भारत का नक्शा अक्सर देश और विदेशों में गलत छप जाता है और गलती यह होती है कि भारत के जम्मू-कश्मीर राज्य का ५४% हिस्सा अक्सर भारत के नक्शे से गायब हो जाता है और पाकिस्तान तथा चीन के नक्शे में शामिल हो जाता है. आखिर क्यों भारत का नक्शा अक्सर विवादों में आ जाता है? क्या नेहरु-कांग्रेस ने पाक अधिग्रहित कश्मीर (PoK) और चीन अधिग्रहित कश्मीर (CoK) को भारत का हिस्सा नहीं मानने की नीति अपना रखा था? आइये इस लेख के माध्यम से पड़ताल करते हैं.
जम्मू-कश्मीर के महाराज हरिसिंह का विलेय को लेकर दुविधा
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम के तहत देशी रियासतों को यह अधिकार दिया गया की वे इच्छानुसार भारत या पाकिस्तान किसी भी डोमिनियन में शामिल हो सकते है. १५ अगस्त, १९४७ तक जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर को छोडकर शेष सभी देशी रियासतें भारत या पाकिस्तान में शामिल हो चुकी थी. पर महाराज हरिसिंह ७८% मुस्लिम आबादी वाले अपने राज्य के अल्पसंख्यक हिन्दू, बौद्ध, सिक्ख प्रजा की जान माल की सुरक्षा सुनिश्चित करने को लेकर चिंतित होने के कारण भारत या पाकिस्तान किसी में भी विलय करने का निर्णय नही ले पा रहे थे.
चिंता का कारण यह था कि पाकिस्तान में हिंदुओं और सिक्खों के नरसंहार और बलात्कार के कारण पाकिस्तान में विलय का तो प्रश्न ही नही था. एक जनवरी १९४७ को गाँधी जी कश्मीर का दौड़ा किये और घोषणा की कि जम्मू-कश्मीर में शांति के पश्चात प्लेबीसाईट के आधार पर विलय भारत या पाकिस्तान में सुनिश्चित किया जायेगा. माउन्टबेटन भी कुछ ऐसा ही कह आये थे और नेहरु तो उनसे खार ही खाए बैठे थे. ७८% मुस्लिम आबादी वाले जम्मू-कश्मीर में प्लेबीसाईट का निर्णय भारत के पक्ष में जाने का भरोसा नेहरु के अतिरिक्त शायद ही किसी को हो. तत्पश्चात परिणाम की कल्पना से ही हिंदू, सिक्ख, बौद्ध जनता और स्वयम महाराज भयभीत थे. बहुतों ने तो पलायन भी करना शुरू कर दिया था.
पाकिस्तान का जम्मू-कश्मीर पर हमला
परन्तु, जब २२ अक्टूबर को पाकिस्तान ने जिगरेवालों को आगे कर जम्मू-कश्मीर पर आक्रमण कर दिया और रियासत के आधे सैनिक जो मुसलमान थे आक्रमणकारियों से मिलकर हिंदुओं और सिक्खों का कत्लेआम, लूट-मार, आगजनी और बलात्कार का तांडव करने लगे तो महाराज हरिसिंह ने भारत से सैन्य सहायता मांगी पर नेहरु ने दो शर्त रख दिया- पहला, जम्मू-कश्मीर का विलय भारत में करने और दूसरा, भारत समर्थकों तथा हिन्दुओं की हत्या के जुर्म में जेल में बंद शेख अब्दुल्ला को जम्मू-कश्मीर का प्रधानमन्त्री बनाने का. अपने अल्पसंख्यक प्रजा की रक्षा केलिए महाराज हरिसिंह ने दोनों शर्ते मान ली.
देश के साथ विश्वासघात?
उसके बाद सरदार पटेल के दबाव डालने पर २७ अक्टूबर, १९४७ को जम्मू-कश्मीर में सेना भेजा गया. पर लेफ्टिनेंट जेनरल के.के. नंदा की पुस्तक “निरंतर युद्ध के साए में” दिए गये युद्ध के विवरणों से लगता है जवाहरलाल नेहरु न तो जम्मू-कश्मीर को पर्याप्त सैन्य सहायता उपलब्ध करा रहे थे और न ही वहां सैनिकों को स्वत्रंत रूप से स्ट्रेटजी बनाकर काम करने दे रहे थे.
कई ऐसे विवरण दिए गये हैं जहाँ पर्याप्त सहायता के आभाव में पूरी की पूरी सैन्य टुकड़ी पाकिस्तानी और कश्मीर के मुस्लिम विद्रोही सेना की भेंट चढ़ गयी. कई विवरण बताते हैं कि जिन क्षेत्रों में भारतीय सेना जीत रही थी वहां से उनके ब्रिगेडियर/कमांडर को दूसरे जगहों पर अकारण स्थानांतरित कर दिया गया. कई ऐसे क्षेत्र थे जहाँ भारतीय सेना जीत रही थी और सम्पूर्ण विजय केलिए और सैनिक और संसाधनों की मांग की जा रही थी पर सहायता की जगह वहां से कुछ सैनिक बुला लिए गये और जीत हार में बदल गयी.
इतना ही नहीं, जब भारतीय सेना अपने शौर्य और पराक्रम से पाक अधिकृत कश्मीर के अधिकांश क्षेत्रों पर कब्जा कर चुकी थी और तेजी से आगे बढ़ रही थी उसी समय नेहरु ने अचानक युद्ध विराम की घोषणा कर दी. हद तो तब हुई जब युद्ध विराम पश्चात पिछली तारीख से यथास्थिति बहाली की घोषणा कर जानबूझकर विजित भारतीय क्षेत्र को पाकिस्तान के हवाले कर दिया गया.
लेफ्टिनेंट जेनरल के.के. नंदा की पुस्तक “निरंतर युद्ध के साए में” वर्णित कुछ घटनाओं का विवरण आप निचे लिंक पर पढ़ सकते हैं:
क्या शेख अब्दुल्ला के एकछत्र सत्ता की सुरक्षा केलिए ये सब हो रहा था?
पूर्व सैनिक एवं प्रशासक आर विक्रम सिंह का मानना है कि पंजाबी, पहाड़ी और गुर्जर बहुल पाक अधिकृत कश्मीर को जवाहर लाल नेहरु ने कश्मीर में शेख अब्दुल्ला के एकछत्र सत्ता की सुरक्षा केलिए पाकिस्तान को देने की रणनीति अपनाई थी.
वर्तमान पाक अधिकृत कश्मीर पंजाबी, पहाड़ी और गुर्जर भाषा बहुल क्षेत्र था जो कश्मीरी मुसलमानों से कहीं अधिक सांस्कृतिक भाषाई रूप से जम्मू के डोगरा-पंजाबी-हिन्दू राजपूत के अधिक निकट थे. इनकी जनसंख्या करीब ४५ लाख थी जो जम्मू क्षेत्र की जनसंख्या के लगभग बराबर थी. यदि इनमे भारतीय पश्चिमी कश्मीर के राजौरी पूंछ और कुपवाड़ा जिले के आलावा उड़ी और बुनियर तहसीलें भी मिला लें तो कुल आबादी एक करोड़ से अधिक हो जाती जबकि कश्मीर घाटी के मुस्लिम लगभग ६०-७० लाख ही थे.
वर्तमान पाक अधिकृत कश्मीर को यदि पुनः भारत के अधीन कर लिया गया होता तो राजनितिक स्थिति कुछ और होता जो नेहरु के चहेता शेख अब्दुल्ला के कश्मीर पर निरंकुश एकछत्र शासन करने की इच्छा पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करता. क्या इसलिए जवाहरलाल नेहरु ने वर्तमान पाक अधिकृत क्षेत्रों को जबकि सेना उसे लगभग वापस जीत चुकी थी या जीतने वाली थी को अचानक रोककर उन्हें पीछे लौटकर उड़ी सेक्टर में आने केलिए आदेश दिया? अगर यह सत्य है तो यह नेहरु का देश के साथ विश्वासघात का सबसे बड़ा उदहारण है.
बहुत बड़े षड्यंत्र के तहत काम हो रहा था. महाराज की सेना के ब्रिटिश मेजर ब्राउन ने एक नवम्बर, १९४७ को महाराजा के मुस्लिम सैनिकों से विद्रोह कराकर गिलगित पाकिस्तान को सौंप दिया. बल्तिस्तान में भारतीय सेना को कोई सहयोग नहीं दिया गया और सम्पूर्ण सेना वहां पाकिस्तानियों के हाथों मार दी गयी.
यही हाल स्कार्दू का किया. कर्नल शेर सिंह राना अपनी छोटी से टुकड़ी के साथ महीनों स्कार्दू के सिक्खों को पाकिस्तानी आक्रमणकारियों से बचाए रखा. एक एक कर उनकी सारी सेना मार दी गयी पर लाख अनुरोध करने पर भी उन्हें सैन्य सहायता नहीं भेजा गया. परिणामतः स्कार्दू पाकिस्तान सेना के कब्जे में आ गयी (और पाकिस्तान के आदेश पर वहां के चालीस हजार सिक्खों का कत्ल कर उनकी बहन बेटियों को पाकिस्तानी सैनिकों में बाँट दिया गया. गुरु दत्त ने इस वीभत्स घटना का विस्तृत वर्णन अपने पुस्तक युद्ध और शांति में किया है).
जब भारत जीत रहा था तब नेहरु द्वारा सीज फायर का एलान ही नहीं वरन मामले को यूएनओ में ले जाना और वहां पाकिस्तान को कश्मीर पर आक्रमणकारी की जगह कश्मीर को भारत पाकिस्तान के बिच विवाद का क्षेत्र बताना भी शायद उसी षड्यंत्र का हिस्सा था. यदि सम्पूर्ण कश्मीर मुक्त करा लिया गया होता तो पंजाबी, पहाड़ी और डोगरा समाज का समीकरण आबादी का सबसे बड़ा वर्ग होने के चलते सत्ता का स्वाभाविक दावेदार हो सकता था.
एसा होता तो शेख अब्दुल्ला की राजनीती का सूरज सदा केलिए अस्त हो जाता. चूँकि शेख अब्दुल्ला की सत्ता केलिए कश्मीर का बंटबारा जरुरी था इसलिए हमारे नेतृत्व ने सैन्य अभियान पर उड़ी में ही विराम लगा दिया और इस तरह गुलाम कश्मीर को पाकिस्तान के हाथ में बने रहने दिया गया.
(आधार: आर विक्रम सिंह, पूर्व सैनिक एवं प्रशासक के दैनिक जागरण में छपे लेख, दिनांक ०१.११.२०१९)
जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय को अस्थायी करार देना
जवाहरलाल नेहरु माउन्टबेटन और शेखअब्दुल्ला की चाल में फंसकर जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय को ‘अस्थायी’ करार देने, प्लेबीसाईट के आधार पर अंतिम निर्णय लेने तथा मामले को यु एन ओ में ले जाकर जम्मू-कश्मीर को जानबूझकर विवादित क्षेत्र और पाकिस्तान को अकारण ही एक पक्ष बना दिए थे. दरअसल नेहरु ने भयानक भूल यह किया की यूएनओ की चैप्टर सात जिसमे एक आक्रमणकारी देश द्वारा अपने सीमा पर दखल से सम्बन्धित शिकायत की व्यवस्था है कि जगह चैप्टर छः के तहत शिकायत दर्ज कराई जिसमें विवादित क्षेत्र की समस्या के समाधान की व्यवस्था है.
यही कारण है कि कश्मीर का एक हिस्सा पाकिस्तान के हवाले किये जाने के पश्चात उसे वापस पाने की कोशिश तो बहुत दूर की बात है उस पर हक जताने की नीति का भी लगभग त्याग कर दिया गया. इसी नीति को आगे बढ़ाते हुए ऐसे ही बिडम्बना का परिचय जवाहरलाल नेहरु की पुत्री और फिरोज खान की पत्नी मैमूना बेगम उर्फ इंदिरा गाँधी ने भी दिया.
इंदिरा गाँधी ने नेहरु की नीतियों को ही आगे बढ़ाया
१९७१ की लड़ाई में भारत ने लगभग ९२००० से उपर पाक सैनिकों को बंदी बनाया था. भारत चाहता तो इसका सौदा भारत के हित में कर सकता था और पाकिस्तान इन सैनिकों के बदले खुशी खुशी पाक अधिकृत कश्मीर देने को तैयार हो जाता, परन्तु इंदिरा सरकार ने ऐसा कुछ भी होने नहीं दिया. यहाँ तक की पाकिस्तान के ९२००० सेना लौटाने के बदले पाकिस्तान द्वारा अपने सैनिकों को बनाये गए युद्धबंदियों को भी वापस लेने की जरुरत महसूस नहीं की जो आजादी की उम्मीद में घुट घुट कर मरने को विवश हो गए.
वास्तविकता तो यह है कि इंदिरा नेहरु से भी दो कदम आगे निकल गयी. नेहरु ने तो जम्मू-कश्मीर का हिस्सा पाकिस्तान और चीन के हाथों गंवाने के पश्चात भी सरकारी गैर सरकारी मानचित्रों में पूरा जम्मू-कश्मीर दिखाकर हम भारतीयों को मुर्ख बनाने की नीति अपनाये रहे, परन्तु इंदिरा १९७१ के युद्ध में पाकिस्तान के पराजय का लाभ उठाकर भारतीय भू-भाग उससे लेने के बजाय उसने पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो को नियंत्रण रेखा को अंतर्राष्ट्रीय सीमा मानने का प्रस्ताव ही दे दिया था जिसपर १९७२ में जुल्फिकार अली भुट्टो ने इंदिरा गाँधी से कहा की उन्हें इस बात के लिए समय दिया जाए की वह नियंत्रण रेखा को स्थायी सीमा मानने के लिए पाकिस्तानियों को तैयार कर सकें (पुस्तक-पाकिस्तान: जिन्ना से जेहाद तक).
यह कैसी बिडम्बना थी कि आक्रमित परन्तु शक्तिशाली और विजेता देश आक्रमणकारी परन्तु पराजित देश से जबरन अधिकार किये गए अपने भू-भाग पर उसे वैधानिक मान्यता देने हेतु खुद अपने भू-भाग पर स्थायी सीमा बनाने का प्रस्ताव देता हो और पराजित देश यह कहता हो की हम अपने लोगों से पूछेंगे की वे अवैध रूप से अधिगृहित विजित देश का वह भू-भाग उन्हें संतुष्ट कर सकेगा की नहीं!
जम्मू-कश्मीर के दूसरे हिस्से पर चीन का कब्जा होने दिया
इतना ही नहीं, जब नेहरु अपने पंचशील समझौते पर सहमती के बाद सनक में हिंदी-चीनी भाई भाई का नारा लगा रहे थे और पंचशील के कंडिकाओं को घोल घोलकर पी रहे थे; इसी पुस्तक (पाकिस्तान जिन्ना से जिहाद तक) के लेखक आगे लिखते हैं, “चीन ने अपना कार्ड बहुत चतुराई से खेला. उसने भारत की ओर से किसी प्रत्याक्रमण के बिना चुपके-चुपके लद्दाख में अक्साई चीन (जम्मू-कश्मीर क्षेत्र के १९% भाग) को जोड़ लिया”. इस पर नेहरु की प्रतिक्रिया थी-‘घास का एक तिनका तक वहाँ नहीं उगता है’.
सन १९६३ में चीन ने एक अस्थायी सीमा समझौते के तहत पाक अधिकृत कश्मीर की ४८५३ वर्ग किलोमीटर भूमि प्राप्त की. अब जम्मू-कश्मीर राज्य का २०% भू-भाग चीन के कब्जे में है और ३५% भू-भाग पाकिस्तान के कब्जे में है. ऐसे में भारत में स्थित राज्य के केवल ४५% क्षेत्र में जनमत-संग्रह की बात बेतुकी हो चुकी है क्योंकि भारत, पाकिस्तान और चीन अपनी-अपनी जमीन संयुक्त कश्मीर के लिए देने को तैयार नहीं होंगे.
नेहरु-गाँधी खान दान ने भारतीय भू-भाग की वापसी केलिए कोई प्रयत्न नहीं किया
जरा सोचिये नेहरु-गाँधी खान दान और कांग्रेस के लिए भारत की अखंडता क्या मायने रखती है. यह इस बात से भी साबित होता है कि ऐसा कोई दस्तावेज उपलब्ध नहीं है जो यह साबित करता हो की नेहरु-गाँधी खान दान और कांग्रेस ने पाक अधिकृत कश्मीर या चीन अधिगृहित कश्मीर को वापस पाने के लिए कोई प्रयत्न किया हो. सच्चाई तो यह है कि पाकिस्तान जैसे तुच्छ देश को स्वेच्छा से भारतीय भू-भाग समर्पित करने की नेहरु-कांग्रेस की नीति ने चीन को भारतीय क्षेत्र पर कब्जा करने को प्रोत्साहित किया और ९० हजार वर्ग किलोमीटर भारतीय भू-भाग पर अभी भी आँखे गडाये हुए है.
नेहरु-कांग्रेस सरकार तो छाती ठोक कर पाकिस्तान को तिन तिन बार धुल चटाने का दम्भ भरती है परन्तु सच्चाई छुपा जाती है. हाँ, यह सच है कि भारत के जाबांज सिपाहियों ने पाकिस्तानी सेना को तिन बार नहीं चार बार धुल चटा दिया परन्तु नेहरु खानदान ने उनकी वीरता और कुर्बानी व्यर्थ कर दिया. पहले १९४७ में विजित क्षेत्र को पुनः पाकिस्तान के हवाले कर, दूसरी बार १९६५ में फिर से विजित क्षेत्र को पाकिस्तान के हवाले कर.
लाल बहादुर शास्त्री पाकिस्तान और पाक अधिगृहित कश्मीर के विजित क्षेत्र को यूँ ही पाकिस्तान के हवाले किये जाने के पक्ष में बिल्कुल नहीं थे और अगर वे सोवियत रूस से जिन्दा वापस आते तो आज भारत की तस्वीर कुछ और होती, परन्तु यहाँ भी भारत के साथ छल किया गया. १९६५ और उसके बाद यह सामान्य चर्चा का विषय था कि लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु जहर से हुई थी और इसके पीछे इंदिरा गाँधी की सत्ता लोलुपता कारण था.
एक गम्भीर प्रश्न
कहा जाता है कि विधर्मियों (मूल धर्म वालों से इतर) की राष्ट्रीयता स्वधर्मी राष्ट्रों की ओर उन्मुख हो जाती है? क्या नेहरु-गाँधी खान दान इस सिद्धांत के जकड़ में थी? सिर्फ भारत के भू-भागीय क्षरण के संदर्भ में ही नहीं, बल्कि कांग्रेस के शासन में धर्मान्तरण का नंगा नाच, भारतीय सम्पत्ति की खुली लूट और सबसे बढ़कर दंगा निरोधक बिल-२०११ के नाम पर बहुसंख्यक हिंदुओं की हत्या और बलात्कार की छूट को वैधानिक रूप देने के षड्यंत्र में इसे समझा सकता है.
इस पर भी भारत विरोधी जिहादी, वामपंथी, छद्म सेकुलर आदि कश्मीर को पाकिस्तान के हवाले किये जाने के समर्थन में आ खड़े होते हैं. सन १९९८-२००० जम्मू-कश्मीर में उथल-पुथल का समय था. मुझे याद आ रहा है मेरी एक बंगाली छात्रा भी जो शायद वामपंथी मानसिकता से ग्रस्त हो कश्मीरी आतंकवाद पर चर्चा के दौरान बोली थी कि, “भारत कश्मीर पाकिस्तान को दे क्यों नहीं देता, रोज रोज का झगड़ा ही खत्म हो जायेगा.”
तब मैंने उसे समझाया था कि यदि कोई जबरन हमारे घर अथवा भूमि पर कब्जा कर ले तो क्या हमे झगड़ा से बचने के लिए चुप चाप घर और जमीन उसके हवाले कर देना चाहिए. परन्तु आज मैं जानता हूँ मेरा उस वक्त यह जवाब इस समस्या का सरलीकरण था. इस समस्या की गम्भीरता पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो की कथन “मेरी इच्छा भारत के साथ हजार बरसों तक युद्ध करने की है” में झलकता है और खुद मुशर्रफ के शब्दों में व्यक्त होता है जिसने कराची में भाषण देते हुए कहा था, “कश्मीर मुद्दे के समाधान के बाद भी भारत-पाक तनाव जारी रहेगा.”
कश्मीर मुद्दे के निपटारे के बाद तनाव क्यों जारी रहेगा इसे स्पष्ट करते हुए ब्रिगेडियर ए आर. सिद्दीकी ने प्रकाश डाला की, “कश्मीर का लम्बा और कड़वा अध्याय समाप्त होने के बाद भी हिंदुओं की अधिक संख्यावाले भारतीय समाज में मुसलमानों की स्थिति भारत-पाक सम्बन्धों को खराब बनानेवाली एक और वजह होगी” (द नेशन-२९ अप्रैल, १९९९) और इसका और स्पष्टीकरण पाकिस्तान स्थित आतंकवादियों के घोषणाओं में मिलता रहता है जो भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करते रहते हैं.
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