पिछले लेख “मध्य एशिया के कुषाण हिन्दू थे” में आपने देखा कि लगभग सभी इतिहासकार इस बात से सहमत थे कि चीन के यूची भारतीय ग्रंथों में वर्णित ऋषिक लोग हैं और शैवधर्मी हिन्दू कुषाण यूची कबीले के लोग थे. अधिकांश इतिहासकार इस बात से सहमत थे कि कुषाण और तुषार (Tukhar) एक ही लोग थे. चीनी इतिहास में इनमे से एक को महायूची और दूसरे को लघु यूची कहा गया है. ग्रीक इतिहासकार लिखते हैं कि ग्रीको-बैक्ट्रियन राज्य पर तुषारों ने कब्जा कर कुषाण साम्राज्य की स्थापना की जबकि चीनी इतिहास के अनुसार यूचियों का एक कबीला कुषाणों ने ग्रीको-बैक्ट्रियन राज्य पर अधिकार कर कुषाण साम्राज्य की स्थापना की थी. यहाँ तक की तुषारों और कुषाणों को वक्षु (Oxus) नदी और सिर (Jaxartes) नदी के बीच तथा तारिम उपत्यका (शिनजियांग) में भी साथ साथ पाते हैं.
वहीँ कुछ इतिहासकार जैसे ‘मध्य एशिया का इतिहास’ लिखने वाले राहुल सांकृत्यायन यूचियों को शकों की ही एक शाखा मानते हैं और कुषाणों केलिए यूची शक का प्रयोग करते हैं. Aurel Stein तुखार (Tokharoi) को यूचियों की शाखा मानते हैं. P. C. Bagchi मानते हैं कि यूची, तुखार और तुषार एक ही लोग थे. कुछ इतिहासकारों के अनुसार कुषाण कम्बोज भी साबित होते हैं.
दरअसल सम्पूर्ण मध्य एशिया और तारिम उपत्यका (शिनजियांग) की प्राचीन सभ्यता, संस्कृति, धर्म, परम्परा, भाषा, वेशभूषा में इतनी समानता थी कि मध्य एशिया का इतिहास लिखनेवाले इतिहासकारों, पुरातत्ववेत्ताओं को लगता है कि सब एक ही जैसा थे या ये उसके जैसा थे और वो उसके जैसा था आदि. मानवों के बसावट का इतिहास सिर्फ कुछ हजार वर्षों का तो है नहीं, और न ही सृष्टि का निर्माण ईसाई मान्यता के अनुसार सिर्फ ४००४ ईस्वीपूर्व हुआ है.
इसलिए जब किसी बृहत् क्षेत्र के बसावट का अध्ययन इतिहास के कालक्रम के हजारों वर्ष के किसी एक बिंदु से प्रारम्भ करेंगे तो घालमेल होगा ही. सभ्यता का प्राचीनतम इतिहास भारतीय ग्रंथों में सुरक्षित हैं जो पश्चिमी इतिहासकारों के ईसाई मान्यता में फिट नहीं बैठता है इसलिए उसे मिथोलोजी कहकर ठुकरा रखें है. एजेंडा इतिहास लिखनेवाले भारत के वामपंथी इतिहासकारों को भी अपने एजेंडे केलिए यही जंचता है इसलिए वे इसे अंग्रेजी इतिहासकारों के अलौकिक ज्ञान बताकर इतिहास के नाम पर एजेंडा फैला रखें हैं.
उदाहरण केलिए शकों को ही लीजिए. ये शकों का इतिहास दूसरी तीसरी शताब्दी ईस्वीपूर्व से बताना शुरू करते हैं. उसके पहले कहाँ थे ये सब? पूरा मध्य एशिया शकद्वीप के नाम से जाना था, क्यों? आधुनिक रूस से लेकर भारत तक शक फैले हुए थे, कैसे? सिर्फ भारत के प्राचीन ग्रंथों में इन सवालों का जबाब है और उसकी एक झलक मैंने अपने पिछले लेख “मध्य एशिया के शक भारत के सूर्यवंशी क्षत्रिय थे” में दिया है. इस लेख में हम भारतीय ग्रंथों में वर्णित तुषारों का हिन्दू इतिहास संक्षेप में लिख रहे हैं.
प्राचीन मध्य एशिया भारतवर्ष का ही विस्तार था
मध्य एशिया और प्राचीन भारत में प्राचीन काल से सामाजिक-सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक संपर्क की लंबी परंपराएं हैं. [ Alberuni’s India, 2001, p 19-21, Edward C. Sachau – History; Dates of the Buddha, 1987, p 126, Shriram Sathe; etc.]
३०००-४००० ईस्वीपूर्व में ख्वाराज्म में एक संस्कृति पाई जाती है जिसका नाम सोवियत इतिहासकारों ने यहाँ के वक्षु नदी से उत्तर कि ओर जानेवाली केल्तमीनार नहर के नाम पर केल्तमीनार संस्कृति नाम दिया है. किजिलकुम में इसी परित्यक्त नहर के उत्तर में जबासकलां का ध्वंसावशेष है. पुरातात्विक वस्तुओं से तुलना करने पर सोवियत पुरातत्ववेत्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि उस काल में जो संस्कृति यहाँ पर थी उसके अंदर दक्षिणी यूराल, सिर दरिया, पूर्वी तुर्किस्तान से लेकर दक्षिण हिन्द महासागर के तट तक एक ही प्रकार की संस्कृति मौजूद थी. वे उईगर मिश्रित भारतीय भाषा बोलते थे. (मध्य एशिया का इतिहास-पृष्ठ १५८-१५९)
इस बात के पर्याप्त संकेत मिलते हैं कि सातवीं शताब्दी ईस्वीपूर्व में ईरान के ह्खामनियों के मध्यएशिया पर विजय के पूर्व सम्पूर्ण मध्यएशिया और तारिम बेसिन में स्थानीय परिवर्तनों सहित वैदिक सभ्यता, संस्कृति, धर्म और भाषा प्रचालन में थी. मध्य एशिया में दूसरा सबसे बड़ा सांस्कृतिक हमला यूनानियों के द्वारा चौथी शताब्दी ईस्वीपूर्व में हुआ था और तीसरी बात यह कि मध्य एशिया और तारिम उपत्यका (शिनजियांग) में बौद्ध धर्म ग्रहण करनेवाले लोगों के पूर्वज हिन्दू थे. इतिहासकार पी एन ओक लिखते हैं कि प्राचीन अरबी ग्रंथों में मध्य एशिया के तुर्कों के लिए ‘तुर्की हिन्दू’ शब्द मिलते हैं.
अब निचे तीन पैराग्राफ पर ध्यान दीजिए:
ग्रियर्सन के अनुसार (मध्य एशिया के) मिदिया के लोग आर्य थे और २५०० ईस्वीपूर्व में यहाँ थे. मिदिया में आर्यों की धाक थी. उनके देवता वे ही थे जिनके नाम बाद में हम भारत में पाते हैं और यह कि वे सतेम भाषी थे, जो प्राचीन संस्कृत से अधिक निकटता रखती है.
मिदिया के लोगों के विषय में टिपण्णी करते हुए विल दुर्रौ लिखते हैं, “मिदिया के लोग कौन थे उनका उद्भव हमें नहीं पता. इनका प्रथम उल्लेख हमें कुर्दिस्तान की पहाड़ियों में परशुआ नामक स्थान में शालमानेजार तृतीय के अभियान में दर्ज एक फलक पर मिलता है. इससे पता चलता है कि अहमदई, मदई या मीदी (मिदिया के लोग) कहे जानेवाले लोगों द्वारा विरल रूप में आबाद इस क्षेत्र के सत्ताईस सरदार राज्य करते थे.” (Our Oriental Heritage, New York, Writer-Will Durant, Page-350)
Xuanzang के समय तुषार (Tukhar) देश सत्ताईस प्रशासनिक इकाईओं में विभाजित था और प्रत्येक के अलग अलग सरदार होते थे. [On Yuan Chwang’s Travels in India, Edition: 1904, pp. 102, 327.]
उपर्युक्त तीनों पैराग्राफ से ऐसा नहीं लगता है कि मीदिया के जिन वैदिक आर्यों की बात की जा रही है वे तुषार (Tukhar) लोग या उनके पूर्वज रहे होंगे? खैर, आगे बढ़ते हैं.
तुषारों का प्राचीन हिन्दू इतिहास
कनिष्क को छोड़कर बाकी सभी कुषाण शैवधर्मी हिन्दू थे. हिन्दू होने के कारन वे ग्रीक, जोराष्ट्र और बौद्ध धर्म का भी सम्मान करते थे और संरक्षण देते थे. आपको जानकर आश्चर्य होगा की तुषारों का भी सम्पूर्ण इतिहास भारतीय संस्कृति और धर्म का पालन करनेवाले और भारतीय भाषा बोलनेवाले हिन्दुओं का इतिहास है.
महाभारत (१:८५) के अनुसार तुषार (Tukhar) ययाति के पुत्र अनु के वंशज थे. महाराज ययाति ने अपना उत्तराधिकारी अपने कनिष्ठ पुत्र पुरु को बनाया था जिन्होंने कुरु और पंचाल राज्यों पर शासन किया. अन्य चार में यदु ने भारत के मध्य और पश्चिम में युदुवंशी राज्य की स्थापना की जबकि अन्य भारतवर्ष के सीमावर्ती क्षेत्रों में अपने अपने राज्य स्थापित किये थे. अनु के वंशज बाद में ईरान चले गये.
वायुपुराण के अनुसार मद्र राज्य कि स्थापना उशिनारा के पुत्र शिबी ने किया था जो ययाति के पुत्र अनु के वंशज थे. भागवत पुराण के अनुसार मद्र राज्य की स्थापना मद्र ने किया था जो त्रेतायुग में ययाति के पुत्र अनु के वंशज शिबी के पुत्र थे. अर्थात मद्र राज्य की स्थापना उशिनारा पुत्र शिबी ने किया था और नाम अपने पुत्र मद्र के नाम पर रखा था या खुद शिबी पुत्र मद्र ने ही मद्र राज्य कि स्थापना की थी.
परन्तु महाभारत के अनुसार साल्व और मद्र दोनों जुड़वाँ राज्य थे, उनके पूर्वज भी दोनों एक ही थे. ये महाराज पुरु के वंशज व्युशिताश्व के सन्तति थे. उन्होंने अश्वमेध यज्ञ किया था पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण चारों और अपने साम्राज्य का विस्तार किया था. उनके सात पुत्र थे जिनमे तिन साल्व के राजा और चार मद्र के राजा बने.
उपर्युक्त दोनों विवरणों से निष्कर्ष यह निकलता है कि मद्र राज्य कि स्थापना ययाति के पुत्र अनु के वंशजों ने की थी (क्योंकि पौराणिक इतिहास अधिक प्राचीन हैं) पर कालांतर में ययाति के पुत्र पुरु के वंशजों ने उस पर अधिकार कर लिया. उन्होंने दिग्विजय कर मद्र राज्य का चारों दिशा में विस्तार किया और मद्र राज्य उत्तर मद्र (मिदिया), दक्षिण मद्र, पश्चिम और पूर्व मद्र में विभक्त कर चार पुरुवंशी राजाओं ने राज्य किया.
उत्तर मद्र (मिदिया) और दक्षिण मद्र की चर्चा लगभग सभी ऐतिहासिक ग्रंथों में मिलता है. पश्चिम मद्र की चर्चा पाणिनि ने अपने ग्रन्थ में किया है. साल्व राज्य संभवतः मद्र से सटे पश्चिम में स्थित था जिसे मद्र ने अपने अधीन कर लिया था. सम्भव है पराजित अनु के वंशज इसी समय ईरान की ओर प्रस्थान कर गये हों जैसा कि उपर महाभारत में लिखा है.
परन्तु, ईरान में तुषारों के किसी बसावट की जानकारी नहीं मिलती है. इसलिए ऐसा लगता है ये जल्द ही वापस वक्षु नदी के दोनों ओर आकर बस गये. सम्भव है कि महाभारत युद्ध में राजा शल्य (उत्तरमद्र और साल्व के राजा) की मृत्यु के पश्चात वक्षु नदी के दोनों ओर बसे तुषारों ने पुनः मिदिया पर अधिकार कर लिया हो और २५०० ईस्वीपूर्व से ईसापश्चात तक जब भी वे सत्ता में रहे हों सत्ताईस सरदारों के माध्यम से शासन प्रशासन का काम करते रहे हों. ज्ञातव्य है कि महाभारत युद्ध का सर्वमान्य काल ३१३६ ईस्वीपूर्व माना जाता है.
वायु पुराण और मत्स्य पुराण के अनुसार वक्षु (Oxus) नदी तुषारों, लम्पकों, पहलवों, परदों और शकों आदि के राज्यों से होकर बहती थी (वायु पुराण-१.५८.७८-८३). विभिन्न इतिहासकारों का मत है कि तुषार (Tukhar) हिन्दुकुश के उत्तर में बसे परमाकम्बोज के पड़ोसी थे जो वक्षु नदी की उपत्यका में बसे हुए थे.
महाभारत, बाणभट्ट के हर्षचरित और काव्यमीमांसा में एक तुषारगिरी का उल्लेख भी आता है. कुछ इतिहासकारों का मत है कि वर्तमान हिन्दूकुश पर्वत एतिहासिक तुषारगिरी हो सकता है. कुषाणों के साथ तुषार (Tukhar) भी भारत आये थे. वराहमिहिर की बृहत्संहिता में भरूच और सिन्धु घाटी के बारबरिकम में भी तुषारों के बसे होने का उल्लेख है [बृहत्संहिता XVI.6].
भारतीय ग्रंथों में तुषारों को क्षत्रिय बताया गया है
महाभारत में कम्बोजों, तुषारों, शकों, यवनों, पहलवों, (वृष्णिवंशी) हरहूणों आदि को क्षत्रिय बताया गया है पर वैदिक नियमों का सही ढंग से पालन नहीं करने के कारन वे धीरे धीरे म्लेच्छ हो गये (महाभारत: १२:३५). मनुस्मृति में भी दावा किया गया है कि कम्बोज, शक, यवन, परद, पहलव आदि प्रारम्भ में अच्छे क्षत्रिय थे, लेकिन वेद और वैदिक आचार संहिता का ठीक से पालन न करने के कारण धीरे-धीरे म्लेच्छ स्थिति को प्राप्त हो गए.
परन्तु ऋषिक जातियों को ऋषियों का वंशज बताया गया है और उनके लिए किसी भी भारतीय ग्रन्थ में म्लेच्छ शब्द का प्रयोग अभी तक हमें नहीं मिला है. इसलिए तुषारों और ऋषिकों (कुषाणों) के सांस्कृतिक, धार्मिक, भाषाई और यहाँ तक की स्थानिक रूप से एक दिखाई देने पर भी ‘जड़ मूल’ से अलग होने की सम्भावना बची रहती है.
महाभारत युद्ध में तुषारों की भूमिका
शक, तुषार (Tukhar) और यवन कम्बोज के राजा सुदक्षिना के नेत्रित्व में महाभारत की लड़ाई में कौरवों के पक्ष में पांडवों के विरुद्ध युद्ध किया था [MBH 6.66.17-21; MBH 8.88.17]. कम्बोजों के कौरवों के पक्ष में युद्ध करने का एक कारन यह भी हो सकता है कि दुर्योधन की पत्नी कम्बोज थी. कर्णपर्व में तुषारों को भयंकर और खतरनाक योद्धा बताया गया है.
F. E Pargiter लिखते हैं कि “the Tusharas, along with the Yavanas, Shakas, Khasas and Daradas had collectively joined the Kamboja army of Sudakshina Kamboj and had fought in Kurukshetra war under latter’s supreme command. [The Nations of India at the Battle Between the Pandavas and Kauravas, Journal of the Royal Asiatic Society of Great Britain and Ireland, 1908, pp 313, 331, Dr F. E. Pargiter.]
ईसापश्चात भी तुषार (Tukhar) हिन्दू ही थे
निचे विकिपीडिया तुषार (Tushara) से लिया गया स्क्रीनशॉट है. ये तुषारों की भाषा संस्कृत और वैदिक भाषा लिख रखें हैं और तुषारों का धर्म हिन्दू और वैदिक धर्म लिख रखें हैं.
ऋषिक और तुषार
महाभारत में अर्जुन की दिग्विजय के प्रसंग में कम्बोज का लोह (लोहान) और ऋषिक जनपदों के साथ उल्लेख है (सभा. २७, २५). महाभारत के सभा पर्व के अनुसार ऋषिक जातियों ने लोहान, परमा कम्बोज के साथ मिलकर अर्जुन के दिग्विजय के दौरान उत्तरापथ के राज्यों के विजय में सहायता की थी.
परन्तु महाभारत के सभापर्व में युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भाग लेने केलिए आनेवाले लोग थे-तुषार (Tukhar), बाह्लिक, किरात, पहलव, परद, दरद, कम्बोज, शक, कंक, रोमक, यवन, त्रिगर्त, क्षुद्रक, मालव, अंग, वंग, वृष्णिवंशी हरहुणा, चिना, सिन्धी, मुंडा, टंग, केकय, कश्मीरी आदि (महाभारत : 2.51-2.53; 3.51)
उपर्युक्त आगंतुकों में ऋषिक जाति नहीं है. इसलिए तमाम तथ्यों एवं सबूतों के विशलेषण के बाबजूद संदेह रह ही जाता है कि उत्तरापथ के राज्यों को जीतने में अर्जुन की सहायता करनेवाले ऋषिक लोग राजसूय यज्ञ में भाग क्यों नहीं लिए और यदि शामिल हुए तो वे तुषार (Tukhar) ही तो नहीं थे?
तारिम उपत्यका (शिनजियांग) के तुषार
मध्य एशिया के लेखक राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं, “१२४ ईस्वीपूर्व चीनी यात्री चान्ग्क्यान यूची शकों (कुषाणों) को वक्षु उपत्यका का स्वामी पाता है. बैक्ट्रिया का नाम बाद में तुखारिस्तान तुषारों के कारण पड़ा. यूची मूलतः शक भाषा भाषी थे. इनकी भाषा ईरानी, संस्कृत और पुरानी शक भाषा सतेम परिवार (प्राचीन संस्कृत) से सम्बन्धित थी.”
वे आगे लिखते हैं, “ईसा कि प्रथम शताब्दी में तारिम उपत्यका के दक्षिणी भाग में उस समय भारतीय लिपि और भारतीय भाषा का प्रयोग होता था. नाम आदि से मालूम होता है कि भारत से जाकर बस गए लोगों का वहां प्राधान्य था. तारिम उपत्यका के उत्तरी भाग में तुषारों का निवास था. यद्यपि भाषा, जाति और रीती-रिवाज में उत्तर दक्षिण का अंतर था, तो भी….दोनों प्रदेश एक ही धर्म और संस्कृति के माननेवाले थे.”
बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हुई खोज में तारिम बेसिन में इंडो-यूरोपियन भाषा के दो नए हस्तलेख मिले जो पढ़ने में आसान थे क्योंकि वे भारतीय-ब्राह्मी लिपि में थे. लेखक का मत है कि उनलोगों के पूर्वज एक थे और उनके शब्दाबली भी सामान थे. एक बुद्धिष्ट ग्रन्थ पुरानी तुर्की (उइघुर) भाषा में मिलता है जो तोचारी भाषा में संस्कृत से पहले अनुवादित किया गया था [ Beckwith (2009), pp. 380-381].
तोचारी (तुषार) राजा देवपुत्र की उपाधि धारण करते थे. कूचा के राजा खुद को देवपुत्र कहते थे जैसे कुषाण खुद को देवपुत्र कहते थे [Aryan Books International. p. 133]. तारिम उपत्यका के तुषार (Tukhar) बहुत संख्यां में बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिए थे. बौद्ध धर्म अपनाने से पहले वे किस धर्म को मानते थे इसकी पर्याप्त जानकारी नहीं मिलती है पर वे सूर्य देवता, उषा देवी और सोम (चन्द्रमा) की पूजा करते थे [Snow, J.T. (June 2002), “The Spider’s Web. Goddesses of Light and Loom].
जब चीनी महंत जुआनजैंग ६३० ईस्वी में कूचा पहुंचा तो सुवर्णपुष्प का पुत्र और उत्तराधिकारी राजा सुवर्णदेव ने उसका स्वागत किया जो हीनयान बौद्ध धर्म का अनुयायी था. जुआनजैंग ने यह भी बताया की उनके सिद्धांत और नियम वही थे जो भारत में थे और जो उन्हें पढ़ते थे वे ठीक भारतियों की तरह पढ़ते थे. [Grousset, René (1970). The Empire of the Steppes: A History of Central Asia]
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