प्राचीन काबा
अरब प्राचीनकाल से शिव भक्ति का केंद्र रहा है क्योंकि पौराणिक काल से अरब-अफ्रीका असुरों और दानवों का निवास स्थान (असुर लोक) रहा है. बाद में वे Cushites (कुश के प्रजाजन), Semetic (कृष्ण भक्त) भी बने और भारत के सम्राट विक्रमादित्य और शालिवाहन के समय अर्बस्थान भारत के प्रत्यक्ष नियन्त्रण में था. फिर मौर्य सम्राट अशोक के काल में वहां बौद्ध धर्म भी फला फूला और विकसित हुआ. अतः इस्लाम के पहले अरब के लोग भी हिन्दू ही थे जिन्हें आधुनिक इतिहास में पैगन (मूर्तिपूजक) कहा जाता है और इसलिए मक्का प्रसिद्ध तीर्थस्थल था जहाँ काबा मन्दिर था जिसमें महादेव के शिवलिंग और ३६० अन्य देवी देवताओं की मूर्तियाँ थी. काबा मन्दिर का नव निर्माण सम्भवतः चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य ने ही करवाया था. खुद मोहम्मद के परिवारवाले इस विश्वप्रसिद्ध काबा मन्दिर के पुजारी थे.
Sir Wiliam Drummond अपने ग्रन्थ Origines में लिखते हैं, “प्राचीनकाल में अरब लोग शैवपंथी थे. मोहम्मद… रब…मोज़ेस… मैमोनी आदि से पूर्व अनेक युग तक अरबों में शिवभक्ति ही प्रचलित थी. सारे मानव उसी धर्म के अनुयायी थे…विश्व के लगभग सारे ही प्रगत लोगों का वही धर्म था….विविध प्रकार के पत्थर-कोई गोल, कोई स्तम्भ के आकर का, कोई पिरामिड के आकार का, प्राचीन समय से पूजे जाते थे. (खंड-२, पेज ४०७-४३५)
कुश के कुल वाले नाम के कई वंशज निसंदेह अनादिकाल से अर्बस्थान में बसे हुए थे. कुश राम का पुत्र था. अफ्रीका और अर्बस्थान का कुश के साम्राज्य में अंतर्भाव था. (Origines, Part-3, Page-294) इसी ग्रन्थ के पृष्ठ ३६४ पर अर्बस्थान की एक नदी का नाम “राम” बताया गया है.
एक बहुत पुराने लेखक R.G. Wallace अपने ग्रन्थ Memoirs of India में लिखते हैं, “अर्बस्थान तक के प्रदेशों में और उत्तरी ईरान में भी हिन्दू बड़ी संख्या में पाए जाते हैं. ये लोग वहीँ के प्राचीन निवासियों के वंशज हैं. वे किन्हीं अन्य देशों से आकर यहाँ नहीं बसे. जब हजारों की संख्यां में स्थानीय जन मुसलमान बनाए जाने लगे तो उनमें जिन्होंने किसी भी दबाब व प्रलोभन में फंसकर इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं किया, वे यह लोग हैं.
इस्लामी ज्ञानकोष में लिखा है कि महम्मद के दादा काबा मन्दिर के पुरोहित थे. मन्दिर के प्रांगण के पास ही उनके घर में या आँगन में खटिया पर बैठा करते. उनके उस मन्दिर में ३६० देव मूर्तियाँ हुआ करती थी.
महम्मद के घराने का नाम कुरैश था. कुरैश का मतलब होता है कुरु ईश अर्थात कुरु प्रमुख. महाभारत युद्ध समाप्त होने पर बचे खुचे कौरव वंशियों में से कुछ पश्चिम एशिया की ओर चले गये और वहीँ अपना राज्य स्थापित किये थे. कुरैश उनके ही वंशज हैं. यह भी सम्भव है कि कौरवों के वंशज वहां शासन करते हों. एसा ही एक कुरुईश कुल अर्बस्थान में काबा मन्दिर परिसर का स्वामी था. उसी कुल में महम्मद का जन्म हुआ था. महादेव उनके कुल देव थे. महम्मद काबा की सभी देव मूर्तियाँ भंग कर दी केवल शिवलिंग सुरक्षित रखा जिसे हज करने वाले आज भी माथे से लगाते हैं और चूमते हैं-पी एन ओक
काबा स्वयं ज्योतिषीय आधार पर इस प्रकार बना है कि उसकी चौडाई की मध्य रेखा की एक नोक ग्रीष्म ऋतू के सूर्योदय क्षितिज बिंदु की सीध में है और दूसरी शरद ऋतू के सूर्यास्त बिंदु की सीध में है. महम्मद के समय उसमे ३६० मूर्तियाँ होती थी. वह सूर्यपूजा का स्थान था. वायु के प्रचलन की आठ दिशाओं से उसके आठ कोने सम्बन्धित हैं. David A King, Prof. HKCES, Newyork City.
Berthold ने लिखा है, “हिझाज की प्रारम्भिक मस्जिदों का रुख पूर्व दिशा में था क्योंकि इस्लामपूर्व मुर्तिभक्त अरबों को पूर्व दिशा का महत्व था. काबा मन्दिर की प्रत्येक दीवार या कोना विश्व की एक-एक विशिष्ट दिशा से सम्बन्धित था” अर्थात काबा मन्दिर अष्टकोणीय था. सनातन संस्कृति में आठ दिशाएँ चारों ओर और दो उपर निचे, इस प्रकार दस दिशाएँ बताई गयी है. वैदिक स्थापत्य अधिकांशतः अष्टकोणीय ढांचे पर ही होते हैं. भारत में भी अधिकांश तथाकथित मुस्लिम इमारतें वैदिक स्थापत्य पर बनी हिन्दू इमारतें ही हैं.
अरब स्थान के मक्का नगर में स्थित काबा प्राचीन काल में वैदिक तांत्रिक ढांचे पर बना एक विशाल देवमंदिर था. वैदिक अष्टकोण के आकार का वह मन्दिर था. काबा के मन्दिर में जब किन्ही विशेष व्यक्तियों को प्रवेश कराया जाता है तो उन्हें आँखों पर पट्टी बंधकर ही अंदर छोड़ा जाता है ताकि वह अंदर शेष रही वैदिक मूर्तियों के बारे में किसी को कुछ बता न पाएं. मन्दिर में जो चौकोन है उसके बाएँ वह प्राचीन शिवलिंग दीवार में आधा चुनवाया गया है. उसकी परिक्रमा करने केलिए पुरे मन्दिर की ही परिक्रमा करनी पड़ती है. यहाँ जाने वाले सारे मोहम्मदपंथी एक दो नहीं बल्कि उसी वैदिक प्रथा के अनुसार इस शिवलिंग की सात परिक्रमा करते हैं-पी एन ओक
मक्का की देवमूर्तियों के दर्शनार्थ प्राचीन (इस्लामपूर्व) काल में जब अरब लोग यात्रा करते थे तो वह यात्रा वर्ष की विशिष्ट ऋतू में ही होती थी. शायद वह यात्रा शरद ऋतू में (यानि दशहरा-दीपावली के दिनों में) की जाती थी. प्राचीन अरबी पंचांग (वैदिक पंचांग के अनुसार) हर तिन वर्षों में एक अधिक मास जुट जाता था. अतः सारे त्यौहार नियमित ऋतुओं में ही आया करते थे. किन्तु जब से अरब मुसलमान बन गये, कुरान ने आधिक मास पर रोक लगा दी. अतः इस्लामी त्यौहार, व्रत, पर्व आदि निश्चित ऋतू में बंधे न रहकर ग्रीष्म से शिशिर तक की सारी ऋतुओं में बिखरे चले जाते हैं. (Travels in Arabia, Writer-john Lewis Burckhardt)
मुसलमानों की हज यात्रा एक इस्लामपूर्व परम्परा है. उसी प्रकार Suzafa और Merona भी इस्लामपूर्व काल से पवित्र स्थल माने जाते रहे हैं क्योंकि यहाँ Motem और Nebyk नाम के देवताओं की मूर्तियाँ होती थी. अराफात की यात्रा कर लेने पर यात्री Motem और Nebyk का दर्शन किया करते हैं. (Pg. 177-78, Travels in Arabia, Writer-john Lewis Burckhardt)
खुद इस्लाम शब्द संस्कृत ईशालयम से बना है जिसका अर्थ होता है देवता का मन्दिर. काबा प्राचीनकाल से अरबों का प्रमुख ईशालयम था. मोहम्मद का परिवार वहां के पुजारी थे और अरब के लोग उस ईशालयम के अनुयायी. इसलिए मोहम्मद पैगम्बर ने जब काबा ईशालयम पर कब्जा किया तो उसने अपने मुहम्मदी पंथ का नाम ईशालयम उर्फ़ इस्लाम (अरबी उच्चार) रखा-पी एन ओक
मोहम्मद ने जब काबा मन्दिर पर हमला किया तब मक्का की सुरक्षा का दायित्व एक अतिप्राचीन हिन्दू कुल का मुखिया अमरु के जिम्मे था. जब मुखिया अमरु को मुसलमानों को मक्का शहर सौंप देना पड़ा, तब उसने एक शिवलिंग और बारहसिंगों की दो स्वर्ण मूर्तियों को जमजम कुँए में फेंक दिया.
Sir William Drummond लिखते हैं, “Amru-Chief of one of the most ancient tribes…compelled to cede Meeca to the Ishmelites, threw the black stone (Shivling) and two Golden antelopes into the nearby well, Zamzam.”(Origines, Part-3, Page-268, Writer-Sir William Drummond) शिव को पशुपति कहे जाने के कारन काबा मन्दिर में शिव के साथ पशुओं की भी मूर्तियाँ थी-पी एन ओक
मक्का में हिन्दुओं का कवि सम्मेलन
मक्का के ओकथ में कवि सम्मेलन हुआ करता था. उस सम्मेलन में पुरस्कृत कविता स्वर्ण थालों पर लिख मक्का में लटकाया जाता था. उन्ही कविताओं का संग्रह सैर उल ओकुल में किया गया है. महम्मद का चाचा उमर-बिन-ए-हज्जाम भी एक प्रसिद्ध कवि और भगवान शंकर का भक्त था. शिव की स्तुति में लिखी उसकी एक कविता भी सैर-उल-ओकुल ग्रन्थ में है.
कफारोमल फ़िक्र मिन उलुमिन तब असयफ
कलुवन अमातुल हवा वस तजरुख-१
वा ताजाखायरोवा उदन कलालवदे-ए लिबो आवा
वलुकायने जतल्ली- हे यौमा तब असयरू-२
वा अबा लोल्हा अजबू अमीमन महादेव ओ
मनोजली इलामुद्दीन मिनहुम वा सयतरू-३
वा सहाबी के-यम फीमा-कमील मिन्दे यौवन
वा यकुलुम ना लतावहन फ़ोइन्नक तवज्जरू-४
मस्सयरे अखलाकन हसानन कुल्ल्हुम
नज्रुमुम अजा-अत सुम्मा गबुल हिन्दू-५
कविता का अर्थ निचे है:
यदि कोई व्यक्ति पापी या अधर्मी बने,
यह काम और क्रोध में डूबा रहे
किन्तु यदि पश्चाताप कर वह सद्गुणी बन जाए
तो क्या उसे सद्गति प्राप्त हो सकती है?
हाँ अवश्य! यदि वह शुद्ध अंतःकरण से
शिवभक्ति में तल्लीन हो जाए तो
उसकी आध्यात्मिक उन्नति होगी.
हे भगवान शिव! मेरे सारे जीवन के बदले,
मुझे केवल एक दिन भारत में निवास का
अवसर दें जिससे मुझे मुक्ति प्राप्त हो.
भारत की एकमात्र यात्रा करने से
सबको पुण्य-प्राप्ति और संतसमागम का लाभ होता है.
सैर उल ओकुल के पृष्ठ २५७ पर मोहम्मद से २३०० वर्ष पूर्व जन्मे अरबी कवि लबी बिन-ए-अख्त्ब-बिन-ए-तुरफा की वेदों की प्रशंसा में लिखी गयी कविता है:
अया मुबारेक़ल अरज़ युशैये नोहा मीनार हिंद-ए।
वा अरादकल्लाह मज़्योनेफ़ेल जि़करतुन।।1।।
वहलतज़ल्लीयतुन ऐनाने सहबी अरवे अतुन जि़करा।
वहाज़ेही योनज़्ज़ेलुर्रसूल बिनल हिंदतुन।।2।।
यकूलूनल्लहः या अहलल अरज़ आलमीन फुल्लहुम।
फ़त्तेवेऊ जि़करतुल वेद हुक्कुन मानम योनज़्वेलतुन।।3।।
होवा आलमुस्साम वल यजुरम्निल्लाहे तनजीलन।
फ़ए नोमा या अरवीयो मुत्तवेअन मेवसीरीयोनज़ातुन।।4।।
ज़इसनैन हुमारिक अतर नासेहीन का-अ-ख़ुबातुन ।
व असनात अलाऊढ़न व होवा मश-ए-रतुन।।5।।
कविता का अर्थ निचे दिया है:
हे भारत की पवित्र भूमि तुम कितनी सौभाग्यशाली हो.
क्योंकि ईश्वर की कृपा से तुम्हे दैवी ज्ञान प्राप्त है.(१)
वह दैवी ज्ञान चार प्रकाशमान ग्रन्थद्वीपवृत सारों का मार्गदर्शक है.
क्योंकि उनमे भारतीय दिव्य पुरुषों की वाणी समाई है.(२)
परमात्मा की आज्ञा है कि सारे मानव उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करें.
और वेदों के आदेशानुसार चलें.(३)
दैवी ज्ञान के भंडार हैं साम और यजुर जो मानवों की देन हैं.
उन्ही के आदेशानुसार जीवन बिताकर मोक्ष प्राप्ति होगी.(४)
दो और वेद हैं ऋग और अक्षर, जो भ्रातृता सिखाते हैं.
उनके प्रकाश से सारा अज्ञान अंधकार लुप्त हो जाता है.(५)
भारत के महान चक्रवर्ती सम्राटों राजा शालिवाहन, विक्रमादित्य आदि का साम्राज्य अर्बस्थान तक था. भविष्य पुराण में राजा शालिवाहन जिन्हें कुछ इतिहासकार परमार वंश और कुछ जैसे हेमचन्द्र रायचौधुरी सातवाहन वंश के मानते हैं के द्वारा मक्का के काबा में स्थित मक्केश्वर महादेव का पूजा करने की कथा है. अरबी इतिहासकार याकुबी ने एक हिन्दू राजा द्वारा बेबिलोनिया और इजरायिलों को दण्डित करने केलिए उनके ऊपर चढ़ाई करने की बात लिखी है.
सैर उल ओकुल के पृष्ठ ३१५ पर महम्मद से १६५ वर्ष पूर्व के कवि जिपहम बिन्तोई का सम्राट विक्रमादित्य की प्रशंसा में लिखी कविता सम्राट विक्रमादित्य के अर्बस्थान तक साम्राज्य विस्तृत होने के सबूत हैं:
इत्रश्शफ़ाई सनतुल बिकरमातुन फ़हलमिन क़रीमुन यर्तफ़ीहा वयोवस्सुरू ।।1।।
बिहिल्लाहायसमीमिन इला मोतक़ब्बेनरन, बिहिल्लाहा यूही क़ैद मिन होवा यफ़ख़रू।।2।।
फज़्ज़ल-आसारि नहनो ओसारिम बेज़ेहलीन, युरीदुन बिआबिन क़ज़नबिनयख़तरू।।3।।
यह सबदुन्या कनातेफ़ नातेफ़ी बिज़ेहलीन, अतदरी बिलला मसीरतुन फ़क़ेफ़ तसबहू।।4।।
क़ऊन्नी एज़ा माज़करलहदा वलहदा, अशमीमान, बुरुक़न क़द् तोलुहो वतस्तरू।।5।।
बिहिल्लाहा यकज़ी बैनना वले कुल्ले अमरेना, फ़हेया ज़ाऊना बिल अमरे बिकरमातुन।।6।।
अर्थ निचे दिया जाता है:
भाग्यशाली हैं वे जो विक्रमादित्य के शासन में जन्मे. वह सुशील, उदार, कर्तव्यनिष्ठ शासक प्रजाहित दक्ष था. किन्तु उस समय हम अरब परमात्मा का अस्तित्व भूलकर वासनासक्त जीवन व्यतीत करते थे. हममें दूसरों को निचे खींचने की और छल की प्रवृति बनी हुई थी. अज्ञान का अँधेरा हमारे पुरे प्रदेश पर छा गया था. भेड़िये के पंजे में तड़फड़ाने वाली भेड़ की भांति हम अज्ञान में फंसे थे. अमावस्या जैसा गहन अंधकार सारे अरब प्रदेश में फ़ैल गया था. किन्तु उस अवस्था में वर्तमान सूर्योदय जैसे ज्ञान और विद्या का प्रकाश, यह उस दयालु विक्रम राजा की देन है जिसने हम पराये होते हुए भी हमसे कोई भेदभाव नहीं बरता. उसने निजी पवित्र (वैदिक) संस्कृति हममें फैलाई और निजी देश (भारत) से यहाँ ऐसे विद्वान, पंडित, पुरोहित आदि भेजे जिन्होंने निजी विद्वता से हमारा देश चमकाया. यह विद्वान पंडित और धर्मगुरु आदि जिनकी कृपा से हमारी नास्तिकता नष्ट हुई, हमें पवित्र ज्ञान की प्राप्ति हुई और सत्य का मार्ग दिखा वे हमारे प्रदेश में विद्यादान और संस्कृति प्रसार के लिए पधारे थे. कवि जिपहम बिन्तोई की विक्रमादित्य की प्रशंसा में लिखी कविता और महम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-हज्जाम के द्वारा लिखित कविता दोनों दिल्ली के लक्ष्मी नारायण मन्दिर के यज्ञशाला की दीवारों पर उत्कीर्ण है.
काबा मन्दिर में शेषशय्या पर विराजमान भगवान विष्णु की विशाल प्रतिमा थी
एकं पदं गयायां तु मकायां तु द्वितीयकम I
तृतीयं स्थापितं दिव्यं मुक्त्यै शुक्लस्यम सन्निधौ II
अर्थात विष्णु के पवित्र पदचिन्ह विश्व के तिन प्रमुख स्थान में थे-एक भारत के गया नगर में, दूसरा मक्का नगर में और तीसरा शुक्लतिर्थ के समीप. (हरिहरेश्वर महात्म्य, प्राचीन संस्कृत ग्रन्थ)
काबा के मन्दिर को विश्व का नाभि कहा जाता था. इससे हमारा अनुमान है कि जिस विष्णु भगवान की नाभि से ब्रह्मा प्रकट हुए और ब्रह्मा द्वारा सृष्टि-निर्माण हुई उन शेषशाई भगवान विष्णु की विशालकाय मूर्ति काबा के देवस्थान में बीचोबीच थी और इर्दगिर्द अन्य ३६० मन्दिरों में सैकड़ों देवी देवताओं की मूर्तियाँ थी. गोरखपुर के किसी पीर के एक मुसलमान रखवाले ज्ञानदेव नाम लेकर आर्यसमाजी प्रचारक बन गये थे. ईरान के शाह के साथ वे चार-पांच बार हज कर आए थे. उनके कथन के अनुसार काबा के प्रवेश द्वार में एक Chandelier यानि कांच का भव्य द्वीपसमूह लगा है जिसके उपर भगवद्गीता के श्लोक अंकित हैं-पी एन ओक
अरब में गौ पूजा (बकर ईद)
संस्कृत “ईड” का अर्थ है पूजा जैसे अग्निम इडे पुरोहितं अर्थात अग्नि को पूजा में अग्रस्थान दिया है. संस्कृत का यह ईड शब्द पूजा के अर्थ में पुरे विश्व में प्रचलित था जो मुसलमानों में ईद के नाम से सुरक्षित है. रोमन साम्राज्य में भी वर्षारम्भ की अन्नपूर्ण की पूजा को Ides of March अर्थात मार्च की पूजा कहा जाता है. अरबी में “बकर” का अर्थ है गाय. संस्कृत “ईड” का अर्थ है पूजा. अतः “बकर ईद” का मतलब है गौ पूजा. इस्लामिक काल के पूर्व अर्बस्थान में वैदिक संस्कृति थी इसलिए अरब के लोग भी बकर ईद उत्सव अर्थात गौ पूजा उत्सव मनाते थे परन्तु जबरन मुसलमान बना दिए जाने के कारन उनका बकर ईद उत्सव गौ पूजा से वैसे ही पथभ्रष्ट हो गया जैसे मूर्तिपूजक अरब लोग मुसलमान बनने से मूर्तिविध्वंसक बन गये. कुरान में भी बकर अर्थात गाय नाम से एक पूरा खंड है.
रमजान और शबे बारात
रमजान, रामदान वास्तव में रामध्यान शब्द है. अर्बस्थान के लोग प्राचीन समय से रमझान के पुरे महीने में उपवास रखकर भगवान राम का ध्यान पूजन करते थे. इसीलिए रमझान का महीना पवित्र माना जाता है. जैसे हिन्दुओं में ३३ कोटि (प्रकार) के देवता होते हैं वैसे ही इस्लामपूर्व एशिया माईनर प्रदेश में रहने वाले लोगों के भी ३३ देवता होते थे. इस्लामपूर्व काल में शिवव्रत होता था. वह शिवव्रत काबा मन्दिर में बड़ा धूमधाम से मनाया जाता था. उसी का अपभ्रंश इस्लाम में शवे बारात हुआ है-पी एन ओक
स्रोत: वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास, लेखक-पुरुषोत्तम नागेश ओक
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