इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना सन १९८५ में अंग्रेजों ने की थी ताकि भारतीय लोगों को १८५७ की तरह क्रन्तिकारी और हिंसक विद्रोह करने से रोका जा सके. वैसे कांग्रेस के संस्थापक ए.ओ.ह्यूम को माना जाता है.
कांग्रेस के संस्थापक ए.ओ.ह्यूम को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान 17 जून 1857 को उत्तर प्रदेश के इटावा मे जंगे आजादी के सिपाहियों से जान बचाने के लिये मुंह में कालिख लगा, साड़ी पहन और बुर्का डालकर ग्रामीण महिला का वेष धारण कर भागना पड़ा था. उस समय वे इटावा के मजिस्ट्रेट एवं कलक्टर थे.
स्वातन्त्र्य वीर सावरकर ने अपनी जीवनी में लिखा है, “१० मई १८५७ को क्रन्तिकारी सैनिकों ने अंग्रेज सरकार के विरुद्ध विद्रोह किया, वहां के अंग्रेज अधिकारियों को काट डाला और एक सप्ताह के अंदर दिल्ली पर चढ़ाई कर भारतीय सेना की सहायता से वहां के ब्रिटिश अधिकारीयों को तलवार से मौत के घाट उतारकर और दिल्ली जीतकर हिन्दुस्थान की स्वतंत्रता की खुली घोषणा कर दी. तेजी से विद्रोह पुरे देश में फ़ैलने लगा. ऐसे में श्रीयुत ह्युम अपने परम विश्वसनीय तथा राजनिष्ठ भारतीय सैनिकों को चुनकर एक संरक्षक टुकड़ी बनाई और असिस्टेंट मजिस्ट्रेट को आदेश देकर इटावा शहर के सारे रस्ते बंद करवा दिए. इस व्यवस्था के बाद भी कुछ क्रान्तिकारी सैनिक नगर में घुसकर एक मन्दिर में ठहरे हुए थे. ह्युम यह सोचकर की इनको पकडवाने में राजनिष्ठ प्रजाजन उनकी मदद करेंगे सैनिकों के साथ उस मन्दिर पर आक्रमण करने पहुंचे, परन्तु राजनिष्ठ प्रजाजन मन्दिर को घेरे हुए क्रांतिकारियों की जय जयकार कर रहे थे. ह्युम ने फिर भी अपने सैनिकों को साथ लेकर असिस्टेंट मजिस्ट्रेट डैनियल को आक्रमण का आदेश दिया. डैनियल के साथ सिर्फ एक भारतीय सैनिक आगे बढ़ा. क्रांतिकारियों ने गोलीबारी कर दोनों को ढेर कर दिया. फिर तो ह्युम आज्ञा भंग करने वाले सैनिकों को लताड़ना भूल कर सरपट अपने छावनी की ओर भागे और तम्बू में पहुंचकर ही दम लिया.
शीघ्र ही खुला विद्रोह हो गया और २२ मई को ब्रिटिश भारतीय सैनिक ब्रिटिश छावनी पर टूट पड़े. उन्होंने कोषागार लूटे बंदीगृह खोल दिए और अंग्रेज सैनिक अधिकारी पादरी व्यापारी औरतें बच्चे सारे गोरों को चेतावनी दी की यदि तत्काल वे इटावा छोड़कर नहीं भागे तो कत्ल कर दिए जायेंगे. इस आदेश के बाद गोरे डर से कांपते हुए इधर उधर भागने लगे. वे जिधर से भागते उधर लोग झुण्ड बनाकर मारो फिरंगियों को कहते हुए दौड़ जाते. जिलाधिकारी ह्युम को सब तलाश कर रहे थे और सब उन्हें पहचानता भी था. वे जान बचाकर भागने के लिए अपने गोरे मुंह पर पहले कालिख पोती, फिर साड़ी पहनी और उस पर बुरका ओढा. तब राजनिष्ठ भारतीय सैनिक उन्हें बचाने के लिए तैयार हुए.
अपने प्राणों पर बन आई इस घटना का जो डर ह्युम साहब के मन में बैठा, वह जीवन भर उनको बेचैन किए रहा और इसका परिणाम उनके राजनीती पर भी पड़ा. १८५७ जैसी सशस्त्र क्रांति दुबारा नहीं झेलनी पड़े इसकी चिंता उन्हें हमेशा सताती रही. उन्हें यकीन हो गया था की हिन्दुस्थान की जनता की शांति दिखावटी होती है और कब किस कारन कोई चिंगारी भड़क जाए इसका कोई नियम नहीं है.”
यही डर ए ओ ह्युम को अंग्रेजी शासन, अंग्रेजियत और अंग्रेज भक्त लोगों को इकठ्ठा कर कांग्रेस जैसी संस्था बनाने को प्रेरित किया. इस बात पर चर्चा अगले लेख “क्या कांग्रेस ने भारत की आजादी की लड़ाई लड़ी थी?” में विस्तार होगी. इस लेख में खुद कांग्रेस के नेता और क्रन्तिकारी अपने शब्दों में साबित करेंगे की अपवाद को छोड़कर गाँधी सहित कांग्रेस और कांग्रेसियों का भारत की आजादी से कोई लेना देना नहीं था.
साभार: सावरकर समग्र, पेज ६१-६३
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