पश्चिमी इतिहासकारों की मानें तो मुट्ठी भर द्वीपों पर बसे और छोटे सा यूरोपीय राज्य ग्रीक और रोम में ही केवल विकसित सभ्यता थी, ग्रीक, रोमन साम्राज्य था और वहां सम्राट होते थे बाकी सब तो असभ्य (barbaric), घुमंतू (nomad), कबीले (tribe) और कबीले के सरदार (Chieftain) मात्र होते थे.
पश्चिमी इतिहासकारों की नजर में कैसे कैसे असभ्य, घुमन्तु, कबीले और कबीले के सरदार होते थे उसका कुछ उदाहरन देखिए: छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व के ईरान का अखामानी (Achamanid) साम्राज्य जो, इन्ही इतिहासकारों के शब्दों में, मध्य एशिया से लेकर तुर्की, मिस्र और ग्रीस तक विस्तृत था; पर, तीन महाद्वीपों पर विस्तृत उस महान साम्राज्य को बनाने वाले अखामनी लोग असभ्य, घुमन्तु, कबीलाई और कबीले के सरदार मात्र थे.
इतने बड़े अखामानी साम्राज्य के महान सम्राट कुरुष/कुरव (Cyrus) को युद्ध में मौत के घाट उतारकर अखामनियों को पराजित करनेवाले शक, जिनके नाम पर प्राचीन काल में पूरे मध्य एशिया को शाकल द्वीप अथवा शक द्वीप कहा जाता था और इन्ही इतिहासकारों के अनुसार Scythia इन्ही शकों का बसाया हुआ था, वे शक भी इनकी नजर में असभ्य, घुमन्तु, कबीलाई और कबीले के सरदार मात्र थे. इसी तरह उज्बेकिस्तान से मथुरा तक साम्राज्य स्थापित करनेवाले कुषाण/तुषार तथा मध्य और मध्य-पूर्व एशिया पर शासन करनेवाले हिन्दू-बौद्ध तुर्क भी असभ्य, घुमंतू, कबीलाई और कबीले के सरदार मात्र थे.
भारत के विशाल साम्राज्यों का उदाहरन मैंने इसलिए नहीं दिया कि मैकाले-वाम पद्धति से शिक्षित/कुशिक्षित लोग व्यर्थ कुतर्क कर अपना समय बर्बाद न करें और आगे ऋग्वेद में दिए गये भारतवर्ष के राजा, सम्राट और उनके साम्राज्यों से सम्बन्धित विवरणों और प्रमाणों पर ध्यान दे सकें.
पश्चिमी इतिहासकारों के क्षुद्र मानसिकता का कारण
पश्चिमी इतिहासकारों के क्षुद्र और विकृत मानसिकता के दो कारण हैं-पहला, उनका ईसाई विश्वास की सृष्टि का निर्माण बाईबल के कहे अनुसार सिर्फ ४००४ ईस्वीपूर्व हुआ था. इसलिए उनके लिए धार्मिक और मानसिक रूप से यह मानना मुश्किल था कि भारतवर्ष में हजारों वर्ष पूर्व एक सुविकसित सभ्यता थी, बड़े बड़े साम्राज्य और सम्राट होते थे, ज्ञान, विज्ञान, ज्योतिष, दर्शन, गणित, युद्ध विद्या आदि में उच्च स्तर पर पहुंचे हुए थे, आदि.
पश्चिमी इतिहासकारों के संकीर्ण मानसिकता का दूसरा कारण है उनका यह भ्रम की पृथ्वी पर सभ्यता, विकास, ज्ञान, विज्ञान, दर्शन, राजशाही, लोकतंत्र आदि सब ईसा मसीह के आने के बाद और ईसायत की देन हैं. इसी भ्रम में वे ईसापूर्व के अपने यूरोपीय इतिहास को अंधकार युग बताकर भुला दिए हैं. उन्हें सुकरात, गैलिलियो, ज्युदार्नोब्रूनो, ईसा मसीह आदि ज्ञानियों की दुर्गति भी भ्रम से मुक्त नहीं कर पाया है. अगर वे इस पर भी सत्य शोध कर लें की जिस बौद्धिक असहमति के कारण उनकी दुर्गति की गयी थी उस बौद्धिक ज्ञान का स्रोत क्या था तो उन्हें शायद भ्रम से मुक्ति मिल जाये और भारत के प्रति उनका नजरिया बदल जाये.
और जिन मैकाले-वामी पद्धति से शिक्षित/कुशिक्षित लोगों को हमारी बात पर भ्रम हो वे चौदहवीं शताब्दी से पूर्व का यूरोप का इतिहास पढ़ने का कष्ट अवश्य करें. इस लेख में आगे हम केवल ऋग्वेद से भारतवर्ष के अतिप्राचीन राज्यों, राजाओं, सम्राटों और साम्राज्यों का प्रमाण प्रस्तुत कर रहे हैं.
ऋग्वेद में अनेक प्रकार के राजाओं का उल्लेख
एक ओर तो वैदिक साहित्य पर काम करनेवाले अधिकारी विद्वान इस विषय में एकमत रहे हैं कि वैदिक काल में राजतन्त्र था, तो दूसरी ओर इन विद्वानों की रचनाओं और अनुवादों व व्याख्याओं में से अपने प्रयोजन केलिए कुछ शब्दों को अलग छांटकर कुछ दूसरे विद्वान आदिम कबीलों के सादृश्य पर वैदिक राजा को कबीले का सरदार सिद्ध करते रहे हैं.
इन अध्येत्ताओं को राजसत्ता के स्वरूप के विषय में कितना भी अनिश्चय क्यों न हो, इसके अस्तित्व के विषय में किसी प्रकार का संदेह इसलिए भी नहीं है कि ऋग्वेद में राजसत्ता के अस्तित्व के सूचक राजा जिसका प्रयोग १०० से अधिक बार हुआ है, भुवः सम्राट या भूपति (४.१९.२), एकराट (८.३७.३), अधिराट (१०.१२८.९), विराट (१.१८८.४-६), स्वराट (१.६१.९) आदि अनेक शब्द पाए जाते हैं जिनसे प्रकट होता है कि… छोटे राज्यों से लेकर विशाल राज्यों की कल्पना का ठोस भौतिक आधार अवश्य था. जहाँ तुलनात्मक रूप में छोटे-बड़े अनेक आकारों के राज्यों और पदों का उल्लेख मिलता हो तो इसे इतने सतही ढंग से नहीं निबटाया जा सकता है.
इसके अतिरिक्त ऋग्वेद में भुवन के राजा (५.८५.३), लोकहितकारी राजा (३.५५.२). भूगर्भीय सम्पदा के स्वामी राजा (२.१४.११), पूरे जगत के एकमात्र राजा (३.४६.२), समस्त जनों के राजा (१.५९.५; ६.२२.९; ७.२७.३) पर्वत, नदी, स्थल सभी के राजा (१.५९.३), ऋतजात या ऊँचे कुल में उत्पन्न राजा (९.१०८.८) आदि विवरण मिलते हैं. (हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य, लेखक-भगवान सिंह, पृष्ठ २००-२०३)
ऋग्वेद में वर्णित विभिन्न प्रशासनिक पद
ऋग्वेद में केवल इन विभिन्न प्रकार के राज्यों का ही आभास नहीं मिलता है, अपितु अमात्य (७.१५.३), सेनानी (७.२०.५), अधिवक्ता (२.२३.८), उपवक्ता (४.९.५), दूत (३.३.२), चर या स्पश (४.४.३) आदि पद भी मिलते हैं जो इस बात की अकाट्य पुष्टि करते हैं कि इस काल में एक व्यवस्थित राजतन्त्र और पद-क्रम विद्यमान था. दूसरी ओर ग्रामणी (१०.६२.११), विशपति (२.१.८), नाय (नायक?) (६.२४.१०), नेता (३.६.५), गणपति (२.२३.१) आदि शब्दों का प्रयोग एक संगठित ग्रामीण प्रशासन की ओर संकेत करता है (वही, पृष्ठ २०१). ऋग्वेद में प्रयुक्त सभा, समिति जैसे शब्दों और उनके अर्थ तथा भूमिका से तो सभी परिचित होंगे ही.
ऋग्वेद में वैदिक कालीन राजाओं के गुण-धर्म
राजा के पास एक विशाल भू-भाग और उस पर शासनाधिकार होना चाहिए (७.२७.३). इस विशाल क्षेत्र के शासन केलिए जरूरी है कि वह इसकी जानकारी रखे, विद्वान और विचारशील हो (९.९७.५६). उसका पालन, पोषण और शिक्षा आदि तो विधिवत हो ही, वह राजकुल में ही उत्पन्न हो (९.१०८.८). वह किसी के अधीन न हो (६.७.७), युद्ध के समय नेतृत्व सम्भाल सके (२.९.६). समस्त लोग उसकी अधीनता स्वीकार करते हों और उसके सामने झुकते हों (२.९.६). वह उदार हो और नियमों का स्वयं भी पालन करता हो (२.१.४).
राजा केलिए जरूरी है कि वह शत्रुओं को जीतकर राज्य-विस्तार करे अथवा उन्हें अधीन करके तथा कर वसूली करके कोष को भरा-पूरा रखे (४.५०.९). उसको निष्पक्ष भाव से न्याय करना और नियम तोड्नेवालों को दंड देना चाहिए (१.२४.१५). राजा को अनुपम वेश (१.२५.१३), वैभव (८.२१.१८), आवास (२.४१.५; ३.१.१८; ७.८८.५), ऊँचे आसन (३१/१२.८.३.४) और सुसज्जित रथ का (२.१८.४-६; ६.२९.२) स्वामी होना चाहिए.
इन विभिन्न योग्यताओं को ध्यान में रखेंगे तो पाएंगे कि वैदिक कालीन राजाओं से जो अपेक्षाएं की गयी हैं, उनका जो चित्र तैयार किया गया है, वह एतिहासिक कालों के राजाओं से तनिक भी भिन्न नहीं है. विशाल सेना रखनेवाले राजा अपनी शक्ति (प्रताप) से शत्रुओं को प्रचंड सूर्य की तरह तपाते हैं-तपन्ति शत्रुं स्वः न भूमा महासेनासः अमेभि: एषाम (७.३४.१९), जैसी उक्तियाँ शेष आशंका भी दूर कर देती है. (वही, पृष्ठ २०३-२०४)
वामपंथी इतिहासकारों के हास्यास्पद ज्ञान
बीबीसी को दिए अपने एक साक्षात्कार में इतिहासकार द्विजेन्द्रनाथ झा कहते है कि “पांचवीं सदी से छठी शताब्दी के आस-पास छोटे-छोटे राज्य बनने लगे और भूमि दान देने का चलन शुरू हुआ. इसी वजह से खेती के लिए जानवरों का महत्व बढ़ता गया. ख़ासकर गाय का महत्व भी बढ़ा. उसके बाद धर्मशास्त्रों में ज़िक्र आने लगा कि गाय को नहीं मारना चाहिए.”
अब देखिए, भारतीय एतिहासिक ग्रंथों के अनुसार तो कृषि का आविष्कार और कृषि कर्म की शुरुआत तो इच्छ्वाकू वंशी महाराज पृथु ने किया था जिनके साम्राज्य को पृथ्वी कहा जाता था जिसके कारण पूरी धरती के लिए सबसे प्रचलित शब्द आज भी पृथ्वी बनी हुई है. खैर, वामपंथी होने के कारन वे उतना दूर देख पाने में असमर्थ थे किन्तु इतना तो सबको पता हैं कि ५०० ईस्वी पूर्व हर्यक वंश का साम्राज्य था जिसमे बिम्बिसार और अजातशत्रु दो सम्राट थे. फिर घनानंद विशाल मगध साम्राज्य का सम्राट था.
उसके बाद चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य ३०० ईस्वीपूर्व इन्ही इतिहासकारों के अनुसार अफगानिस्तान, पाकिस्तान से लेकर उत्तर में कश्मीर दक्षिण में नर्मदा और पूर्व में बंग प्रदेश के अधिकांश हिस्सों पर था. बाद में अशोक ने उस साम्राज्य का और अधिक विस्तार किया था. फिर पांचवी-छठी शताब्दी में छोटे छोटे राज्य बनने लगे यह कहना कितना हास्यास्पद है! चक्रबर्ती सम्राट विक्रमादित्य की गाथा तो अरब देश में भी गाये जाते थे जिसके सबूत आज भी किताबों, ताम्र और स्वर्ण पत्रों पर और संग्रहालयों में सुरक्षित हैं. ये सब क्या छोटे मोटे राज्य थे?
वास्तविकता यह है कि ईसाई अंग्रेज इतिहासकारों के भ्रमित ज्ञान को अलौकिक ज्ञान माननेवाले और निहित स्वार्थों केलिए एजेंडा इतिहास लिखने वाले वामपंथी इतिहासकार बौद्धिक दिवालियापन के शिकार हो चुके हैं. तभी तो रोमिला थापर कहती है कि महाभारत के युद्धिष्ठिर ने सम्राट अशोक से शिक्षा ग्रहण किया था. शायद इसीलिए साम्राज्यवादी, वामपंथी इतिहासकारों को ऋग्वैदिक राजाओं, सम्राटों द्वारा वसूला जाना वाला ‘कर’ और उन्हें दिया जाना वाला ‘बलि’ (भेंट) इन्हें ‘लूट’ का माल लगता है.
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