अफगानिस्तान भारतवर्ष का वह हिस्सा है जहाँ ५०००० वर्ष पहले के मानवीय बसावट (वैदिक आर्य संस्कृति) का एतिहासिक सबूत मिला है (विकिपीडिया).
अर्बस्थान (अरब) में जब इस्लाम का उदय हुआ तो देखते ही देखते तुरगस्थान (तुर्की) के हिन्दू, बौद्ध, इराक के राजा बरमक बौद्ध, ईरान के पहलव क्षत्रिय, समरकंद के बौद्ध राजा आदि के इस्लामीकरण के बाद बारी भारतवर्ष के अफगानिस्तान वाले हिस्से की थी. इतिहासकार पी एन ओक लिखते हैं, “यूरेशिया के महान वैदिक आर्य संस्कृति के लोग “अहिंसा परमोधर्म:” की मूर्खतापूर्ण माला जपते हुए “हिंसा लूट परमोधर्म:” की संस्कृति में समाते जा रहे थे.”
अरब के आक्रमणकारियों ने कुछ समय केलिए सिंध, मुल्तान और वर्तमान अफगानिस्तान के कुछ हिस्सों पर भी अधिकार कर लिया था जिसे कुछ ही वर्षों में रघुवंशी सिसोदिया वंश के राजा बप्पा रावल और श्रीराम के अनुज लक्ष्मण के वंशज गुर्जर प्रतिहार वीरों ने अरबों को खदेड़कर पुनः अपने कब्जे में कर लिया था. पर धर्म के नाम पर काफिरों की हत्या, आतंक, लूट और बलात्कार करनेवाले बार बार मुंह कि खाकर भी बाज नहीं आ रहे थे और भारतवर्ष का हिस्सा धीरे धीरे कर इस्लामिक आतंक कि भेंट चढ़ता जा रहा था.
ऐसे ही एक समय भारतवर्ष के खुरासान वाले हिस्से में एक मुस्लिम शासक बना अलप्तगीन. उसने सुबुक्तगिन नामक तुर्की को सेनापति बनाया. मुसलमान भारतवर्ष को इस्लामिक राज्य बनाने केलिए लगातार वर्तमान अफगानिस्तान और भारत वाले हिस्सों पर आक्रमण करने लगे. मुस्लिम आक्रमणकारी बामियान के बौद्धों को आसानी से हराने में सफल हो गये.
बामियान में बौद्धों का कत्लेआम कर और सत्ता पर अधिकार करने के बाद मुसलमानों ने काबुल के तुर्कीशाही बौद्धों पर हमला किया. तुर्कीशाही वंश के बौद्ध राजा लघमान तुर्क ने आत्मसमर्पण कर मुसलमान बनना स्वीकार कर लिया अबासिद को पन्द्रह लाख दिरहम और गुलाम देना स्वीकार कर लिया. उसके साथ ही सभी बौद्ध प्रजा मुसलमान बन गये और हिन्दू जो बच गये गांधार की तरफ भाग गये.
काबुल के बचे हुए हिन्दुओं के सहयोग से गांधार (या उदभांड/वाहिंद) के हिन्दूशाही वंश के कल्लर (ब्राह्मण) ने ८५० ईस्वी में बौद्ध से मुसलमान बने लघमान तुर्क पर हमला कर दिया और काबुल पर अधिकार कर लिया. मुसलमान चोरों और लुटेरों कि भांति हमला करते गाँव और शहर को लूट लेते, मन्दिरों को तोड़ देते असहाय नागरिकों का अपहरण कर स्त्रियों का बलात्कार करते और फसलों को जला देते.
मजारे शरीफ अभिलेख, जिसकी खोज Taxila Institute of Asian Civilisations, Islamabad ने की है, के अनुसार शाही शासक वेक्कादेव उत्तरी अफगानिस्तान को जीतकर वहां शासन किया था और वहां एक विशाल शिवमन्दिर बनाया था. उसने हाथी और शेर वाला ताम्बे के सिक्के चलाये थे.
हिन्दूशाही वंश के अष्ट और तोरमाण ने गजनी पर अधिकार कर वहां शासन किया. उसके बाद सम्भवतः हिन्दुशाही वंश का लाविक ने गजनी पर शासन किया जिसे हिन्दूशाही वंश का समर्थन प्राप्त था. अष्ट हिन्दूशाही वंश के उद्भांडपुर के शासक कमलवर्मन को हटाकर खुद शासक बनना चाहता था पर राजतरंगिनी से पता चलता है कि कश्मीर के राज्य ने उसे ऐसा करने से रोक दिया.
कुछ बरसों बाद इस्लामिक आक्रमणकारी अल्पतगिन ने गजनी पर अधिकार कर लिया. फिर लाविक को एक विशाल सेना के साथ पुनराधिकार केलिए भेजा गया और वह सफल हुआ. परन्तु गजनी ज्यादा दिन हिन्दुओं के अधिकार में नहीं रहा. अलप्तगिन का सेनापति सुबुक्तगिन ने गजनी पर अधिकार कर लिया और हिन्दुओं के शक्तिस्थल गजनी का पूर्ण इस्लामीकरण कर दिया.
कमलवर्मन के भीमदेव हिन्दुशाही वंश का शासक बना. उसके पुत्र नहीं थे सिर्फ एक पुत्री दिद्दा थी जो बाद में कश्मीर कि विख्यात महारानी बनी. शाही राज्य समृद्ध और मजबूत था पर मुसलमानों के कारण सुरक्षित नहीं था. पुरुष उत्तराधिकारी के आभाव में उन्होंने जयपालदेव को अपना उत्तराधिकारी बनाया जो सम्भवतः क्षत्रिय कुल से था.
गांधार के हिन्दूशाही वंश के राजा जयपाल ने मुसलमानों से कड़ा संघर्ष किया और उनके छक्के छुड़ा दिए. एक दिन सुबुक्तगीन का एक प्रतिनिधि मंडल जयपाल के लाहौर दरबार में पहुंचा और अपनी कैद में पड़े हिन्दू, बौद्ध नागरिकों को सता सताकर मार देने कि धमकी देते हुए जयपाल से युद्ध का हर्जाना माँगा तो जयपाल ने उन दुष्टों को बंदी बना लिया. फिर भयानक युद्ध हुआ और इस युद्ध में पेशावर (पुष्कल या पुरुषपुर) जयपाल के हाथों से निकल गया. पेशावर को सैनिकों के हाथों बंधक बना वह बल्ख लौट गया. परन्तु तब हिन्दुओं में वीरों कि कमी नहीं थी. कहा जाता है एक वीर योद्धा जसराज ने मुहम्मद गजनी के बाप सुबुक्तगिन को इनके खुद के दरबार मे मारकर इनका सर मूलतान मे लाके टाँग दिया था.
नरपिशाच गजनवी इससे इतना क्रुद्ध हुआ की उसने हर वर्ष भारत के विरुद्ध जिहाद करने की घोषणा की. उसका चेहरा इतना भयानक था की एकबार दर्पण में खुद का चेहरा देख डर गया था. तबसे वह दर्पण देखना ही छोड़ दिया था. वह लुटेरों की भांति भारत के धनी प्रदेशों और बड़े बड़े मन्दिरों पर हमला करता. प्रदेश को लूटपाट कर शमशान बना देता, पुरुषों को कत्ल कर देता स्त्रियों को सेक्स स्लेव बना लेता और गजनी के बाजारों में दो दो रूपये में बेच देता और बच्चों को गुलाम या मुसलमान बनाकर अपनी शैतानी सेना में शामिल कर लेता. मन्दिरों के खजाने को लूट लेता फिर मन्दिर को नष्ट कर देता या उसे मस्जिद बना देता.
डॉ एडवर्ड साचू लिखते हैं, “महमूद के लिए सारे हिन्दू काफ़िर हैं. वे सभी जहन्नुम भेजने योग्य हैं क्योंकि वे लुटने से इंकार करते हैं. वह इतना क्रूर था कि हाथी के पैरों से कुचलकर मरने से बचने केलिए, अपनी जान लेकर फिरदौसी को भी वेश बदलकर भागना पड़ा था.”
प्रोफेसर हबीब लिखते हैं, “शेख सादी और उनकी गुलिस्तां के बारे में महमूद के विचार बड़े नीच थे. सुल्तान महमूद कि बडाई कि अधिकांश कहानियाँ दिल्ली और दौलताबाद के अर्ध तुर्की शासनकाल में गढ़ी गयी थी.”
मुसलमानों के लगातार आक्रमण से प्रभावित होकर हिन्दूशाही वंश का जयपाल जो गजनी तक जाकर मुसलमानों को हराया था अब लोहान कोट (लाहौर दुर्ग) से शासन करने लगा था. पर नवम्बर १००१ ईसवी में गजनवी और जयपाल के बीच पुष्कलावती में लड़ाई हुई जिसमें पन्द्रह क्षत्रिय राजकुमारों को गजनवी ने छल से बंदी बना लिया जिसके कारण संभवतः जयपाल को हार स्वीकार करनी पड़ी क्योंकि बाद में राजकुमार रिहा कर दिए गये थे.
मोहम्मद गजनवी से हार के बाद मुसलमानों द्वारा नरसंहार और बलात्कार के घृणित कुकर्मों से आहत हो प्रजा पर अत्याचार केलिए खुद को कसूरवार मान जयपाल ने अग्नि में प्रवेश कर आत्महत्या कर लिया. जयपाल की मृत्यु के बाद भारतवर्ष के वर्तमान अफगानिस्तान, जिसपर बौद्धों और हिन्दुओं का शासन था, का लगभग पूरा इस्लामीकरण हो गया.
राजा जयपाल के बाद पुत्र अनंगपाल ने मोहम्मद गजनवी से भयानक संघर्ष किया. गजनवी आनंदपाल के पुत्र सुखदेव को बंदी बना लिया और उसके मुसलमान बनने पर उसे भेदा का शासक बना दिया. परन्तु वह इस्लामिक शैतानों से घृणा करता था. भेदा का शासक बनते ही विद्रोह कर दिया और गजनवी की सेना से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त किया.
अनंगपाल ने संघर्ष जारी रखा. वह महमूद से घृणा करता था क्योंकि उस नरपिशाच ने उसके पिता, पुत्र और प्रजा को नृशंसता पूर्वक चबा डाला था. १००८ ईस्वी में महमूद के साथ उसके संघर्ष में दिल्ली, अजमेर, कन्नौज, कालिंजर, उज्जैन, ग्वालियर के सेनाओं ने भी हिस्सा लिया.
प्रोफेसर हबीब लिखते हैं कि, “सामूहिक संकट कि इस घड़ी में हिन्दू स्त्रियों ने अपने आभूषणों को बेचकर दूर-दूर से विक्रय राशि भेजी. देश कि गरीब बहनों ने बुखार में भी चरखे चलाकर, मजदूरी करके देश कि सुरक्षा में योगदान दिया.”
आनंदपाल वाहिंद कि ओर एक विशाल सेना के साथ बढ़ा. सेना कि संख्यां देख, महमूद सामने आने का साहस नहीं कर सका. अपने पड़ाव के चारों ओर उसने खाई खुदवा दी. ४० दिनों तक वह प्रतीक्षा करता रहा. ईधर आनंदपाल कि सेना बढती रही, हिन्दू हथियार लेकर उसकी सेना से आकर मिलते जा रहे थे.
हिन्दू सेना के इस विस्तार से आतंकित हो महमूद को युद्ध के मैदान में उतरना पड़ा. नंगे सिर और नंगे पैर हजारों वीर गक्खरों ने समर ध्वनी कि गूंज से आकाश को वेध दिया और खाईयों को फंड, तम्बुओं को पारकर मुस्लिम सेना पर टूट पड़े. संयुक्त सेना ने गजनी के सेनाओं के छक्के छुड़ा दिए. मुसलमान सैनिक गाजर मूली की तरह काटे जा रहे थे. गजनवी का सेना तेजी से पीछे हटने लगा, उसको अपनी हार निश्चित जान पड़ रही थी तभी दुर्भाग्य ने खेल खेला और पासा पलट गया.
अनंगपाल के हाथी के एक कनपट्टी पर बारूद का गोला लग गया और हाथी अनंगपाल को लेकर पीछे की ओर भागने लगा. अन्य राजाओं के सेनापतियों को लगा की अनंगपाल युद्ध छोड़कर भाग रहा है तो वे भी भागने लगे. जीत के द्वार तक पहुंचकर संयुक्त सेना मूर्खतावश हार गयी और बाद में अनंगपाल को अपमानजनक संधि करना पड़ा.
इतिहासकार पुरुषोत्तम नागेश ओक लिखते हैं, “यह अंतिम संयुक्त हिन्दू विरोध था. बड़ी उमंग से सामूहिक जमाव हुआ था. पर एक छोटी से भूल के कारण बड़े आराम से सामूहिक पलायन हो गया. जीतते जीतते हिन्दू सेना हार गई. यह विजय एक महान गौरवशाली विजय होती जो सम्भवतः इन दुष्टों को जड़-मूल से ही साफ कर देती.”
मुल्तान का सूर्यमंदिर और स्थानेश्वर का चक्रपाणी मन्दिर काशी और सोमनाथ के मन्दिरों की तरह ही विशाल और अंतरराष्ट्रीय तीर्थ स्थल था जिसे मुहम्मद ने नष्ट कर लूट लिया. उसके इस क्रूर और शैतानी कृत्य से प्रसन्न होकर ख़लीफा ने उसे उपाधियाँ देकर सम्मानित किया और उसे शासक नियुक्त कर दिया. ईधर संधि के अपमान और देव मन्दिरों कि शैतानों के हाथों दुर्गति से आहत अनंगपाल की कुछ ही दिनों में मौत हो गयी.
आनंदपाल के बाद कुछ दिन त्रिलोचनपाल फिर उसका बेटा भीमपाल शासक बना. उसने महमूद के साथ सभी अपमानजनक संधियों को तोड़ दिया. महमूद को उसने ललकारा और कर भेजना बंद कर दिया. अपने राजपरिवार कि खोई प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त करने और अपने देश के सम्मान पर लगे कलंक को अपनी रक्तधार से धोने केलिए कटिबद्ध हो गया.
लाहौर के इस गर्वीले हिन्दू शिशु शासक को कुचलने केलिए महमूद १०१४ ईस्वी में हमला किया. गजनवी से टकराने केलिए भीमपाल ने मार्गला घाटी का चुनाव किया जो सामरिक दृष्टि से उत्तम था. भीमपाल के ओजस्वी नेतृत्व से प्रभावित होकर कुछ हिन्दू राजाओं ने अपनी सैन्य टुकड़ियाँ भी भेजी. भयंकर युद्ध हुआ पर भीमपाल कि सेना हार गयी और फिर हिन्दुओं का नरसंहार, स्त्रियों का बलात्कार, मन्दिरों को तोड़ने, लुटने, धर्मांतरण आदि का इस्लामिक नंगा नाच प्रारम्भ हो गया. उसके बाद उसने लाहौर दुर्ग पर हमला किया पर वह अधिकार नहीं कर सका और वहां से उसे हार कर वापस गजनी लौटना पड़ा.
लोहाकोट में हार का अपमान गजनवी को काटने लगा. वह इस अपमान का बदला लेने केलिए एकबार पुनः प्रयास किया पर इसबार भी उसे मुंह कि खानी पड़ी. पर रामगंगा के युद्ध में वह विजयी हुआ और लोहाकोट पर उसका अधिकार हो गया. त्रिलोचनपाल इस युद्ध के बाद मृत्यु को प्राप्त हो गया और भीमपाल अजमेर के राय के पास चले गये. इस प्रकार कल्लुर ब्राह्मण द्वारा स्थापित हिन्दूशाही वंश का भारत और भारतियों कि रक्षा हेतु इस्लामिक आतंकियों से लड़ते हुए अंत हो गया.
मुख्य स्रोत: भारत में मुस्लिम सुल्तान, लेखक-पुरुषोत्तम नागेश ओक और विकिपीडिया