भारत में हर लोगों कि जुबां पर जिस सौभाग्यशाली सती सावित्री और सत्यवान कि कथा रहती है वे इसी क्षेत्र के राजकुमार और राजकुमारी थे. मीदिया वास्तव में मद्र राज्य था और महाराज पांडू की छोटी पत्नी और नकुल सहदेव कि माता माद्री मद्र राज्य कि ही राजकुमारी थी. उनके मामा शल्य मध्य एशिया के देश साल्व के ही राजा थे और साबित भी करेंगे. और फिर मध्य एशिया के हिन्दू राजा और प्रजा कैसे और किनके शासन में बौद्ध बन गये इस पर भी चर्चा करेंगे.

ग्रियर्सन के अनुसार मिदिया के लोग आर्य थे और २५०० ईस्वीपूर्व में यहाँ थे. मिदिया में आर्यों कि धाक थी. इन्होने सुबर्तु (?) को पराजित किया था. उनके देवता वे ही थे जिनके नाम बाद में हम भारत में पाते हैं और यह कि वे सतेम भाषी थे, जो प्राचीन संस्कृत से अधिक निकटता रखती है.

मिदिया के लोगों के विषय में टिपण्णी करते हुए विल दुर्रौ लिखते हैं, “मिदिया के लोग कौन थे उनका उद्भव हमें नहीं पता. इनका प्रथम उल्लेख हमें कुर्दिस्तान कि पहाड़ियों में परशुआ नामक स्थान में शालमानेजार तृतीय के अभियान में दर्ज एक फलक पर मिलता है. इससे पता चलता है कि अहमदई, मदई या मीदी (अर्थात मिदिया के लोग) कहे जानेवाले लोगों द्वारा विरल रूप में आबाद इस क्षेत्र के सत्ताईस सरदार राज्य करते थे.” (Our Oriental Heritage, New York, Writer-Will Durant, Page-350)

वायुपुराण के अनुसार मद्र राज्य कि स्थापना उशिनारा के पुत्र शिबी ने किया था जो ययाति के पुत्र अनु के वंशज थे. भागवत पुराण के अनुसार मद्र राज्य कि स्थापना मद्र ने किया था जो त्रेतायुग में ययाति के पुत्र अनु के वंशज शिबी के पुत्र थे. अर्थात मद्र राज्य कि स्थापना उशिनारा पुत्र शिबी ने किया था और नाम अपने पुत्र मद्र के नाम पर रखा था या खुद शिबी पुत्र मद्र ने ही मद्र राज्य कि स्थापना की थी.

महाभारत के अनुसार साल्व और मद्र दोनों जुड़वाँ राज्य थे, उनके पूर्वज भी दोनों एक ही थे. ये महाराज पुरु के वंशज व्युशिताश्व के सन्तति थे. उन्होंने अश्वमेध यज्ञ किया था पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण चारों और अपने साम्राज्य का विस्तार किया था. उनके सात पुत्र थे जिनमे तिन साल्व के राजा और चार मद्र के राजा बने.

उपर्युक्त दोनों विवरणों से निष्कर्ष यह निकलता है कि मद्र राज्य कि स्थापना ययाति के पुत्र अनु के वंशजों ने की थी (क्योंकि पौराणिक इतिहास अधिक प्राचीन हैं) पर कालांतर में ययाति के पुत्र पुरु के वंशजों ने उस पर अधिकार कर लिया. उन्होंने दिग्विजय कर मद्र राज्य का चारों दिशा में विस्तार किया और मद्र राज्य उत्तर मद्र, दक्षिण मद्र, पश्चिम और पूर्व मद्र में विभक्त कर चार पुरुवंशी राजाओं ने राज्य किया. उत्तर मद्र और दक्षिण मद्र कि चर्चा लगभग सभी ऐतिहासिक ग्रंथों में मिलता है. पश्चिम मद्र कि चर्चा पाणिनि ने अपने ग्रन्थ में किया है. साल्व राज्य संभवतः मद्र से सटे पश्चिम में स्थित था जिसे मद्र ने अपने अधीन कर लिया था और इसलिए मद्र कि सीमा सीरिया को स्पर्श करने लगी थी जैसा कि निचे के विवरणों से पता चलता है.

The kingdom of Madra’s boundaries are believed to have extended from Syria and portions of Mesopotamia to the present day (Madra). Some support for this belief lies within the ancient epic, the Mahabharata that describes the armies of the Madra Kingdom led by King Shalya, marching from ancient Syria to what would be known today as Haryana. (Menon, Ramesh (2006), The Mahabharata, A modern rendering. iUniverse. ISBN 9780595401888 . Ancient Peoples of the Punjab. University of Minnesota: K. L. Mukhopadhyaya. pp. vi, 7–8.)

सत्यवान, सावित्री और माद्री कि कथा से प्रमाण

भारतीय ग्रंथों में वर्णित प्राचीन भारतवर्ष के राज्य, साभार विकिपीडिया

मिदिया अर्थात मद्र राज्य के एक राजा अश्वपति निसंतान थे. वे अपनी पत्नी मालविका सहित सवित्र (सूर्य) देव कि सन्तान प्राप्ति हेतु पूजा करते थे जिनके आशीर्वाद से उन्हें एक पुत्री हुई जिसका नाम उन्होंने सावित्री रखा. ज्ञातव्य है कि न सिर्फ सावित्री कि कथा बल्कि सन्तान प्राप्ति हेतु सूर्य देव कि पूजा भी छठ पर्व के रूप में आज भी भारतियों के दिल और दिमाग में बैठा हुआ है.

सावित्री जब बड़ी हुई तो मद्र नरेश अश्वपति ने उसे अपने लिए खुद वर ढूंढने कि अनुमति दे दी क्योंकि वैदिक काल में राजपुत्रियों के स्वयं वर चुनने कि प्रथा दिखाई देती है. अपने लिए पति कि तलाश करते करते वह पड़ोस की साल्व देश पहुँच गयी जहाँ उसे सत्यवान से भेंट हुई. सत्यवान साल्व नरेश द्युमत्ससेन का पुत्र और राजकुमार था. साल्व नरेश दृष्टिहीन हो गये थे और अपनी पत्नी सहित वन में रह रहे थे जहाँ पुत्र सत्यवान उनकी सेवा करता था.

महाभारत में साल्व और मद्र को कभी पश्चिम तो कभी पश्चिमोत्तर भारतवर्ष का राज्य कहा गया है. इससे स्पष्ट है कम से कम मध्य एशिया का मद्र और साल्व राज्य तक भूमि को भारतवर्ष कहा जाता था. दूसरी बात इसे भारतवर्ष के पश्चिम का राज्य भी कहा गया है जो आज अफगानिस्तान के पश्चिम में है जो प्राचीनकाल में आर्याना के नाम से भी जाना था जिसकी राजधानी सम्भवतः गांधार थी. पांडू कि छोटी पत्नी और नकुल सहदेव कि माता माद्री दक्षिण मद्र कि राजकुमारी थी जबकि उनके मामा शल्य उत्तर-पश्चिम मद्र सहित साल्व के राजा थे.

ऐतिहासिक ग्रंथों से प्रमाण

इतिहासकार भगवान सिंह लिखते हैं मन्द या मिदिया पौराणिक काल का उत्तर मद्र लगता है और सम्भवतः इसके दायरे में मंदर से उत्तर-पश्चिम का क्षेत्र आता था. इसके लिए मन्द, मन्द्र आदि शब्द प्रचलित थे. ऋग्वेद में इनके लिए मान्दार्य शब्द का प्रयोग मिलता है.

महाभारत में एक स्थान पर मद्र अथवा मिदिया और मन्दराचल के अवस्थिति का विवरण इन रूपों में आया है:

मद्र कि रक्षा इंद्र और कुबेर करते हैं. इस क्षेत्र में सूर्य कि आभा क्षीण हो जाती है. इसकी दिशा पश्चिमोत्तर है. यह क्षेत्र बहुत दूर तक विस्तृत है. यहाँ स्वर्ण पर्वतों और स्वर्णवाहिनी नदियों का अस्तित्व है. यहाँ से सूर्य बहुत तिरछा दिखाई देता है. इस क्षेत्र में नित्य प्रवाहमान नदियों से बने सागर हैं. इस क्षेत्र में पहुंचने केलिए दो बार दर्रों को पार करना पड़ता है. वहीँ कश्यप और मारीच ऋषियों का निवास है. (हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य, लेखक भगवान सिंह)

उपर्युक्त ऐतिहासिक विवरण से स्पष्ट है मध्य एशिया प्राचीन भारतवर्ष का एक हिस्सा था और मद्र राज्य कि स्थापना तो राजा ययाति के वंशज ने त्रेतायुग युग में ही किया था. इसलिए यह कहना कि मध्य एशिया में प्राचीन वैदिक संस्कृति के बहुत साक्ष्य मिलते हैं इसलिए भारतीय अर्थात आर्य लोग मध्य एशिया से ही भारत आये होंगे विदेशी इतिहासकारों कि अज्ञानता और उनके गुलाम वामपंथी इतिहासकारों की मानसिक विकलांगता है और कुछ नहीं. इसलिए बुद्धिमान जनों को इनपर तर्क वितर्क करने कि आवश्यकता ही नहीं है.

मिदीया अथवा मद्र देश से आर्यों के ईरान की ओर प्रस्थान की सच्चाई

अब बताते हैं कुछ आर्यों के ईरान कि ओर जाने कि असलियत क्या है. दरअसल, भारतीय और ईरानी शाखाओं के बिच जिस धार्मिक मतभेद को आजतक प्रव्रजन का कारन बताया जाता रहा है उसके विषय में गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी यह कथा प्रस्तुत करते हैं,

“ऋग्वेद के दसवें मंडल के ८६ वें सूक्त से आरम्भ करके आगे के सूक्तों में एक वाक्क्लह का संकेत प्राप्त होता है. ऋज्रास्व ऋषि का दौहित्र जरथुस्त्र नाम का एक व्यक्ति हुआ उसके हृदय में स्वभावतः उस काल के ब्राह्मणों के प्रति द्वेष था. जरथुष्ट्र ने परम्परा से चले आते हुए इंद्र के प्राधान्य को अस्वीकार किया और इसके स्थान पर वरुण को प्रतिष्ठित किया. इसका संकेत ऋकसंहिता के नेद्र देवममंसत मंत्राश में पाया जाता है. उपस्थित ऋषियों में न्रिमेध, वामदेव, गार्ग्य अदि ने इंद्र का पक्ष लिया और सुपर्ण, कण्व, भरद्वाज आदि ने वरुण का पक्ष लिया तथा वशिष्ठ आदि ऋषियों ने अपने अपने स्थान पर दोनों का सम्मान माना. अतः वरुण के समर्थक जरथुस्त्र के नेतृत्व में “भारत से ईरान” की ओर प्रस्थान कर गये. (गिरधर शर्मा चतुर्वेदी, वैदिक विज्ञान और भारतीय संस्कृति, पटना तथा Indian Civilisation in the Rigvedas, Yeotmal by P R Deshmukh)

ध्यान दीजिये उपर्युक्त दोनों इतिहासकारों ने मध्य एशिया में विस्तृत मिदिया अर्थात मद्र को भारत का हिस्सा माना है इसलिए उन्होंने “भारत से ईरान की ओर प्रस्थान कर गये” ऐसा लिखा है. रही बात इस घटना के कालनिर्धारण की तो ऋषि मुनियों के आये नाम से यह घटना त्रेतायुग की लगती है. भृगुवंशी जरथ्रुष्ट ईरान में आकर अपने मत का प्रचार प्रसार किया. कुछ स्रोतों से पता चलता है कि स्वयं भृगु ऋषि का जन्म भी आज के ईरान में ही हुआ था और भृगुकच्छ (भरूच) में ईरान से आकर ही बसे थे.

पार्थियन/पहलव क्षत्रिय ईरान पर शासन करते थे. इनका उल्लेख महाभारत में क्षत्रिय के रूप में ही हुआ है. ससानिद और समानिद क्षत्रिय मूलतः ईरान के ही हो सकते हैं जो बाद में मध्य एशिया और खोरासन में आकर बसे थे. समानिद क्षत्रिय अपने नाम के अंत में “मनु:” शब्द का संक्षिप्त रूप “नूह” शब्द का प्रयोग उपाधि या सरनेम के रूप में करते थे. इससे इतिहासकार पी एन ओक अनुमान लगाते हैं कि ये लोग मनुस्मृति के पालक और संरक्षक क्षत्रिय रहे हो सकते हैं.

इतिहासकार पी एन ओक लिखते हैं, “ईरान में प्रजा राज्य स्थापित होने से पूर्व जो अंतिम राजकुल था वह पहलवी घराना था. पहलवी वैदिक धर्म को मानने वाले क्षत्रिय लोग थे. महाभारत और पुराणों में उसका उल्लेख है. वशिष्ठ की कामधेनु जब विश्वामित्र छीनकर ले जाने लगे तो उस कामधेनु का रक्षण करने केलिए जो क्षत्रिय कुल दौड़ता आया वह पह्लव ही थे”

परशुराम ने इक्कीस बार विश्व में संचार कर उत्पातशील क्षत्रियों का दमन किया था. उनमे से एक बार उन्होंने भारतवर्ष का वह हिस्सा जिसे आज ईरान कहा जाता है पर चढ़ाई की. एडवर्ड पोकोक ने अपने ग्रन्थ इण्डिया इन ग्रीस पुस्तक के पृष्ठ ४५ पर लिखा है कि परशुधारी परशुराम के ईरान को जीतने पर उस देश का परशु से पारसिक उर्फ़ पर्शिय एसा नाम पड़ा.

उन्होंने अपने ग्रन्थ में यह भी लिखा है कि, “ईरान, कोलचिस और आर्मेनिया के प्राचीन नक्शे से उन प्रदेशों में भारतीय बसे थे इसके स्पष्ट और आश्चर्यकारी प्रमाण मिलते हैं. और रामायण तथा महाभारत के अनेक तथ्यों के वहां प्रमाण मिलते हैं. उन सारे नक्शे में बड़ी मात्रा में उन प्रदेशों में भारतियों के बस्ती का विपुल ब्यौरा मिलता है. (Page 47, India in Greece by Edward Pococke)

क्या मध्य एशिया में सिर्फ भारतीय व्यापारिक प्रतिष्ठान ही थे?

आउट ऑफ़ इंडिया सिद्धांत को मानने वाले इतिहासकार मध्य एशिया में मिले वैदिक सभ्यता, संस्कृति, धर्म और परम्परा के प्रचुर प्रमाण मिलने का कारण वे भारत से व्यापार करने गये लोगों के वहां प्रचुर व्यापारिक प्रतिष्ठान होने और वहां भारतियों कि बहुत सारी बस्तियां बस जाने को कारण मानते हैं. जैसे इतिहासकार भगवान सिंह कहते हैं, “इस बात कि हर सम्भावना दिखाई देती है कि मिदिया के आर्य भाषा-भाषी इस क्षेत्र में भारत से गए रहे हो सकते हैं या कम से कम भारतीय व्यापारियों के निकट सम्पर्क में थे.”

साभार ब्रिटेनिका

भगवान सिंह मानते हैं कि वैदिक आर्यों का व्यापार बहुत विकसित था और विदेश व्यापर बृहत् स्तर पर होता था. मध्य एशिया प्राक वैदिक काल से सर्वाधिक व्यस्त व्यापारिक मार्ग सिल्क मार्ग पर स्थित था जहाँ ताम्रलिप्ति (बंग) से सिल्क मार्ग (जी टी रोड) होकर मध्य एशिया और फिर मध्य एशिया से यूरोप को व्यापक मात्रा में व्यापार होता था. परिपक्व हड़प्पा काल से भी पूर्व भारतीय वैदिक व्यापारियों का व्यापार उच्चतम स्तर पर होता था. इसलिए मध्य एशिया में भारतीय व्यापारियों के स्थायी व्यापारिक प्रतिष्ठान थे और भारतियों कि बस्तियां भी बसी हुई थी. अतः मध्य एशिया में जो वैदिक सभ्यता, संस्कृति, धर्म, परम्परा के जो विपुल प्रमाण मिलते हैं वह वास्तव में इन भारतियों के कारण से ही है.

नमाज्गा, हिसार, आल्तिन देपे, तेजेन डेल्टा, कयिजिल कुम, शोर्तुगाई आदि स्थलों का हडप्पा सभ्यता से प्रकट सम्बन्ध दिखाई देता है, जो कतिपय मामलों में परिपक्व हड़प्पा काल से भी पहले आरम्भ हो गया था. इसी क्षेत्र के पश्चिमी भाग केलिए मिदिया शब्द का प्रयोग होता रहा है. इनका प्रसार केंद्र सोवियत विद्वानों ने भी भारत को माना है. (हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य, लेखक भगवान सिंह)

Our Oriental Heritage के लेखक Will Durant ने अपने किताब में लिखा है कि ईस्वीसन कि शुरुआत से १५०० ईस्वी तक विश्व के कुल व्यापार में भारत की हिस्सेदारी दो-तिहाई था.

मेरा इतिहासकार भगवान सिंह से थोड़ा सा मतभेद है. मध्य एशिया बृहत् व्यापारिक क्षेत्र था ठीक है. पर सिल्क मार्ग से चीन का व्यापार भी बृहत् स्तर पर होता था. चीन के व्यापारी भी मध्य एशिया में रुकते थे क्योंकि यूरोप की ओर व्यापार केलिए मध्य एशिया एक व्यापारिक चौराहे का काम करता था. अतः उनके भी व्यापारिक प्रतिष्ठान वहां रहे होंगे. तो फिर वहां से प्राचीन चीनियों के सभ्यता, संस्कृति और धर्म के अवशेष भी वैसे ही मिलने चाहिए थे जैसे भारतियों के मिलते हैं?

उज्बेकिस्तान के ताज खोविल पैलेस में स्थित एक मंदिरनुमा पत्थर पर स्वातिक

पर ऐसा नहीं है. अतः यह कहना कि मध्य एशिया में वैदिक सभ्यता संस्कृति धर्म परम्परा के चिन्ह विपुल मात्रा मिलने का कारण केवल व्यापार, व्यापार केलिए बने प्रतिष्ठान और व्यापार केलिए गये भारतियों के कारण है तो यह अधूरी बात होगी. वास्तविकता वह है जो इतिहास मैंने उपर लिखा है कि वहां भारतीय त्रेतायुग या उससे पहले ही बस गये थे और यह कि मध्य एशिया भी प्राचीन भारतवर्ष का हिस्सा था. इतना ही नहीं ग्रीकों और बौद्धों से पूर्व मध्य एशिया के लोग आर्य संस्कृति को मानने वाले लोग ही थे और जो लोग बाद में बौद्ध बने वे हिन्दू ही थे. इस बात का विस्तृत प्रमाण आगे लेख में दिया जायेगा.

गोडफ्रे हिगिंस के ग्रन्थ The Celtic Druids के पृष्ठ ४३ से ५९ पर उल्लेख है कि “भारत के नगरकोट, कश्मीर और वाराणसी नगरों में, रशिया के समरकंद नगर में बड़े विद्याकेंद्र थे जहाँ विपुल संस्कृत साहित्य था.” समरकन्द मध्य एशिया का देश उज्बेकिस्तान का एक शहर है. इन्होने “विद्याकेंद्र” लिखा है व्यापार केंद्र नहीं.

लेखक Marie Grahams लिखते हैं, “प्राचीनकाल से भारत और समरकंद में लोगों का आना-जाना बड़े प्रमाण में बराबर होता रहा है. बाह्लीक प्रदेश (बल्ख) और अन्य उत्तरी नगरों में अनादिकाल से हिन्दुओं की बस्तियां हैं. हिन्दुओं का यहाँ एक प्राचीन तीर्थस्थल भी है जिसका नाम ज्वालामुखी है. वह काश्यपीय  (Caspian) सागर तट पर स्थित है.” (letters on India, Writer-Marie Grahams)

भारत के १६ महाजनपदों में एक कम्बोज मध्य एशिया में था

साभार विकिपीडिया

कंबोज प्राचीन भारत के १६ महाजनपदों में से एक था. इसका उल्लेख पाणिनी के अष्टाध्यायी और बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तर निकाय और महावस्तु मे कई बार हुआ है. राजपुर, द्वारका तथा कपिशा इनके प्रमुख नगर थे. इसका उल्लेख इरानी प्राचीन लेखों में भी मिलता है जिसमें इसे राजा कम्बीजेस के प्रदेश से जोड़ा जाता है. (डॉ रतिभानु सिंह (१९७४). प्राचीन भारत का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास. इलाहाबाद, पृ॰ ११२.)

वाल्मीकि-रामायण में कंबोज, बाह्लीक और वनायु देशों को श्रेष्ठ घोड़ों के लिये उत्तम देश बताया है.  महाभारत में अर्जुन की दिग्विजय के प्रसंग में कम्बोज का लोह और ऋषिक जनपदों के साथ उल्लेख है (सभा. २७, २५)

ऋषिक यूची का रूपांतरण जान पड़ता है. यूची जाति का निवास स्थान शिनजियांग प्रान्त के घास स्थल में माना जाता है. प्रसिद्ध बौद्ध सम्राट् कनिष्क का रक्तसंबंध इसी जाति के कुशान नामक कबीले से था. (विकिपीडिया)

इतिहासकार पी एन ओक रशिया का प्राचीन नाम ऋषिय प्रदेश बताते हैं क्योंकि उनके अनुसार यह प्रदेश ऋषियों, मुनियों का तपस्या स्थल हुआ करता था. अतः मेरा मत है कि ऋषिक जनपद का मतलब ऋषिय प्रदेश (रशिया) के जनपद से भी हो सकता है. कम्बोज का ताजीकिस्तान वाला हिस्सा कुछ दशक पूर्व तक सोवियत रूस का ही हिस्सा था.

महाभारत के वर्णन में कंबोज देश के अनार्य रीति रिवाजों का आभास मिलता है. भीष्म. ९,६५ में कांबोजों को म्लेच्छजातीय बताया गया है. मनु ने भी कांबोजों को दस्यु नाम से अभिहित किया है तथा उन्हें म्लेच्छ भाषा बोलनेवाला बताया है (मनुस्मृति १०, ४४-४५). मनु की ही भाँति निरुक्तकार यास्क ने भी कांबोजों की बोली को आर्य भाषा से भिन्न कहा है.

ऋग्वेद में वैदिक व्यापारियों के मार्गों में खलल डालने वाले, उन्हें लूट लेनेवाले जिन दस्युओं का उल्लेख बार बार आया है वे कम्बोज हो सकते हैं क्योंकि ये वैदिक व्यापार मार्ग सिल्क मार्ग पर स्थित थे. कम्बोज आर्य भाषा नहीं बोलते थे मतलब सतेम या संस्कृत भाषी नहीं थे अर्थात यही ऋग वैदिक मृधवाची भी हो सकते हैं.

उपर्युक्त तथ्यों से भी कम्बोज कि अवस्थिति मध्य एशिया ही प्रतीत होती है जो आधुनिक ताजीकिस्तान और शिनजियांग प्रान्त में विस्तृत था क्योंकि अफगानिस्तान, कश्मीर से गोदावरी तक भारत तो सतेम, संस्कृत या इसके तद्भव भाषा का ही प्रयोग करते थे. इतिहासकारों का मानना है कि कम्बोज उत्तरापथ पर स्थित था जो बंग से कश्मीर, काबुल होते हुए मध्य एशिया जाता था. पर हमें ध्यान रखना होगा कि यही मार्ग कश्मीर में चीनी सिल्क मार्ग से भी जुड़ जाता था और चीनी तुर्किस्तान होते हुए मध्य एशिया पहुंचता था. यह भी सम्भव है प्राचीन काल में पूरा सिल्क मार्ग उत्तरापथ कहलाता हो जैसे आज ब्रिटेनिका के अनुसार पूरा मार्ग सिल्क रूट कहलाता है. कम्बोज एक शक्तिशाली राज्य था और जहाँ वह स्थित था उसका विस्तार भारतीय उतरापथ और चीनी सिल्क मार्ग के बीच सम्भव है और ऐसा प्रमाण भी मिलता है कि कम्बोजों ने उत्तरी अफगानिस्तान और उत्तर-पश्चिम कश्मीर पर भी अधिकार कर लिया था.

बहुत से पुराणों में कैकेय, गंधर्व, शक, परद, बाह्लीक, कंबोज, दरदास, चीनी, तुषार, पहलव आदि के लोगों को उदीच्य यानि उत्तरापथ की उत्तरी मंडल का निवासी बताया है. पुरातत्वेताओ ने घोरबंद और पंजशीर नदी के मिलन स्थल पर स्थित ‘बेग्राम’ नामक स्थान पर प्राचीन कपिशा, जो कम्बोज का एक नगर था, के अवशेषों को खोज निकाला हैं. यह आधुनिक काबुल और बामियान के बीच रेशम मार्ग पर काबुल से ५० मील उत्तर में स्थित था. (विकिपीडिया)

परन्तु अर्जुन के कम्बोज के विजय के बाद कम्बोज आर्य संस्कृति के प्रभाव में आ गया और भारतवर्ष का एक शक्तिशाली जनपद बन गया. हालाँकि पांडवों से वैर के कारण कम्बोजों, शकों आदि ने महाभारत में कौरवों के पक्ष में युद्ध किया था पर महाभारत में पांडवों के विजय के बाद वह युद्धिष्ठिर के साम्राज्य का हिस्सा बन गया होगा. इसीलिए उसकी गणना परवर्ती काल में भारतवर्ष के महाजनपद के रूप में होने लगी थी.

कंबोज में बहुत प्राचीन काल से ही आर्यों की बस्तियाँ बिद्यमान थीं. इसका स्पष्ट निर्देश वंशब्राह्मण के उस उल्लेख से होता है जिसमें कांबोज औपमन्यव नामक आचार्य का प्रसंग है. यह आचार्य उपमन्यु गोत्र में उत्पन्न, मद्रगार के शिष्य और कंबोज देश के निवासी थे. इतिहासकार कीथ का अनुमान है कि इस प्रसंग में वर्णित औपमन्यव कांबोज और उनके गुरु मद्रगार के नामों से उत्तरमद्र और कंबोज देशों के सन्निकट संबंध का आभास मिलता है. बौद्ध ग्रंथ मज्झिमनिकाय से भी कंबोज में आर्य संस्कृति की विद्यमानता के बारे में सूचना मिलती है.

अशोक के समय मौर्य साम्राज्य

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कंबोज के ‘वार्ताशस्त्रोपजीवी’ संघ का उल्लेख है जिससे ज्ञात होता है कि मौर्यकाल से पूर्व यहां गणराज्य स्थापित था. अशोक के अभिलेखों में कांबोजों का उल्लेख नाभकों, नाभपंक्तियों, भोजपितिनकों और गंधारों आदि के साथ किया गया है (शिलालेख १३). इस धर्मलिपि से ज्ञात होता है कि यद्यपि कंबोज जनपद अशोक का सीमावर्ती प्रान्त था तथापि वहाँ भी उसके शासन का पूर्ण रूप से प्रचलन था. इससे भी कम्बोज मध्य एशिया के उत्तर-पूर्व अफगानिस्तान और ताजीकिस्तान का भाग प्रतीत होता है (मानचित्र देखें).

मुम्बई से प्रकाशित टाईम्स ऑफ़ इंडिया के ३० अगस्त १९८२ के सांध्य दैनिक में एक न्यूज प्रकाशित हुआ था कि ताजीकिस्तान (कम्बोज) में एक स्थान पर एक प्राचीन भवन कि दीवार पर वैदिक रथ का चित्र रेखांकित पाया गया.

मध्य एशिया में बौद्ध राज्यों का उदय और प्रसार

साभार विकिपीडिया

मध्य एशिया में प्रथम बौद्ध राज्य बैक्ट्रिया था. बैक्ट्रिया का शासक मिनांडर भारतीय बौद्धों के सहयोग से भारत पर विजय पाना चाहता था इसलिए वह बौद्ध बन गया था. बौद्धों के सहयोग से वह भारत में अंदर तक घुसने में सफल भी हुआ था पर पुष्यमित्र शुंग ने उसे वापस बैक्ट्रिया तक ढकेल दिया. इतिहास में इन्हें ग्रीको-बैक्ट्रियन बौद्ध कहा जाता है. इन्ही के द्वारा ग्रीस में बौद्ध धर्म फैला था. इसके बाद कुषाणों ने ग्रीको-बैक्ट्रियन राज्य को खत्म कर मध्य एशिया से मध्य-पूर्व एशिया में बौद्ध धर्म और बौद्ध राज्य का प्रसार किया.

लेख बहुत बड़ा होने के कारण मध्य एशिया में बौद्ध राज्यों के उदय का इतिहास, उज्बेकिस्तान के बौद्ध तीर्थस्थलों के सचित्र विवरण और मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा बौद्ध राज्यों, बौद्धों और बौद्ध धर्म के सम्पूर्ण विनाश का इतिहास निचे के लेख में अलग से प्रस्तुत किया गया है:

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15 thoughts on “मध्य एशिया का वैदिक इतिहास-सावित्री-सत्यवान से बौद्ध राज्यों के उदय तक

  1. Wonderful Information. Unfortunately we Indians are being taught agenda history of the Congress and Communist which is full of concoction and hatred for the Hindus and Bharatvarsha. Thanks for great work.

  2. कृपया लेख के साथ लेखक का नाम दिया करे।इस से प्रमाणिकता होती है। इस लेख के साथ जो संदर्भ दिए गए है वह मान्यता प्राप्त इतिहासकारों ओर पुरातत्व विशेषज्ञों के नही है। अरब देशो पर आर्य संस्कृति के प्रभाव के बारे अनुसंधान होना चाहिए विशेष रूप से ईस्लाम से पूर्व के कालखंड के बारे मे। हम मे से अधिकांश लोग विदेशी हमलावरों के स्थानीय प्रतिरोध के बारे अनिभज्ञ है।इतिहासकारों ने इस का वर्णन नही किया है। इस पर भी धयान दिया जाना चाहिये। धन्यवाद

    1. आपका सुझाव और संदेह उचित है. पर भारत में मान्यता प्राप्त इतिहासकार एवान्जेलिस्ट जेम्स मिल है जिसने भारत आये वगैर भारत विरोधी, हिन्दू धर्म विरोधी ईसाई मिशनरियों के रिपोर्ट के आधार पर भारत का इतिहास ब्रिटिश शासन के दौरान लिखा था और वही भारत के मान्यता प्राप्त इतिहासकारों के प्रणेता है. अन्य मान्यता प्राप्त इतिहासकार हैं मार्क्सवादी डी डी कौशाम्बी, रोमिला थापर, डी एन झा आदि जो कांग्रेस के पांच मुस्लिम शिक्षा मंत्रियों के दबाब और अपने भारत विरोधी मानसिकता के तहत इतिहास नहीं एजेंडा लिख रखें है जो 80% झूठ और एकपक्षीय है. इस विषय पर विस्तार से जानकारी हमने अपने लेख “भारत का इतिहास भारत विरोधी क्यों” में दे रखा है.
      हमारा उद्देश्य नवीनतम ऐतिहासिक, नृजातीय, पुरातात्विक, वैज्ञानिक शोधों के आधार पर इनके फर्जी इतिहास को एक्सपोज करना ही है. हमारे स्रोत देशी विदेशी शोध और शोधार्थी हैं जो निश्चय ही “कांग्रेस सरकार” या “मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों” से मान्यता प्राप्त नहीं हैं पर भारत में पढ़ाये जा रहे फर्जी इतिहास को तथ्यों के आधार पर एक्सपोज करने में सक्षम हैं.

  3. आप लेखकों के नाम दें. मान्यता उन्हें भारत की जनता दे देगी. !

    1. हमारे सभी लेख में प्रत्येक पाराग्राफ के स्रोत के रूप में लेखक और पुस्तक का नाम दिया गया है. हाँ, वे भारत में मान्यता प्राप्त (फर्जी) वामपंथी इतिहासकार नहीं हैं.

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