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हैदराबाद को अत्याचारी निजाम के चंगुल से मुक्त कराने की गौरव गाथा

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आजकल तेलंगाना और पूरे देश में “रजाकार” फिल्म चर्चा में हैI यह फिल्म हैदाराबाद रियासत (प्राचीन भाग्यनगर और विजयनगर का क्षेत्र) के निजाम द्वारा हिन्दुओं पर अमानवीय अत्याचार, हिंसा और बलात्कार की सच्ची घटना पर आधारित हैI दरअसल 1947 से पूर्व भारतवर्ष में 500 से अधिक रियासतें थी जिनमें 400 से अधिक गैर राजपूत, गैर ब्राह्मण रियासतें थीI भारत में हैदराबाद रियासत को छोड़कर बाकी सभी रियासतें भारत में विलय कर चुकी थीI हैदराबाद के निजाम ने 15 अगस्त 1947 को हैदराबाद को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया था और वह पाकिस्तान में विलय को तो तैयार था परन्तु भारत में नहीं।

हैदराबाद रियासत  पर जब मुगल आक्रमणकारियों का प्रतिनिधि निजाम उल मुल्क आसफ जाह का शासन था तब वह भारत में अंग्रेजों के बढ़ते वर्चस्व को देखते हुए उनसे मैत्री कर लीI सन् 1778 से अंग्रेजों ने अपना निरीक्षक रेजिडेंट हैदराबाद राज्य में रखना शुरू कर दियाI अक्तूबर 1800 में ब्रिटिश सरकार और हैदराबाद निजाम के बीच एक संधि हुई, जिसके परिणामस्वरूप  हैदराबाद को ‘संरक्षित राज्य’ घोषित किया गयाI सन् 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन को कुचलने में निजाम ने अंग्रेजों का साथ दिया थाI

हैदराबाद के निजाम का मजहबी कुशासन

मजहबी मामलों के लिए राज्य में ‘उमुरे मजहबी’ विभाग था. मस्जिदों, मंदिरों, गिरिजाघरों पर निगरानी रखना और मजहबी शिक्षा संस्थाओं को चलाना और प्रमुख मजहबी उत्सवों के समारोहों में सुगमता लाना’ इस विभाग का घोषित उद्देश्य था, जिस पर सन् 1936 तथा 1937 में क्रमशः 6 लाख और 34 लाख व्यय किये गए. हिन्दुओं के धर्मांतरण के लिए प्रति वर्ष रू. 34 लाख राज्य द्वारा व्यय किये जाते थेI हिन्दुओं के सामाजिक एवं धार्मिक समारोहों में अड़चनें पैदा करना आम बात थीI हिन्दुओं की धार्मिक मान्यताओं को ताक पर रखकर मस्जिद, गिरिजाघर बनाने के लिए सामान्यत: अनुमति दी जाती थी, पर मंदिरों की मरम्मत के लिए भी अनुमति दुष्कर थी; नए मंदिरों के निर्माण की बात ही छोड़ दीजिएI हिन्दुओं द्वारा वाद्य यंत्र वादन के समय मस्जिदों के चारों ओर कम से कम 300 फीट की दूरी रखना अनिवार्य थाI शियापंथी निजाम की दृष्टि में मुहर्रम का विशेष महत्व थाI मुहर्रम और कोई हिन्दू त्यौहार एक साथ यदि आ जाते तो हिन्दू त्योहारों पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगाए जाते थेI

23 जनवरी, 1934 के सरकारी आदेशानुसार आर्य समाज पर मंदिर के बाहर हवन, सत्संग या प्रवचन करने पर पाबंदी लगाई गईI 12 अप्रैल, 1934 को आर्य समाज पर मंदिर परिसर में भी प्रवचन आदि पर प्रतिबंध लगाया गयाI सन् 1935 में जारी की गई गश्ती क्र. 52 एवं 53 अध्यादेश के अनुसार सभी हिन्दू मंदिरों में घंटानाद, ध्वज फहराना, प्रवचन इत्यादि निषिद्ध घोषित कर दिए गएI

पुलिस विभाग में लगभग सभी मुस्लिम थेI पहले से जो थोड़े बहुत हिन्दू थे, उनके स्थान पर नई भर्ती सिर्फ मुस्लिमों की होती थीI राज्य की सेना में हिन्दुओं के लिए कोई स्थान नहीं थाI उसमें अरबी और राज्य के बाहर से मुस्लिमों की भर्ती प्रमुखता से से होती थीI मराठी, तेलुगु भाषाओं को पूर्णतः तिरस्कृत कर उनके स्थान पर उर्दू को थोपने का संकल्प सा थाI डेढ़ करोड़ की जनसंख्या में मुठ्ठी भर लोगों की मातृभाषा उर्दू; इसके विपरीत शेष लोगों की मातृभाषा कन्नड़, मराठी और तेलुगु थी, फिर भी राज्य में प्राथमिक से विश्वविद्यालयीन शिक्षा तक शिक्षा अरबी और फ़ारसी मिश्रण से बनी हैदराबादी उर्दू में दी जाती थीI

निजाम सरकार की नीति से राज्य के किसान त्रस्त थेI रास्ते बनाते समय सरकार द्वारा किसानों से ली गई जमीन के बदले मुआवजा देने का कोई नियम नहीं थाI इसके बावजूद रास्ते हेतु ले ली गयी जमीन का भी किसान को कर चुकाना पड़ता थाI इसी प्रकार गांव में जानवरों के पोषण हेतु आरक्षित ‘चारागाह’ भी निजाम सरकार द्वारा फसल उगाने के लिए दे दिए गए थे, जिससे जानवरों का पालन किसानों के लिए महंगा हो गया थाI

हैदराबाद के निजाम का अपने ही प्रजा हिन्दुओं के विरुद्ध जिहाद

हैदराबाद के निजाम उस्मान अली खान आसफ जाह भारत के भीतर स्वतंत्र राज्य की मांग पर अड़ा था और जो भी हिन्दू भारत के पक्ष में बात करता उसकी हत्या कर दी जाती थीI अगर राष्ट्रवादी नाबालिग हिन्दू होता था तो परिणाम पूरे परिवार को भुगतना पड़ता थाI जम्मू-कश्मीर के राजा हरिसिंह को सत्ता से बाहर करने के लिए जोर लगा रहे नेहरु-गाँधी और कांग्रेस (सरदार पटेल को छोड़कर) हैदराबाद में हो रहे हिन्दुओं के नरसंहार पर आँख-कान मूंदे बैठे थेI हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार के विरुद्ध आर्य समाज, वीर सावरकर के नेतृत्व में हिन्दू महासभा और राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ ने आन्दोलन प्रारम्भ कियाI

हैदराबाद के अत्याचारी निजाम के साथ जवाहरलाल नेहरु

हैदराबाद राज्य के 88% हिंदुओं पर निजाम और उनकी खाकसार पार्टी का दमन 1920 से प्रारम्भ हो चुका थाI बाद में उस दमन चक्र में निजाम की रजाकार सेना, इत्तेहादुल मुस्लिमीन (अब ओवैशी का AIMIM), रोहिले, पठान और अरब के लोग शामिल थेI सन् 1938 में स्थिति और भी भयावह हो गई। हिंदुओं के लिए शिकायतें दर्ज कराने के मार्ग भी बंद कर दिए गए। अन्यायी निजाम राजशाही के विरुद्ध नि:शस्त्र प्रतिरोध करने के अतिरिक्त हिंदुओं के समक्ष कोई अन्य विकल्प नहीं बचा था।

परिस्थितियों ने उस समय विकराल रूप धारण कर लिया, जब 6 अप्रैल, 1938 को हैदराबाद में हिंदुओं को लक्ष्य बनाते हुए मुस्लिमों ने बड़ा दंगा किया। परन्तु उस दर्दनाक घटना पर भी निजाम और उसकी पुलिस मूकदर्शक बनी रही। निजाम सरकार ने उलटे 24 हिंदुओं पर हत्या का आरोप मढ़ते हुए अभियोग चलाया। हिंदू आरोपियों पर अभियोग चलाने के लिए हिंदुओं ने वीर नरीमन एवं अधिवक्ता भूलाबाई देसाई को बुलाया। उनमें से वीर नरीमन को निजाम ने अपने राज्य में प्रवेश ही नहीं करने दिया और दूसरे भूलाबाई आ तो गए, पर उनके लिए ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी गई कि उन्हें अपना बोरिया बिस्तर समेटकर स्वयं वापस जाना पड़ा।

बाहर के पंद्रह समाचार पत्रों के राज्य में प्रवेश पर प्रतिबंधित लगाने संबंधी आदेश 22 अगस्त, 1938 को जारी किए गए। सितंबर 1938 में और भी पांच-छह समाचार पत्र प्रतिबंधित किए गए। दूसरे राज्यों के जो निवासी निजाम को पसंद नहीं थे उन्हें बंदी बनाकर सीमापार करना और साथ ही उन्हें आश्रय देनेवालों को अपराधी मानकर सजा सुनाना जैसे अधिकार पुलिस कमिश्नर एवं तहसीलदार को दे दिए गए। इसी प्रकार हैदराबाद राज्य की जो संस्थाएं सरकार के विरुद्ध क्रिया कलाप करेंगी, उन्हें अवैध घोषित कर उनके सभासदों पर अभियोग चलाना और उनकी संपत्ति को जब्त करने जैसे आदेश भी जारी किए गए। अपराधी यदि अल्पवयस्क, अर्थात् सोलह वर्ष से कम आयु का, है तो उसके द्वारा घटित अपराध के लिए उसके अभिभावकों को भी बंदी बनाने जैसे अत्याचार इन आदेशों में शामिल किए गए (केसरी, 9 सितंबर, 1938)।

राजनीतिक चेतना जागरण के प्रयास

हैदराबाद राज्य में हिंदुओं के लिए उस समय दो संस्थाएं काम कर रहीं थीं। पहली थी आर्य समाज और दूसरी थी ‘हैदराबाद हिंदू सब्जेक्ट्स लीग’। भाई श्यामलाल, भाई बंशीलाल, पं. नरेंद्र, पं दत्तात्रय प्रसाद, केशवराव कोरटकर, श्री चंदूलाल, बैरिस्टर विनायकराव विद्यालंकार, वेदमूर्ति पं. श्रीपाद दामोदर सातवलेकर आदि आर्य समाज के नेताओं ने उस कठिन कालखंड में भी समाज सुधार के लिए काम और साथ ही शुद्धि और हिंदुत्व की रक्षा के लिए भी कार्य किया। (चंद्रशेखर लोखंडे, हैदराबाद मुक्ति संग्राम का इतिहास, श्री घूड़मल प्रह्लाद कुमार आर्य धर्मार्थ ट्रस्ट, हिंडोन, राजस्थान, 2004, पृ.35,49,55)।

अन्य राज्यों में चलने वाले आंदोलनों के समाचार पढ़कर निजामशाही के नेताओं ने ‘स्टेट कांग्रेस’ नाम से एक संस्था के गठन पर विचार किया। स्टेट कांग्रेस के नेताओं ने कहा कि ‘सत्य और अहिंसा हमारा मूल आधार है और हम जातिवाद विरोधी हैं’। वे यह बात भी उच्च स्वर में कहते थे कि ‘हम राष्ट्रवादी हैं पर जातिवादी नहीं और हिंदू महासभा से हमारा संबंध नहीं है’। फिर भी निजाम, उसके मातहत और हैदराबाद के मुसलमानों पर इनका रत्तीभर असर नहीं हुआ। (स्वामी रामानंद तीर्थ, मेमॉयर्स ऑफ हैदराबाद फ्रीडम स्ट्रगल, पॉपुलर प्रकाशन, मुंबई,1961, पृ.86- 95; केसरी, 13 सितंबर 1938)

नि:शस्त्र प्रतिरोध की पदचाप

आर्य समाज डिफेंस कमेटी के सचिव एस. चंद्रा और आर्य समाज के अध्यक्ष घनश्याम दास गुप्ता ने हैदराबाद राज्य का दौरा कर अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अध्यक्ष स्वातंत्र्यवीर सावरकर से नासिक में भेंट कर उन्हें वहां की परिस्थिति से अवगत कराया (केसरी, 9 अगस्त, 1938)।

23 सितंबर, 1938 को पूर्व क्रांतिकारी सेनापति पांडुरंग महादेव बापट पुणे से हैदराबाद में शांतिपूर्ण विरोध के लिए निकल पड़े। बापट ने निजाम राज्य के प्रतिबंधों और वहां पर भाषण करने पर लगे प्रतिबंधों की चिंता नहीं की। लेकिन हैदराबाद पहुंचते ही निजाम पुलिस ने उन्हें बंदी बनाकर वापस पुणे भेज दिया। वापस आकर उन्होंने कहा कि ब्रिटिश भारत में प्रचार कर वे 1 नवंबर को पुनः नि:शस्त्र प्रतिरोध हेतु जाएंगे (केसरी, 27 सितंबर,1938)। दिनांक 11 अक्टूबर, 1938 को वीर सावरकर और सेनापति बापट के बीच हैदराबाद में प्रस्तावित आंदोलन को लेकर पुणे में लगभग एक घंटे तक विचार-विनिमय हुआ। इसके बाद उसी दिन शनिवार को हुई विशाल सभा में सावरकर ने आंदोलन की सैद्धांतिक भूमिका स्पष्ट की।

संघ स्वयंसेवकों की सत्याग्रह में सहभागिता

इसी सभा में लोकमान्य तिलक के पोते और ‘मराठा’ के संपादक गजानन विश्वनाथ केतकर की अध्यक्षता में ‘हिंदुत्वनिष्ठ नागरिक सत्याग्रह सहायक मंडल’ का गठन किया (केसरी,14 अक्टूबर 1938)। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने भी इसी मंडल के माध्यम से सत्याग्रह किया। दंगों में मारे गए मृतकों के अनाथ परिवारों को सहायता देने और अभियुक्तों को प्रतिबंधात्मक व्यय के लिए ‘भागानगर हिंदू सहायता निधि’ प्रारंभ की गई। नि:शस्त्र प्रतिरोध संघर्ष हेतु ‘भागानगर हिंदू सत्याग्रह निधि’ नाम से अलग निधि शुरू करने का निवेदन सावरकर ने घोषित किया (केसरी,8 नवंबर 1938)।

नि:शस्त्र प्रतिरोध आंदोलन आरंभ हो चुका था। प्रतिबंधित हैदराबाद स्टेट कांग्रेस ने इस घटना के पश्चात 24 अक्टूबर, 1938 को और आर्य समाज ने 27 अक्टूबर, 1938 को संघर्ष शुरू किया। 25 दिसंबर, 1938 को लोकनायक बापूजी अणे की अध्यक्षता में भाई परमानंद, स्वातंत्र्यवीर सावरकर जैसे प्रबुद्ध नेताओं की उपस्थिति में अखिल भारतीय आर्य परिषद का खुला अधिवेशन सोलापुर में हुआ, जिसमें निजाम विरोधी संघर्ष में शामिल लोगों की संख्या 22,000 बताई गई (केसरी, 30 दिसंबर 1938)।

इसके बाद 28 दिसंबर, 1938 को स्वातंत्र्यवीर सावरकर की अध्यक्षता में नागपुर में अखिल भारतीय हिंदू महासभा का अधिवेशन हुआ, जिसमें निजाम विरोधी संघर्ष जारी रखने संबंधी प्रस्ताव पारित हुआ। सावरकर के आशीर्वाद से हिंदू सत्याग्रह मंडल की प्रथम टुकड़ी 7 नवंबर, 1938 को पुणे से निकली। हैदराबाद राज्य में नागरिक स्वतंत्रता का संघर्ष सितंबर 1938 में आरंभ होकर अगस्त 1939 तक चला, जिसमें हिंदू महासभा,आर्य समाज और स्टेट कांग्रेस ने भाग लिया। आर्य समाज का संघर्ष धार्मिक स्वतंत्रता तक सीमित था। हिंदू महासभा ने विषय को व्यापक और विस्तारित करते हुए अन्य नागरिक स्वतंत्रता के मुद्दे भी उसमें समाविष्ट किए, जबकि स्टेट कांग्रेस का जोर उत्तरदायी शासन प्रणाली पर था।

हैदराबाद को अत्याचारी मुस्लिम शासन से मुक्ति केलिए ऑपरेशन पोलो

सरदार पटेल के समक्ष आत्मसमर्पण करते हुए हैदराबाद के निजाम

मुस्लिम लीग के नेता जिन्ना के प्रभाव में हैदराबाद के निजाम नवाब बहादुर जंग ने लोकतंत्र को नहीं माना थाI नवाब ने काज़मी रज्मी को जो की एमआईएम ( मजलिसे एत्तहुद मुस्लिमीन) का प्रमुख लीडर था के नेतृत्व में राजकार सेना बनाई थी जो करीब दो लाख के तादात में थी। मुस्लिम आबादी बढ़ाने के लिए उसने हैदराबाद में लूटपाट मचा दी थीI जबरन इस्लाम में धर्मपरिवर्तन, हिन्दू औरतो के रेप और सामूहिक हत्याकांड करने शुरू कर दिए थे। हैदराबाद के निजाम को पाकिस्तान से म्यांमार के रास्ते लगातार हथियार और पैसे की मदद मिल रही थी।

ऑस्ट्रेलिया की कंपनी भी उन्हें हथियार सप्लाई कर रही थीI तब पटेल ने तय किया की इस तरह तो हैदराबाद भारत के दिल में नासूर बन जायेगाI तब पटेल ने तत्कालीन गर्वनर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन से संपर्क किया। माउंटबेटन चाहते थे कि भारत सेना का इस्तेमाल किए बिना स्थिति को संभाले। जवाहरलाल नेहरू भी इस मसले का शांतिपूर्ण समाधान चाहते थे। पटेल की सोच अलग थी। वह हैदराबाद के निजाम की हिमाकत को कतई बर्दाश्त करने के मूड में नहीं थे।

दिल्ली में पटेल अलग-अलग विकल्पों पर मंथन कर रहे थे, इधर निजाम हथियार जुटाने लगा, पाकिस्तान के साथ भी नजदीकी बढ़ानी शुरू कर दी थी। पटेल को लग गया कि अब सर्जरी जरूरी है। भारत के साथ हैदराबाद के शांतिपूर्ण ढंग से शामिल होने को लेकर बातें टूट चुकी थीं। सैन्य कार्रवाई को मंजूरी मिलते ही 13 सितंबर 1948 को भारत की फौज ने हैदराबाद पर हमला बोल दिया।

हैदराबाद का विलय करने में भारतीय सेना के सामने ‘रजाकारों’ की चुनौती थी। यह एक निजी सेना थी। इसने तत्‍कालीन निजाम शासन का बचाव किया था। देश को आजादी मिलने पर रजाकारों ने भी भारत में हैदराबाद के विलय का विरोध किया था। हैदराबाद भारत का हिस्‍सा न बने इसके लिए निजाम बाहरी समर्थन भी बंटोर रहे थे। मोहम्‍मद अली जिन्‍ना ने उन्‍हें भरोसा दिया था कि इसमें उन्‍हें पाकिस्‍तान का पूरा साथ मिलेगा। एक और बात यह थी कि निजाम की शादी तुर्की के आखिरी खलीफा की बेटी से हुई थी। वो दुनिया के सबसे दौलतमंद लोगों में शुमार थे।

पटेल ने गुप्त तरीके से योजना को अंजाम दिया। सेना के हैदराबाद में प्रवेश के बाद नेहरू और राजगोपालाचारी को इस जानकारी मिली। वे इसे लेकर बेहद चिंतित थे। नेहरू की चिंता यह थी कि कहीं पाकिस्‍तान इसे लेकर कोई जवाबी कार्रवाई नहीं कर दे। पटेल ने घोषणा की कि भारतीय सेना हैदराबाद में घुस चुकी हैI इसे रोकने के लिए अब कुछ नहीं किया जा सकता हैI हैदराबाद में भारतीय सेना की कार्रवाई में सबसे ज्यादा हैदराबाद के रजाकार मारे गए, जो वहां पुलिस का एक अंग थेI कहा जाता है कि ऑपरेशन के दौरान (और बाद में भी) हर जगह सेना ने रजाकार सेना को शिनाख्त कर के मौत के घाट उतार दिया।

संयुक्त राष्ट्र में मामले पर विचार के लिए 17 सितंबर 1948 की तारीख तय की गई थीI इससे एक दिन पहले ही हैदराबाद के निजाम उस्मान अली खान ने आत्मसमर्पण कर दियाI पाकिस्तान और उसके समर्थकों का चेहरा फीका पड़ गयाI इस तरह से तत्कालीन हैदराबाद का 17 सितंबर, 1948 को भारत में विलय किया गया।

अभियान के दौरान व्यापक तौर पर हिंसा हुई थीI अभियान समाप्ति के बाद नेहरू ने इसपे जाँच के लिए एक कमिटी बनाई थी जिसकी रिपोर्ट साल 2014 में सार्वजनिक हुई। अर्थात रिपोर्ट को जारी ही नहीं किया गया थाI रिपोर्ट बनाने के लिए सुन्दरलाल कमिटी बनी थीI रिपोर्ट के मुताबिक हैदराबाद मुक्ति संग्राम में 27 से 40 हजार जाने गई थी हालाँकि जानकार ये आंकड़ा दो लाख से भी ज्यादा बताते हैं।

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